नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में अब चंद महीने ही बचे हैं. इस कार्यकाल में संसद का आख़िरी शीतकालीन सत्र चल रहा है. पिछले कुछ दिनों में संसद में जो कुछ भी हुआ है, उसे भारतीय संसदीय व्यवस्था के लिए किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं कहा जायेगा.


संसद देश की सर्वोच्च विधायिका है. क़ानून बनाने के साथ-साथ संसद हमेशा से ही जन सरोकार से जुड़े मसलों पर सार्थक चर्चा का केंद्र बिंदु रही है. हालाँकि पिछले कुछ सालों से संसद से स्वस्थ बहस की परंपरा या परिपाटी गायब होती दिख रही है. संसदीय व्यवस्था में जितना महत्वपूर्ण सत्ता पक्ष होता है, जनता के नज़रिये से विपक्ष की भूमिका उससे भी ज़ियादा प्रासंगिक होती है.


संसद में विपक्ष की सीमित होती भूमिका


पिछले कुछ साल से जो कुछ भी संसद में हो रहा है, उससे दो बातें निकलकर सामने आती हैं. पहली बात यह है कि धीरे-धीरे क़ानून बनाने से इतर संसद में अलग-अलग तरीक़ो से महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस या चर्चा की गुंजाइश ख़त्म होती जा रही है या कहें कि ख़त्म ही हो गयी है. दूसरी बात यह है कि संसदीय प्रणाली में मोदी सरकार की ओर से भूमिका को सीमित या कहें नगण्य करने की हर कोशिश की जा रही है.


चाहे महत्वपूर्ण मुद्दों पर क़ानून बनाने की बात हो, या फिर देश में कोई बड़ी समस्या या जनहित से जुड़े मुद्दों पर मंथन की बात हो, सरकार की ओर से विपक्ष को भरोसे में लेने या चर्चा करने की परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त कैटेगरी का हिस्सा बनने की कगार पर है. भारतीय संसदीय व्यवस्था पर लंबे समय से बारीकी से नज़र रखने वाला कोई भी शख़्स इन दोनों बातों से कोई इंकार नहीं कर सकता है.



संसदीय व्यवस्था और सरकार से सवाल


इस बार तो शीतकालीन सत्र में सारी हदें ही पार हो गयी हैं. 'अजीब-ओ-ग़रीब स्थिति देखने को मिल रही है. सबसे पहले 13 दिसंबर को नये संसद भवन में कुछ ऐसा होता है, जिससे संसद की सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े हो जाते हैं. विजिटर की ओर से लोक सभा में स्मोक कैंडल का इस्तेमाल किया जाता है. चंद महीने पहले ही नये संसद भवन का उद्घाटन बड़ी ही धूम-धाम से किया गया था. उस वक़्त नरेंद्र मोदी सरकार की ओर सुरक्षा उपायों के भी तमाम दावे किए गए थे. हालाँकि 13 दिसंबर को जो कुछ भी हुआ, उससे तमाम सुरक्षा दावों की कलई खुल गयी.


सवाल पूछना विपक्ष का संवैधानिक अधिकार


इस साल 13 दिसंबर को लोक सभा में घटना चाहे कितनी भी छोटी हो या बड़ी हो, सुरक्षा चूक को लेकर सरकार से सवाल ज़रूर बनता है. देश में लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था है, तो सवाल सरकार से पूछा ही जायेगा. सवाल पूछने का काम संसद में विपक्षी दलों के नेता ही करेंगे. संसदीय व्यवस्था में सवाल पूछना विपक्ष का और जवाब देना सरकार का संवैधानिक अधिकार है.



विपक्षी दलों के नेता सुरक्षा चूक को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से सवाल पूछेंगे ही. जब संसद का सत्र चल रहा हो, तो संसद के भीतर ही सवाल किये जायेंगे. यह पुरानी परंपरा है. सरकार की ओर से इस तरह की घटना पर जवाब भी पहले संसद के भीतर ही दिया जायेगा, यह भी भारतीय संसदीय व्यवस्था की परिपाटी रही है. हालाँकि मोदी सरकार को सवाल से ही गुरेज़ है, इस बात को हम पिछले कई सालों से देखते आ रहे हैं.


