पाकिस्तान पिछले कई महीनों से राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक बदहाली को लेकर सुर्ख़ियों में है. इस बीच 25 फरवरी को लाहौर के अछरा बाज़ार इलाक़े में एक ऐसी घटना घटती है, जिसकी चर्चा हर जगह हो रही है. एक महिला पर भीड़ टूट पड़ती है. ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए उस महिला के साथ मॉब लिंचिंग की कोशिश की जाती है. हालाँकि महिला पुलिस अधिकारी सयैदा बानो नक़वी की सूझबूझ से वो महिला भीड़ का शिकार बनने से बच जाती है.
लाहौर की घटना बेहद शर्मनाक है. यह एक और बात को भी ज़ाहिर करता है. पूरी दुनिया में 45 या 46 मुस्लिम मुल्क बने, उनमें पाकिस्तान अकेला ऐसा देश है, जो इस्लाम के नाम पर वजूद में आया. मज़हब के नाम पर जो मुल्क बना, वो सिर्फ़ पाकिस्तान है. उसी पाकिस्तान में मज़हब के नाम पर आए दिन मॉब लिंचिंग की घटना होती है. मासूम लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है. हाल ही में पाकिस्तान में काम रह रहे श्रीलंका के एक नागरिक को मार डाला गया.
ईशनिंदा के आरोप में महिला को भीड़ ने घेरा
यह सब दिखाता है कि मज़हब के नाम पर जो मुल्क बना, वो मज़हब की शिक्षा से कितना दूर है. लाहौल ज़िंदा-दिल शहर के तौर पर मशहूर रहा है. लेकिन ग़ौर करने वाली बात है कि अब जो तस्वीर लाहौर से आयी है, वो बताता है कि लाहौर नैतिक तौर से कितना मर चुका है. घटना की जो वीडियो सामने आयी है, उसमें देखिए कि भीड़ में सभी लोग टोपी लगाए हुए हैं. इससे ऐसा लग रहा है कि महिला को घेर रखे सारे लोग मज़हब के जानकार लोग हैं. ये लोग आरोप लगा रहे थे कि महिला ने उस तरह का लिबास पहनकर धर्म का अपमान किया है. ये लोग 'सर तन से जुदा' जैसे नारा भी लगा रहे हैं. ये लोग कहीं से भी मज़हबी नहीं लग रहे थे. ये सारे रैडिकल फंडामेंटलिस्ट, कट्टर, धर्मांध, रटा-रटाया तोते की तरह स्लोगन याद करने वाले लोग लग रहे थे. फिर उसको हमला कर जान मारकर प्रैक्टिकल कर देते हैं.
मज़हब के नाम पर उन्माद से किसे लाभ?
महिला के लिबास पर अरबी अक्षर में 'हलु' या 'हलवा' लिखा है. इसका मतलब होता है 'ब्युटीफूल'. वो महिला अपने शौहर के साथ शॉपिंग करने गयी थी. अरब में अरबी अक्षर में प्रिंटेड लिबास आम हैं. क्या वो दुकानदार ऐसा एक ही लिबास लाया होगा. बाक़ी दुकानों में उस तरह के ड्रेस होंगे. इन कठमुल्ला जाहिल मौलानाओं के इशारे पर भीड़ उन्मादित हो जाती है. इन लोगों की उन दुकानों पर नज़र नहीं गया. वहाँ तो कोई आपत्ति इन लोगों ने नहीं दर्ज किया. क्यों नहीं जानने की कोशिश की कि वो क्या लिखा है.
कुछ वक़्त पहले बांग्लादेश के किसी शहर में नगर निगम ने फ़ैसला लिया था. शहर में खड़े होकर खुलेआम जो लोग पेशाब करते हैं, इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए अरबी में लिखवा दिया गया था कि यहाँ पेशाब करना मना है. इसका व्यापक असर दिखा. वहाँ जो भी आदमी इस लिखावट को देखता था, तो उसे लगता था कि यह क़ुरआन की आयत है और वह वहाँ से हट जाता था. यह बहुत सफल प्रयोग रहा था.
ये सब भारतीय उपमहाद्वीप का हिस्सा है. इनमें लोगों की मातृभाषा हिंन्दी है, उर्दू है या फिर बंगाली है. बच्चों को क़ुरआन पढ़ने के लिए बचपन में उस्ताद या मौलवी रख दिए जाते हैं. उससे अरबी सीख नहीं जाते हैं. बाद में उसका तर्जुमा उर्दू में पढ़ते हैं. ये एक पूरा एरिया है, जिसकी मातृभाषा अरबी नहीं है.
बांग्लादेश में अरबी का प्रयोग सफल रहा. यहाँ लाहौर में देखिए कि अरबी में प्रिटेंड लिबास पहनने पर महिला के साथ भीड़ किस तरह का सलूक कर रही थी. वहशी लोग बिना मतलब जाने वहशीपना दिखाने लग गए. वहाँ स्थिति इतनी बुरी है कि बाद में महिला ने माफ़ी भी मांगा कि जाने-अनजाने अगर मुझसे कोई ग़लती हुई है तो माफ़ कर दें.
