(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
अवार्ड लौटाना विरोध का तरीका, वापसी नहीं करने को लेकर शपथ पत्र मौलिक अधिकार का होगा हनन, सरकार को नहीं उठाना चाहिए कदम
एक संसदीय स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि साहित्य और सांस्कृतिक संस्थानों की ओर से दिए जाने वाले पुरस्कारों से पहले शॉर्टलिस्ट हुए नामों से एक शपथ पत्र लिया जाना चाहिए. उस शपथ पत्र में ये लिखा होना चाहिए कि वो शख्स बाद में राजनीतिक कारणों से इस अवार्ड को वापस नहीं करेगा.
ये जो संसदीय समिति है, परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मामलों से जुड़ी हुई है. ये समिति राज्यसभा की अध्यक्षता के तहत आती है. इस कमेटी का दायरा काफी विस्तृत है. इस कमेटी ने एक दशक के बाद दोबारा अकादमी से जुड़े पहलू की समीक्षा की है. ख़ासकर साहित्य अकादमी और ललित कला अकादमी से जुड़े पहलू की. ये जरूरी बात है कि ये अकादमी ऑटोनोमस हैं. इन पर सरकार का सीधा कोई नियंत्रण नहीं रहता है. ये बात समझने की जरूरत है.
इससे पहले 2012 में सीताराम येचुरी ने इस पर एक पड़ताल की थी. जब मौलाना आजाद शिक्षा मंत्री से तो संस्कृति मामलों के लिए समिति बनाई गई थी. बाद में पी एन हक्सर कमेटी बनी थी. होमी जहांगीर भाभा की अध्यक्षता में भी एक कमेटी बनी थी. इस कमेटी ने ये किया था कि जो साहित्य या ललित कला अकादमी है..इनको ऑटोनोमस करते हुए साहित्य और संगीत से जुड़े हुए लोग हैं, उनको ज्यादा से ज्यादा प्रोत्साहित किया जाए. उनकी प्रतिभाओं को और मुखरित किया जाए.
अभी संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही चल नहीं पा रही है. इस वजह से जिस समिति ने सिफारिश की है, उस पर ज्यादा ध्यान लोगों का गया नहीं है. जो समिति की रिपोर्ट आई है, उसमें ख़ास तौर से पुरस्कार वापसी पर ये बात कही गई है. समिति के सदस्यों के बीच इस मसले पर काफी चर्चा भी हुई है. इसमें अकादमी पुरस्कारों की बात है, सरकार की ओर से दिए जाने वाले दूसरे पुरस्कारों की बात नहीं की गई है. समिति का कहना है कि पूर्व में विरोध स्वरूप अकादमी अवार्ड के वापसी के जो तमाम उदाहरण मिले हैं, उसको देखते हुए कोई ऐसा प्रावधान किया जाए, जिससे पुरस्कार विजेता बाद में अवार्ड वापस न करें.
समिति ने जो सिफारिश की है, उसी समिति में एक सदस्य की राय अलग थी. उनका कहना था कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है. संविधान ने हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार दिया है. इसके साथ ही किसी भी रूप में हिंसा अपनाए बिना विरोध करने की आजादी दी हुई है. चूंकि पुरस्कार का लौटाना विरोध का ही एक रूप है, और विरोध दिखाने के लिए वे ऐसा कर सकते हैं. ऐसा करने के बाद भी वे साहित्य अकादमी से जुड़े रह सकते हैं. समिति में दूसरे सदस्य ने भी इसका समर्थन किया है.
समिति का मानना है कि अकादमी अवार्ड किसी भी व्यक्ति के लिए सर्वोच्च सम्मान है. समिति का कहना है कि जितने भी अकादमी हैं, उनमें राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए. इसलिए समिति चाहती है कि पुरस्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति से ये जरूर सहमति लिया जाना चाहिए कि वे भविष्य में राजनीतिक कारणों से इसे नहीं लौटाएंगे.
इस बात को भी समझना होगा कि राजनीतिक कारणों से भी पुरस्कार दिए जा रहे हैं. ऐसे लोगों को भी पुरस्कार दिए गए हैं, जिनको लेकर विवाद भी हुए हैं. लेखक होने के नाते पर निजी तौर पर मेरा ये मानना है कि पुरस्कार के लिए इस तरह की कोई शर्त नहीं लगाई जानी चाहिए. उदाहरण से समझिए कि अगर किसी लेखक को साहित्य अकादमी अपमानित करने का तरीका अपनाए तो उसके पास क्या रास्ता होगा विरोध जताने का सिवाय इसके कि वो अकादमी पर धरना दे या विरोध स्वरूप अपने पुरस्कार को वापस कर दे.