व्यापक पैमाने पर विपक्षी सांसदों का निलंबन


इन सबके बावजूद किसी ने नहीं सोचा था कि सरकार से सवाल पूछे जाने के एवज में इतने बड़े पैमाने पर विपक्ष सांसदों का निलंबन हो जायेगा. संसद के दोनों ही सदनों राज्य सभा और लोक सभा से व्यापक पैमाने पर  विपक्षी सांसदों का निलंबन किया गया है. पिछले कुछ दिनों में दोनों सदनों को मिलाकर 140 से अधिक विपक्षी सांसदों का निलंबन किया जा चुका है. राज्य सभा सभापति और लोक सभा स्पीकर की ओर से आसन की अवमानना और अशोभनीय आचरण को निलंबन का कारण बताया गया है. सरकार की ओर से भी यही तर्क दिया जा रहा है कि विपक्षी सांसदों को संसदीय मर्यादा का पालन नहीं करने की वज्ह से निलंबित किया गया है.


नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से निलंबन के लिए चाहे जो भी तर्क दिया जाए, लेकिन सच्चाई यही है कि विपक्षी सांसद संसद में सुरक्षा चूक को लेकर प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से जवाब की मांग कर रहे हैं. दोनों सदनों में आसन की ओर से सैद्धांतिक तौर से निलंबन का कारण जो भी बताया जाए, व्यवहार में कारण कुछ और है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है.


क्या संसद का भी घट रहा है महत्व?


एक परंपरा रही है. जब संसद का सत्र चल रहा हो, तो सरकार की ओर कोई भी नीतिगत या महत्पूर्ण मसले पर जानकारी सदन के भीतर ही सबसे पहले दी जाती रही है. सुरक्षा चूक पर विपक्ष की यही मांग है. प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री तक ने सुरक्षा चूक को लेकर संसद से बाहर तो बयान दिए हैं, लेकिन संसद के दोनों सदनों में ऐसा नहीं हुआ. किसी भी सरकार की ओर से इस तरह का रवैया संसदीय व्यवस्था की बेहतरी के नज़रिये से उचित नहीं माना जा सकता है.


जिस बड़े पैमाने पर विपक्षी सांसदों का निलंबन हुआ है, उससे सरकार की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं. विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार महत्वपूर्ण विधेयकों को आनन-फानन में बिना किसी बाधा के पारित करवाना चाहती है. विपक्ष के इन आरोपों में कितनी सच्चाई है, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा. हालाँकि इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इतने बड़े पैमाने पर विपक्षी सांसदों के सदन से बाहर कर देने बाद संसदीय कार्यवाही का महत्व और प्रासंगिकता दोनों कटघरे में ही रहेंगे. साथ ही सरकार की मंशा को लेकर भी सवाल ज़रूर खड़े हो जाते हैं.


जनता के सवाल संसद में कौन पूछेगा?


सवाल यह भी  उठता है कि क्या मोदी सरकार विपक्ष के सवालों का सामना संसद में नहीं करना चाहती है. दरअसल संसद में विपक्ष जो भी सवाल उठाता है, वो एक तरह से जनता के ही सवाल होते हैं. विपक्ष के सवालों से किनारा करने का एक मतलब यह भी है कि सरकार उसी जनता के सवालों से कन्नी काट रही है, जिस जनता को संसदीय व्यवस्था में सर्वोपरि स्थान संवैधानिक तौर से हासिल है. चाहे सरकार हो या विपक्ष, दोनों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि संविधान के तहत संसदीय व्यवस्था में सुप्रीम अथाॉरिटी जनता है, देश के नागरिक हैं. अगर विपक्ष सवाल नहीं पूछेगा, सरकार पर जवाब के लिए दबाव नहीं बनायेगा, तो फिर जनता के सवाल संसद में किस रूप में उठाए जायेंगे, जनता के सवालों के जवाब कहाँ-किससे मिलेंगे..अपने आप में यही बेहद गंभीर सवाल है.


संसद में हमेशा रही है चर्चा की परंपरा


संसदीय व्यवस्था के तहत संसद में अगर सरकार से सवाल नहीं जायेंगे, जनहित से जुड़े विषयों पर गंभीरता से चर्चा नहीं होगी, तो फिर संसद का महत्व क्या रह जायेगा, इस नज़रिये से सोचे जाने की ज़रूरत है.