धार्मिक उन्माद के लिए कौन है ज़िम्मेदार?
पाकिस्तान में धर्म के नाम पर जो उन्माद है, उसके लिए राजनीतिक माहौल से अधिक ज़िम्मेदार सामाजिक माहौल है. किस तरह से समाज का निर्माण हुआ है, यह महत्वपूर्ण है. समाज के निर्माण में राजनीति का भी बहुत बड़ा हाथ होता है. ज़िया-उल हक़ जब शासन संभाल रहे थे, उस दौरान 1980 से 86 के बीच पाकिस्तान में ईशनिंदा से जुड़े क़ानून में की धाराएं जोड़ी गयी. सज़ा के प्रावधान को सख़्त किया गया.
ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को हटाकर सैन्य शासक ज़िया उल हक़ ने सत्ता हथिया लिया. बाद में ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को साज़िश के तहत फांसी पर चढ़ा दिया. जिस वक़्त ज़िया उल हक़ ने सत्ता संभाला, उस समय सोवियस संघ का अफगानिस्तान पर सैन्य हमला होता है. बाबरक कर्मल रशियन टैंक पर बैठकर अफगानिस्तान आते हैं और यहाँ के राष्ट्रपति बनते हैं. फिर सीआईए और अमेरिका की मदद से ज़िया उल हक़ ने एक मुजाहिदीन का फ़ौज तैयार किया.
एक बहुत रोचक पहलू है. नॉर्थ फ्रंटियर का जो इलाक़ा है, वहाँ ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान बहुत बड़े फ्रीडम फाइटर थे. उन्होंने महात्मा गांधी से कहा भी था कि हमें किन भेड़ियों के हवाले करके आप जा रहे हैं. राजनीतिक मजबूरी थी, मुल्क का बँटवारा हो गया था. ये लोग कम्युनिस्ट मिज़ाज लोग थे. यहाँ के कबीलाई लोग मज़हबी होने के बावजूद कम्युनिस्ट मिज़ाज थे. ज़िया उल हक़ ने पैसे की मदद से उन कम्युनिस्ट मिज़ाज लोगों को मुजाहिदीन बना दिया. इस्लामिक मुजाहिदीन बनाकर रूस के ख़िलाफ़ इत्तिहाद का माहौल बनाया गया. अफगानियों की मदद के लिए ये मुजाहिदीन अफगानिस्तान भेजे गए. एक तरह से पाकिस्तान ने इसके माध्यम से रशिया के ख़िलाफ़ प्रॉक्सी वार शुरू किया था.
सऊदी फंडेड वहाबी मदरसा और कट्टरवाद
यह वो दौर था, जब बड़े पैमाने पर कुकुरमुत्ते के तरह सऊदी फंडेड वहाबी मदरसा खुलना शुरू हुआ. वहाबी मदरसों ने कट्टरपंथ की एक नयी पौध तैयार की, जिसके नतीजे में पाकिस्तान में में हम आए दिन मज़हब के नाम पर मॉब लिंचिंग की घटना घटित होते देख रहे हैं. पहले इस तरह का माहौल नहीं था. पहले इस तरह की ख़बरें पाकिस्तान से नहीं आती थी कि उन्मादी भीड़ ने मज़हबी नारा लगाते हुए किसी को मार दिया.
सोवियत संघ-अफगान वार के दौर में सऊदी फंडेड वहाबी स्कूलों का एक जाल पाकिस्तान में फैलता चला गया. इसी से न सिर्फ़ एक उन्मादी भीड़ पैदा हुई, बल्कि कथित तौर से जिहादी मानसिकता लिए हुए लोगों ने पाकिस्तान की लोकतांत्रिक संरचना को चुनौती देना शुरू किया. पाकिस्तान में इस्टैब्लिशमेंट की मदद से यही तबक़ा कश्मीर के अंदर आतंकवाद की आग को भड़काने की मुहिम में जुट गया. उस तबक़े के लोगों को भारत में भेजना शुरू किया गया. बाद में मुंबई आतंकी हमला जैसी घटना भी घटित हुई.
पाकिस्तान किस दिशा में जा रहा है?
पाकिस्तान में धर्म के नाम पर उन्माद फैलाने वाले वहाबी स्कूली व्यवस्था से निकले हुए लोग हैं. हालाँकि जब इमरान खान की सरकार आई थी, तो ऐसी ख़बर आई थी कि मदरसों का संचालन सरकार अपने हाथों में ले रही है. लेकिन आगे क्या हुआ, उसका कुछ पता चलता नहीं है. इस प्रक्रिया में देरी का ही नतीजा है कि धर्म के नाम पर मॉब लिंचिंग की घटना अभी भी पाकिस्तान में हो रही है. अरबी अक्षरों में प्रिंटेड लिबास पहनकर बाहर आने पर महिला के साथ इस तरह का सलूक किया जा रहा है. यह बहुत ही चिंता का विषय है. पाकिस्तान का जो सैन्य और सरकारी तंत्र है, उसको यह सोचना चाहिए कि पाकिस्तान किधर जा रहा है.
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