जहां तक सरकार के डर की बात है तो मैं ये बतला दूं कि संसदीय समितियों की सिफारिशें सरकार पर लागू करने के लिए बाध्यकारी नहीं होती हैं. सिफारिशों को स्वीकार करना या न करना सरकार के हाथ में होता है. बाइंडिंग नहीं है, लेकिन आम तौर पर देखा गया है कि 1993 के बाद विभाग संबंधी स्थायी समितियों का एक नया दौर आया है. उसके बाद से सरकार ऐसी समितियों की महत्वपूर्ण सिफारिशों को स्वीकार करती है. साहित्य अकादमी वगैरह ऑटोनोमस बॉडी है, उसमें निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं. लेकिन सबको पता है कि अब साहित्य अकादमी पर किन लोगों का कब्जा हो गया है.
हो सकता है कि सरकार समिति की सिफारिशों के आधार पर एक नियम बनाकर इसे शामिल कर ले. ऐसा हुआ तो लोग इसका भी विरोध करेंगे. आप अगर इस तरह की शर्त लगाएंगे, तो हो सकता है कि बहुत सारे लोग पहले ही पुरस्कार खारिज कर दें. अगर सरकार की मंशा इस तरह का शपथ पत्र लेकर भविष्य में विरोध करने के एक तरीके की संभावना को ही खत्म करने की है, तो ये सही नहीं है.
एक बात बताना चाहूंगा कि अभी इस बीच में कई अन्य महत्वपूर्ण पुरस्कारों को खत्म कर दिया गया है. इसमें कृषि से जुड़ा चौधरी चरण सिंह पुरस्कार है. ये कृषि पत्रकारिता पर दिया जाता रहा है. किसान आंदोलन को कवर करने वाले बहुत सारे लोग इसके दायरे में आ सकते हैं, लेकिन इसे खत्म कर दिया गया है.
पुरस्कार आप किस हाथ से लेंगे, किस हाथ से नहीं लेंगे...पुरस्कार लेते वक्त कपड़ा कौन सा पहनेंगे और पुरस्कार लेंगे तो उसको लेकर हलफनामा देंगे...इस तरह की बात आज तक कभी आई नहीं है. मुझे लग रहा है कि साहित्यकारों की जमात इसका विरोध करेगी. आप देखिए कि किसी पार्टी पॉलिटिक्स के तहत तो कभी विरोध हुआ नहीं है. कुछ मूलभूत मुद्दों पर ही साहित्यकारों की ओर से अवार्ड लौटाए गए हैं.
ये बात सिर्फ साहित्यकारों तक ही सीमित नहीं है. आपको याद होगा कि 'वन रैंक वन पेंशन' को लेकर तमाम सैनिकों ने जंतर-मंतर पर अपने मेडल वापस किए थे. अवार्ड बड़ा सम्मान होता है, इस नाते सरकार पर एक दबाव बनाने के लिए विभिन्न तबके से आने वाले लोग विरोध दर्शाने के लिए अवार्ड वापसी करते हैं. आपको याद होगा कि लोगों ने पद्मश्री जैसे पुरस्कार भी लौटाएं हैं. कृषि कानूनों के खिलाफ प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण तक लौटा दिया था. आप पुरस्कार मेरिट पर देते हो, लेकिन वो पुरस्कार स्वीकार करेगा या नहीं, ये उस व्यक्ति के ऊपर होगा. अगर स्वीकार करना या न करना उसके हाथ में है, तो लौटाना भी उसके ही हाथ में है.
पुरस्कार देने से पहले इस तरह की शर्त लगाना जीवन की गरिमा और सम्मान से जीने के मौलिक अधिकारों का भी हनन है. जैसा कि समिति के ही एक सदस्य ने कहा कि हम सब एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं. संविधान सिर्फ़ लेखक और पत्रकार को ही नहीं, बल्कि हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी देता है. भले ही उसके साथ कुछ सीमा है.
उसी तरह से संविधान ही तो विरोध करने की आजादी भी देता है. उसके विरोध के अपने तरीके हो सकते हैं. मजदूर के विरोध करने का अलग तरीका होता है. पढ़ा-लिखा तबका, बाबू तबका पेन डाउन के जरिए विरोध दर्शाता है. सांसद, संसद परिसर में गांधी जी की प्रतिमा के पास आकर विरोध करते हैं. विरोध और प्रदर्शन के अलग-अलग तरीके हो सकते हैं. अवार्ड लौटाना भी विरोध का ही एक रूप है. समिति में ही एक मेंबर ने कहा है और दूसरे ने सपोर्ट किया है कि आप विरोध दर्ज करने के लिए पुरस्कार लौटा भी सकते हैं और ऐसा करने के बाद भी वे साहित्य अकादमी से जड़ सकते हैं या जुड़े रह सकते हैं. विरोध करने के मौलिक अधिकार पर ये एक तरह से चोट है.
मुझे लगता है कि समिति की ये सिफारिश विवाद में आएगी क्योंकि बहुत सारे लेखकों और कलाकारों का इस सिफारिश की ओर अभी बहुत ज्यादा ध्यान गया नहीं है. जैसे-जैसे इस पर चर्चा आगे बढ़ेगी, धीरे-धीरे इसका विरोध होगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]