भारतीय संविधान के तहत दोनों सदनों में सुचारू कार्यवाही लिए जो नियम-क़ा'इदा बना है, उसके तहत ही यह व्यवस्था की गयी है कि संसद में जनहित से जुड़े मुद्दों पर सार्थक बहस हो सके. इसके लिए कई प्रकार के नियम हैं. अविलम्बनीय लोक महत्व के विषयों पर धयान आकर्षित कर चर्चा का प्रावधान है. अविलम्बनीय लोक महत्व के विषय पर तत्काल चर्चा हो, इसके स्थगन प्रस्ताव के भी नियम हैं. अल्पकालिक चर्चा के लिए नियम है. इनके अलावा अविलम्बनीय लोक महत्व के विषयों पर मंत्रियों के बयान के लिए भी नियम बने हुए हैं.


चंद साल पहले तक हर सत्र के दौरान जनहित से जुड़े तीन-चार मुद्दों पर किसी न किसी तरीक़े से चर्चा होती ही थी. कभी बेरोज़गारी पर, कभी महँगाई पर, कभी किसी अन्य मुद्दे पर, लेकिन चर्चा ज़रूर होती थी.  लेकिन पिछले कुछ सत्रों से इस तरह की चर्चा गायब होती जा रही है. यह किसी भी संसदीय व्यवस्था और देश के नागरिकों के लिहाज़ से सही नहीं माना जायेगा.


मणिपुर जैसे मुद्दों को भी नहीं मिली जगह


हम सबने देखा है कि इस साल तीन मई से शुरू हुई हिंसा में मणिपुर के लोगों को क्या-क्या नहीं झेलना पड़ा है. जान-माल के नुक़सान के साथ ही मणिपुर के लोगों को ऐसी त्रासदी का सामना करना पड़ा, जिसके लिए शब्द भी कम पड़ जाएं. इतना होने के बावजूद इस मुद्दे पर अलग से संसद में कोई चर्चा नहीं हुई, यह सबने इस साल देखा है. जब इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद में अलग से चर्चा नहीं होती है, तो फिर इसे कैसी परंपरा मानी जाए, इस पर भी गंभीरता से सरकार, विपक्ष और देश के नागरिकों को चिंतन-मनन करने की ज़रूरत है.


संसदीय व्यवस्था और परंपरा से जुड़ा मुद्दा


सरकार जिस तरह से  विपक्ष की भूमिका को संसद के भीतर सीमित कर रही है, उससे कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं. यह सिर्फ़ विपक्षी दलों के हित से जुड़ा मसला नहीं है, यह पूरे देश के नागरिकों और संसदीय व्यवस्था और परंपरा से जुड़ा मुद्दा है. पिछले कुछ महीनों से पूरा देश देख रहा है कि विपक्ष का कोई सांसद या नेता किसी भी मसले पर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए ज़ोर आज़माइश  करते नज़र आते हैं, बाद में उस सांसद को किसी न किसी आधार पर संसद से बाहर का रास्ता दिखाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. फिर प्रक्रिया इतनी तेज़ हो जाती है कि परिणाम आने के बाद ही वो प्रक्रिया थमती है. इसके विपरीत जब बीजेपी के किसी सांसद पर कोई आरोप लगता है, तो पूरा सिस्टम या तो ख़मोश हो जाता है या सुस्त हो जाता है. भले ही उस सांसद ने संसद के सदन में किसी विपक्षी सांसद को गाली ही क्यों न दी हो, आतंकवादी ही क्यों न कहा हो. इस तरह की प्रवृत्ति पूरा देश पिछले कुछ महीनों से देख रहा है.


विपक्ष विहीन संसदीय व्यवस्था ख़तरनाक


ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी सरकार या बीजेपी विपक्ष विहीन संसदीय व्यवस्था बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहती है. किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह से सत्ता किस पार्टी को मिलेगी, इसका निर्धारण देश के मतदाता करते हैं, उसी तर्ज़ पर संसद में विपक्ष का संख्या बल का निर्धारण भी देश के मतदाता ही करते है. सरकार के पसंद या नापसंद के आधार पर विपक्ष का संख्या बल तय नहीं होता है.


