संसद भंग, जेल में बंद पूर्व पीएम इमरान खान, जानिए अब किसके हाथों में जा सकती है डूबते पाकिस्तान की कमान
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पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति शहबाज शरीफ की सिफारिश पर वहां के राष्ट्रपति ने आधी रात में नेशनल असेंबली भंग कर दी है. अब कयास यह लगाए जा रहे हैं कि वहां संवैधानिक अवधि यानी 90 दिनों के भीतर चुनाव हो पाएंगे या एक बार फिर देश सैन्य तानाशाही की ओर बढ़ रहा है. इसके साथ ही बिलावल भुट्टो ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए फिर से एक बार गलत भाषा का इस्तेमाल किया है, जो कश्मीर में शांति-बहाली पर पाकिस्तान की छटपटाहट को दिखाता है. बहरहाल, बड़ा सवाल यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र कितने दिनों का मेहमान है?
अभी नहीं होंगे पाकिस्तान में चुनाव
आर्टिकल 58 (1) के तहत पाकिस्तानी राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने वहां की राष्ट्रीय संसद को प्रधानमंत्री की सिफारिश पर भंग कर दिया है. अब एक कानूनी नुक्ता तो यह है कि वहां 90 दिनों के भीतर चुनाव हों और तीन दिनों के भीतर वहां कार्यवाहक सरकार का गठन हो. उसकी प्रक्रिया शायद चल भी रही है और एक अंतरिम व्यवस्था हो भी सकती है. चुनाव का जहां तक सवाल है, तो मुझे नहीं लगता कि वहां इतनी जल्दी चुनाव होगा. वहां आर्थिक संकट है, राजनीतिक संकट है और सुरक्षा का भी संकट है. आर्थिक फ्रंट पर देखें तो 38 फीसदी से अधिक तो वहां मुद्रास्फीति है.
अगर आईएमएफ तीन मिलियन डॉलर की अगली किस्त भी पाकिस्तान को दे देता है, तो वह चौथा सबसे बड़ा उधार लेनेवाला देश हो जाएगा. राजनीतिक मोर्चे पर देखें तो हरेक अंग एक-दूसरे से भिड़ा हुआ है. जुडिशियरी हो, लेजिस्लेटिव हो या फिर आर्मी हो, सब एक-दूसरे से तनाव में हैं. मौजूदा हालात में तो ऐसा ही लगता है कि आठ से दस महीने कम से कम चुनाव को टाला जाएगा. इसके कई बहाने भी उनके पास हैं. पहला बहाना तो यही है कि डिजिटल सेंसस होना है, जिसे शरीफ सरकार ने मंजूरी दी थी. चुनाव आयोग ने कहा है कि इसके लिए उसे चार महीने का समय चाहिए. इसके अलावा अर्थव्यवस्था एक बड़ा मसला है. आर्मी भी एक बड़ा घटक है, वहां चुनाव के लिए. अगर सेना राजी नहीं हुई तो चुनाव तत्काल हो भी नहीं सकता है. साथ ही, वहां सेना को भी पता है कि अगर अभी चुनाव हुआ तो इमरान खान को सहानुभूति का लाभ मिलेगा, उनके लिए जनता विद्रोह भी कर सकती है. इसलिए, आर्मी या पाकिस्तान मुस्लिम लीग या फिर जो भी कार्यवाहक सरकार हो, वह तत्काल चुनाव कराना चाहेंगे.
