आज बुधवार से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है, जो कई मायने में बेहद अहम साबित होने वाला है. इसलिये 7 दिसंबर को ही देश की राजधानी के नगर निगम चुनाव-नतीजों का ऐलान हो रहा है और एग्जिट पोल के अनुमान अगर थोड़े से भी सही हो गए, तो ये बीजेपी के लिये एक बड़ा झटका होगा क्योंकि दिल्ली का सियासी संदेश पूरे देश में जाता है. संसद सत्र शुरू होने से पहले हुई सर्वदलीय बैठक में अन्य मुद्दों के अलावा विपक्ष ने 12 साल पुराने ऐसे जिन्न को बाहर निकाल दिया है, जो केंद्र सरकार के लिए थोड़ा धर्म संकट तो पैदा कर ही सकता है. चूंकि मोदी सरकार महिलाओं की सबसे बड़ी हिमायती है, लिहाजा विपक्ष ने उसे इसी मुद्दे पर घेरने की अपनी प्रमुख रणनीति बनाई है. हालांकि विपक्ष के तरकश में महंगाई, बेरोजगारी और जांच एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल करने जैसे अनेकों ऐसे मसले है, जिससे वो सरकार पर निशाने साधने में कोई कसर बाकी नहीं रखने वाला है.


दरअसल, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने की बरसों पुरानी मांग को पूरा करते हुए संसद के ऊपरी सदन यानी राज्य सभा ने 9 मार्च 2010 को इस संबंध में एक विधेयक पारित किया था. लेकिन ये इकलौता ऐसा विधेयक है, जो कुछ विपक्षी दलों के जबरदस्त विरोध के चलते लोकसभा से आज तक पारित नहीं हो पाया. इसका विरोध करने की अगुवाई करने वाले भी तीन यादव नेता ही रहे- समाजवादी पार्टी के तत्कालीन मुखिया दिवंगत मुलायम सिंह यादव, आरजेडी के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और उस जमाने में जेडीयू की कमान संभालने वाले शरद यादव. नतीजा ये हुआ कि इस बिल को जब लोकसभा में पेश किया गया, तो उस पर सदन में मतदान ही नहीं हुआ, लिहाज़ा वो ठंडे बस्ते में चला गया. उसके बाद 2014 और 2019 में लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद उस बिल को पेश ही नहीं किया गया, तो वह संसदीय नियमों के मुताबिक लैप्स हो गया है. अब अगर विपक्ष अड़ जाता है, तो सरकार को उसे नये सिरे से पहले लोकसभा में पेश करना होगा और वहां से पारित होने के बाद ऊपरी सदन से भी पारित करवाना होगा, तभी ये कानून की शक्ल ले पायेगा.


इसीलिये तमाम विपक्षी दल इस बिल को तुरंत संसद में पेश करने की मांग करते हुए सरकार को घेरने की तैयारी में हैं. सत्र के एजेंडे पर विचार करने के लिए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने 6 दिसंबर को लोकसभा कार्यमंत्रणा समिति ( Business Advisory Committee) की जो बैठक बुलाई थी, उसमें भी ये मसला छाया रहा. बताते हैं कि बैठक में मौजूद तकरीबन सभी विपक्षी सदस्यों ने अन्य मुद्दों के अलावा संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण देने से जुड़े इस बिल को तुरंत लाने की मांग कर डाली.  


इस मुद्दे को उठाते हुए ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस के नेता सुदीप बंदोपाध्याय ने कहा कि पूरा विपक्ष इस बिल का समर्थन करने को तैयार है, इसलिए बिल को पारित करवाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. सूत्रों के मुताबिक़ बैठक में मौजूद कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी, डीएमके के टीआर बालू, अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल और जेडीयू के ललन सिंह ने भी इसका समर्थन किया. ललन सिंह ने इस मुद्दे पर सरकार से तुरंत सर्वदलीय बैठक भी बुलाने की मांग की.


लेकिन ये ऐसा नाजुक मसला है, जिसे मोदी सरकार ने भी अपने पहले कार्यकाल में ठंडे बस्ते में ही डाल रखा था क्योंकि तब विपक्ष भी इस मसले पर अमूमन खामोश ही रहा. लेकिन अब विपक्ष के हमालावर तेवरों को देखते हुए वह फूंक-फूंक कर ही कदम आगे बढ़ाना चाहती है. शायद इसीलिये सरकार की ओर से जवाब देते हुए संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने जेडीयू के नेता ललन सिंह से पूछा कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जनता दल की क्या राय है? इस पर ललन सिंह और बाकी विपक्षी दलों के नेताओं ने कहा कि सरकार को पहले बिल लेकर आना चाहिए. उन्होंने कहा कि अगर सरकार बिल लेकर आती है, तो उसे पारित करवाने में कोई दिक्कत नहीं होगी.  


जाहिर है कि विपक्ष ने भी सोची-समझी रणनीति के तहत ही सरकार को उलझाने का ये सियासी दांव खेला है. चूंकि प्रधानमंत्री मोदी ही नारी सशक्तिकरण और उन्हें समान अधिकार दिये जाने के सबसे बड़े हिमायती हैं, इसलिये उनके कार्यकाल में अगर ये बिल संसद में पेश नहीं होता है, तो साल 2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष इसे बड़ा मुद्दा बनाने से पीछे नहीं हटेगा. ऐसा तो हो नहीं सकता कि सरकार को ये अहसास ही न हो कि विपक्ष उसे इस मसले पर किस मकसद से घेरने को तैयारी में है. इसलिये, सरकार अगर मौजूदा सत्र में इसे पेश नहीं करने के मूड में है, तो  जाहिर है कि उसने कोई ऐसा जवाब अवश्य तैयार कर रखा होगा, जिसे सुनकर देश की महिलाओं को पूरा यकीन  हो जाये कि देर से ही सही लेकिन संसद और विधानसभाओं में उन्हें अपना हक मिलकर ही रहेगा.


लेकिन 12 साल के इंतज़ार के बाद भी अगर देश के कर्णधार 33 फीसदी महिलाओं को अपनी संसद और विधानसभाओं में देखने को तैयार नहीं हैं, तो फिर ये आधुनिक व प्रगतिशील भारत का वो कालीन है, जिस पर टाट का पैबंद लगा हुआ है.


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