UNSC की स्थायी सदस्यता भारत के लिए नहीं दूर की कौड़ी, जानिए क्या है प्रक्रिया और कैसे हासिल होगी मेंबरशिप
संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता का मामला बहुत लंबे समय से चला आ रहा है. संयुक्त राष्ट्र संघ में आखिरी जो सुधार हुए थे, वह 1963 में हुए. वह भी अस्थायी सदस्यता को लेकर किया गया था. पहले पांच स्थायी सदस्य (वीटो पावर के साथ) और छह अस्थायी सदस्य (बिना वीटो पावर के) होते थे, यानी कुल 11 सदस्य. इनकी संख्या को ही बढ़ाकर 15 किया गया. उसके बाद से ही लगातार भारत, जापान और ब्राजील जैसे देश इसमें रिफॉर्म यानी सुधार की बात कर रहे हैं, जिसके तहत भारत की स्थायी सदस्यता की भी बात होती है. जहां तक इसकी प्रक्रिया की बात है, तो संयुक्त राष्ट्र की जेनरल असेंबली ही यह कॉल ले सकती है, कि इसमें सुधार किया जाए और उसके दो-तिहाई बहुमत के साथ ही यह संभव हो सकता है. साथ ही, वीटो पावर वाले जितने भी सदस्य हैं, यानी अमेरिकी, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के साथ चीन, इन पांचों देशों को भी राजी होना पड़ेगा. आज की तारीख में चीन को छोड़कर बाकी चारों देश इस बात पर राजी हैं. चीन ही भारत का सबसे बड़ा और मजबूत प्रतिद्वंद्वी है, वह नहीं चाहता कि भारत वीटो पावर के साथ आए.
भारत की राह में रोड़ा है चीन
हमारे देश को संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में दो-तिहाई बहुमत लाने में दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि पिछली बार जब भारत संयुक्त राष्ट्र का अस्थायी सदस्य बना था, तो उसे सबसे अधिक वोट मिला था. दिक्कत केवल चीन से है, क्योंकि वही भारत की राह में रोड़ा बनता है. जो 10 अस्थायी सदस्य होते हैं, वह हरेक साल बदलते हैं और पिछले साल भारत को यूएनएससी का प्रेसिडेंट होने का भी मौका मिला है. पिछली बार भी 150 से अधिक देशों ने भारत के पक्ष में वोटिंग दी थी. भारत को आम सभा में दिक्कत नहीं है. अभी भी भारत अफ्रीकन यूनियन को जी20 में लाया है, तो अफ्रीका हो, एशिया हो, यूरोप हो, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भारत को दुनिया में अधिकांश देशों का समर्थन मिला हुआ है. यही प्रधानमंत्री मोदी के 10 वर्षों की सफलता है. वैश्विक राजनीति में भारत का कद बढ़ा है और भारत भी बड़े संतुलन के साथ काम कर रहा है.
फिलहाला, रूस-यूक्रेन युद्ध हो, या रूस-अमेरिका के मतभेद हों, चीन-अमेरिका के बीच का तनाव हो, भारत ने अपना संतुलन बनाए रखा है. भारत एक ऐसे ‘मित्र देश’ के तौर पर उभरा है, जो बिना किसी गुट का सदस्य बने सबसे बात कर सकता है, सबको एक प्लेटफॉर्म पर ला सकता है. हमने अभी खत्म हुए जी20 सम्मेलन में भी यह देखा है, जहां तमाम विरोधी देशों और गुटों के बाद भी भारत एक सर्वसहमत घोषणापत्र ला सका है.
भारत की वैश्विक मंच पर धमक
जी20 को जी21 बनाना हो (उसमें 55 देशों के अफ्रीकन यूनियन को सदस्य बनाना) या दुनिया के अलग-अलग ब्लॉक्स में अपनी जगह और बात रखना, भारत यह काम बखूबी कर रहा है. भारत के अफ्रीका के साथ एक ऐतिहासिक संबंध भी हैं. हमारे साथ अफ्रीका के भी देश उपनिवेशवाद से पीड़ित रहे हैं. गांधी को लेकर हमारे और अफ्रीका के बीच मधुरता है और इंडियन डायस्पोरा भी कई अफ्रीकी देशों में बहुत अच्छा कर रहा है. चीन भी अफ्रीका को अपनी ओर खींचना चाहता है, लेकिन वह कर्ज के जाल में फंसाता है, देशों की संप्रभुता पर हमला करता है, लेकिन भारत ग्लोबल साउथ की आवाज है. अगर भारत वीटो पावर के साथ संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य बनता है तो वह एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका इत्यादि सभी की आवाज बनेगा, सारी दुनिया के विकासशील देशों की बात रखेगा. पिछले 10 वर्षों में जो भी डेवलपमेंट हुआ है, उससे भारत की साख बढ़ी है, दूसरे देशों का भरोसा बढ़ा है और हमारी स्थिर राजनीतिक हालत और अर्थव्यवस्था की वजह से दूसरे देश भी भारत का समर्थन कर रहे हैं.
तुर्किए का अचानक समर्थन अकारण नहीं
जहां तक तुर्किए के हालिया समर्थन की बात है, तो हमें याद रखना चाहिए कि वह संयुक्त राष्ट्र से लेकर मीडिया के विभिन्न मंचों तक कश्मीर का राग आलापता है, अभी स्थायी सदस्यता के लिए भारत का समर्थन करने के पीछे उसकी चाहत नहीं मजबूरी है. पिछले दस वर्षों में हमने देखा है कि भारत के संबंध अरब देशों से बढ़े हैं, सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की एक से अधिक बार मोदी यात्रा भी कर चुके हैं, हाल ही में भारत-अरब-यूरोप कॉरीडोर की भी घोषणा हुई है, इन सबसे तुर्किए को ये डर है कि वह कहीं वैश्विक रंगमंच पर अलग-थलग न पड़ जाए. कई देशों ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मोदी को नवाजा है. तुर्किए अपने आइसोलेशन को बचाने के लिए ही भारत को बेशर्त अपना समर्थन दे रहा है, क्योंकि दक्षिण एशिया, अरब और यूरोप के बीच एक नए तरह के अलायंस से वह अछूता नहीं रहना चाहता है. पाकिस्तान तो पहले से ही अलग-थलग पड़ा है, लेकिन तुर्किए अपने आप को बचाने के लिए भारत को यह आश्वासन देना चाहता है कि वह भारत का विरोधी नहीं है, भारत के साथ है. इसीलिए उसने अचानक यह एकतरफा समर्थन दिया है.
भारत बहुत जल्द अपना सपना पूरा कर सकता है. पिछले साल रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से अमेरिका और पश्चिमी देश खासे परेशान हैं. उनके किसी भी प्रस्ताव को चीन और रूस वीटो कर देते हैं. लगभग डेढ़ साल से यह डेडलॉक बना हुआ है. चीन और रूस की हरकतों से परेशान पश्चिमी देश तो चाहते हैं कि ब्राजील, भारत और जापान जैसे देशों को संयुक्त राष्ट्र में लाया जाए. उनका बस चले तो कल को भारत को ले आएं, चार देशों का पूरा समर्थन भी इनको हासिल है, लेकिन चीन उस राह में रोड़ा है. पश्चिमी देश जानते हैं कि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है और दुनिया के लिए सिरदर्द नहीं है. इसलिए, इतना तो तय है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता जल्द मिलेगी, लेकिन कब मिलेगी, देखना बस यही है.
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