आर्मी ही के पास है सूत्र-संचालन
यह बात तो बिल्कुल सही है कि आर्मी के बिना पाकिस्तान में कोई सरकार चल ही नहीं सकती है. आर्मी ही वहां किंगमेकर है. वहां का संवैधानिक ढांचा ही ऐसा है कि सेना वहां सब कुछ है. वहां सेना सिविलियन सत्ता के नीचे नहीं है, वह स्वतंत्र है. वहां के प्रधानमंत्री ने भी पहले सेना से ही जाकर आशीर्वाद लिया और तब यह रेकमेंडेशन किया है. अब ये है कि सेना को जब भी मुफीद लगेगा तो वह अपनी पसंदीदा पार्टी को वहां सत्ता में बिठा देगी. जहां तक बिलावल भुट्टो के मोदी संबंधी बयान का सवाल है, तो वह उनकी छटपटाहट और राजनीति को दिखाता है. वह कश्मीर को किसी भी तरह मुद्दा बनाना चाहते हैं, क्योंकि वहां की पूरी पॉलिटिक्स इसी पर निर्भर है. जहां तक कश्मीर का सवाल है, तो वह तो भारत का अभिन्न अंग है. भारत कश्मीर में विकास हरेक क्षेत्र में कर रहा है. अनुच्छेद 370 के हटने के बाद वहां शांति का वातावरण है, खुद पीएम मोदी ने संसद में बताया है कि वहां एक करोड़ 60 लाख देशी-विदेशी टूरिस्ट इस सीजन में आए हैं. पत्थरबाजी बंद है, आतंक की खेती बंद है, लोग पाकिस्तान के बहकावे में आ नहीं रहे हैं और इसीलिए पाकिस्तान छटपटा रहा है. वह अपने राजनीतिक फायदे के लिए हरेक जगह इस मुद्दे को उठाते रहते हैं. यह केवल एक पॉलिटिकल स्टंट है.
भारत को रहना होगा सावधान
पड़ोसी की अगर हालत खराब हो तो भारत पर भी प्रभाव पड़ेगा. पाकिस्तान दक्षिण एशिया का हिस्सा है, तो असर तो होगा ही. चुनाव कराने में भी वहां बहुत ज्यादा पैसा खर्च होगा. सेना के साथ वहां की मौजूदा सरकार भी जान रही है कि लोगों का समर्थन अभी इमरान खान के साथ है. हो सकता है कि कुछ समय बाद यानी छह-सात महीने बाद अभी जो कार्यवाहक सरकार बनेगी, वो चुनाव करवा लें. अभी इमरान खान का मसला इस्लामाबाद हाईकोर्ट में है ही. उसी आधार पर ये आगे चुनाव भी कराएंगे. इसके और भी उदाहरण हैं. इन्होंने पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट का एक ऑर्डर भी नहीं माना. कोर्ट का ऑर्डर था कि पंजाब और खैबर-पख्तूनख्वां में चुनाव कराए जाएं और सरकार ने नहीं कराया. इसी तरह, ये सिंध की सरकार भी बहुत जल्द भंग कर देंगे. तो, इसके बाद वहां कोई भी निर्वाचित सरकार नहीं रहेगी, सभी चार प्रांतों की सरकार खत्म हो गयी. इसके बाद सब कुछ सेना के हाथ में होगा और वही सब कुछ करवाएगी.
पाकिस्तान ठीक उसी तरफ बढ़ रहा है कि सेना अब प्रत्यक्ष तरीके से वहां कमान संभाल ले. जब वहां नेशनल असेंबली है नहीं, चारों प्रांत की सरकारें भी नहीं रहेंगी, कमान अप्रतय्क्ष रूप से सेना के पास है ही, तो फिर प्रत्यक्ष तौर पर ही कमान ले लेगी सेना. डी-फैक्टो की जगह वास्तविक रूलर ही बन जाएगी सेना. जहां तक भारत है, तो हमारी बहुत साफ पाकिस्तान नीति है- टेरट और बातचीत साथ नहीं चल सकते. अंतरराष्ट्रीय मंचों से पाकिस्तान अलग-थलग पड़ चुका है. भारत के लिए यह बहुत बड़ी समस्या नहीं होगी, लेकिन हां हमें अलर्ट रहना होगा, नजर बनाए रखनी होगी. यह कहना गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान एक बार फिर सैन्य तानाशाही की ओर बढ़ रही है. अभी की सिविलियन सरकार भी बस दिखावे की है. इमरान खान का उदाहरण देख लीजिए. जब तक वह सेना के मुताबिक चले, तो ठीक था. उससे हटते ही इमरान को ही हटा दिया गया.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]
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