विपक्ष संख्या बल में कम है, इससे संसदीय व्यवस्था और संसद में विपक्ष की भूमिका ख़त्म नहीं हो जाती है. संविधान से लेकर तमाम संसदीय नियमों में इसके लिए अनेकानेक प्रावधान हैं, जिसके ज़रिये यह स्थापित किया गया है कि विपक्ष अगर संख्या में एक भी है, तो उसका भी महत्व है. स्पष्ट बहुमत हो या फिर भारी बहुमत, किसी भी सरकार को यह तथ्य दरकिनार कहीं करना चाहिए. अगर कोई सरकार इस मंशा के साथ काम करती है, तो वो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत देश के नागरिकों का महत्व ही कम कर रही है. यह नहीं भूलना चाहिए कि संसदीय व्यवस्था में सरकार भले ही किसी पार्टी की होती है, लेकिन सरकार की सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही देश के हर नागरिक के प्रति होती है, भले ही उस नागरिक ने सत्ताधारी पार्टी को मत दिया हो या नहीं.


निलंबन की परंपरा से नागरिकों का नुक़सान


इतने बड़े पैमाने पर संसद के दोनों सदनों से विपक्षी सांसदों का निलंबन भारत में आज तक नहीं हुआ है. यह भी तथ्य है कि फ़िलहाल केंद्रीय स्तर पर विपक्ष संख्या बल के आधार पर ख़ुद ही कमज़ोर स्थिति में है. वैसे में इतने बड़े पैमाने पर विपक्षी सांसदों के निलंबन से भारतीय लोकतंत्र किसी भी नज़रिये से मज़बूत नहीं होगा. इससे स्वस्थ परंपरा की जगह निलंबन की परंपरा बनने का ही रास्ता खुलेगा.


कभी बीजेपी भी विपक्ष में थी, हंगामा भी था


दलगत प्रतिद्वंदिता चुनावी प्रतिद्वंद्विता तक ही सीमित होनी चाहिए. कोई भी ऐसी परंपरा, जिससे संख्या होने के बावजूद विपक्ष का अस्तित्व ही संसद में मिट जाए, यह प्रवृत्ति बेहद ही ख़तरनाक है. संसद में सरकार से सवाल, सवालों की अनदेखी पर नारेबाजी और कार्यवाही में बाधा कोई नयी बात नहीं है. मई 2014 से पहले बीजेपी भी जब विपक्ष में थी, तो संसद में सरकार को कटघरे में खड़े करने के लिए संसदीय उपकरण के तौर पर  इन सब चीज़ों का इस्तेमाल करती थी, इससे बीजेपी का कोई नेता इंकार नहीं कर सकता है.


जब 2010 में टूजी घोटाला सामने आया था, तो संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जेपीसी बनाए जाने की मांग पर अडिग बीजेपी के हंगामे से पूरे सत्र के दौरान दोनों सदनों की कार्यवाही तक़रीबन पूरी तरह से बाधित हुई थी. 2010 के शीतकालीन सत्र में राज्य सभा की उत्पादकता दो फ़ीसदी और लोक सभा की उत्पादकता महज़ 6 फ़ीसदी रही थी.


एक-तरफ़ा और अड़ियल रवैया सही नहीं


इस तरह का उदाहरण देने का मंतव्य यही है कि संसदीय परंपरा में विपक्ष अपनी मांग को मनवाने के लिए नारेबाजी का सहारा लेते रहा है. अगर सरकार विपक्ष के सवालों का जवाब नहीं दे रही है, तो अपनी बात मनवाने के लिए विपक्ष का रवैया ऐसा पहले भी ही रहा है. यह कोई नयी परंपरा नहीं है. बीजेपी भी बतौर विपक्ष इस परंपरा पर ख़ूब चली है. इसके साथ ही यह पहलू भी उतना ही महत्व रखता है कि संसद में सुचारू रूप से काम-काज हो, यह ज़िम्मेदारी सरकार के साथ ही विपक्ष की भी है. दोनों के तालमेल से ही ऐसा संभव है.


एक-तरफ़ा और अड़ियल या कहें तानाशाही रवैया से तात्कालिक तौर से तो किसी पार्टी को लाभ मिलता दिख सकता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि दीर्घकालिक नज़रिये से यह संसदीय व्यवस्था के साथ ही देश के नागरिकों के लिए ही हर स्थिति में नुक़सानदायक है.


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