राजस्थान में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में सबकुछ दुरुस्त करने की कोशिश की गई. कांग्रेस हाईकमान के निर्देश पर गहलोत-पायलट के साथ करीब चार घंटे तक बैठक चली. इसके बाद सोमवार की शाम को मीडिया के सामने विवाद के सुलझने का दावा कर ये बताया गया कि एकजुटता के साथ चुनाव लड़ा जाएगा और जीता जाएगा. अशोक गहलोत और सचिन पायलट की उपस्थिति में केसी वेणुगोपाल जी ने जो ऐलान किया है कि दोनों खेमों के बीच शांति हो गयी है, तो ऐसा लगता नहीं कि बहुत लंबे समय तक शांति रहेगी. कारण ये कि दोनों के बीच मतभेद और मनभेद इतना अधिक बढ़ चुके हैं और दोनों जिस तरह एक-दूसरे के खिलाफ बयान दे चुके हैं, मोर्चेबंदी कर चुके हैं, लगता नहीं कि यह शांति टिकेगी. चुनाव से ठीक पहले टिकट वितरण की प्रक्रिया के दौरान ये फिर उभर सकता है और स्थायी शांति के आसार नहीं दिख रहे हैं.
अब, राजनीति है तो आगे कुछ भी हो सकता है, ये तो सचिन पायलट को तय करना है कि वह क्या कदम उठाएंगे, लेकिन हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य के बीच किस तरह की स्थिति बनी थी. ज्योतिरादित्य तो बाहर चले गए और नतीजा ये हुआ कि कमलनाथ की सरकार गिर गयी. सचिन पायलट भी कल अलग राह देख लें, तो कोई अचरज नहीं.
जो आश्वासन पायलट को तब दिए गए थे, जब वह विधायकों के साथ गेस्ट हाउस चले गए थे, वे अभी तक पूरे नहीं हुए, पूरे इसलिए नहीं हुए कि अशोक गहलोत अड़ गए थे. अभी भी वेणुगोपाल की शांति-सुलह के बीच गहलोत ने सचिन पायलट पर यह कहते हुए कटाक्ष भी किया है कि उन्होंने ऐसी कोई परंपरा नहीं देखी कि किसी को संतुष्ट करने के लिए कोई पद ऑफर कर दिया जाए. यानी, सचिन पायलट को कोई पद और महत्व नहीं मिलने जा रहा है, यह समझौते में अलिखित तौर पर लिखा है, तो फिलहाल वो शांत दिख रहे हैं, मुखमुद्रा ठीक है, लेकिन लंब समय तक चलेगा नहीं.
समझौते का जो फॉर्मूला है, उससे तो केसी वेणुगोपाल, सचिन पायलट, अशोक गहलोत या कांग्रेस हाईकमान ही बताएगा, लेकिन अनुमान है कि सचिन पायलट को कहा गया कि वह बागी तेवर छोड़कर साथ में चुनाव लड़ें. चुनाव के दौरान या चुनाव के बाद उनको कुछ आश्वासन हो सकता है, दिया गया हो कि अगर चुनाव में कांग्रेस जीती तो आपकी समस्याओं को हटाया जाएगा. हालांकि, कांग्रेस की वापसी के आसार कम हैं. हालांकि, यह बहुत अजीब सी बात है कि पार्टी के दो नेताओं के बीच कांग्रेस हाईकमान को पड़कर सुलह करानी पड़ रही हो. चर्चाएं तो कई तरह की हैं. सचिन पायलट अगर अलग पार्टी बनाने की सोच रखते तो अब तक वह कर चुके होते. अब अगर वो डिले करते हैं, तो नयी पार्टी का गठन तो आसान है, लेकिन उसका पूरा संगठन खड़ा करना और वह भी राजस्थान जैसे बड़े राज्य में, मुश्किल है. समय कम है तो एक नयी पार्टी के नेता के तौर पर खुद को स्थापत करना पायलट के लिए मुश्किल है.
फिलहाल तो तकरार थम गयी है. वेणुगोपाल बीच में थे और गहलोत-पायलट दोनों तरफ थे. तो, ऐसा लगता है कि कुछ तो संधि हुई ही है. हालांकि, ये बात चुनाव के दौरान या चुनाव तक, टिकी रहेगी इसमें संदेह है. जब टिकट वितरण का मामला आएगा, चुनाव समिति का मुखिया बनाने की बात आएगी, तो ये संदेह फिर सतह पर आएंगे. गहलोत चूंकि सचिन पायलट को तनिक भी जमीन नहीं दे रहे, गहलोत हथियार डालनेवाले नहीं हैं. वह एक बार अपने बागी तेवर से कहें तो गांधी परिवार को नीचा दिखा चुके हैं. जब उनको एक बार कांग्रेस अध्यक्ष बनना था और उनकी जगह संभवतः सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनना था, लेकिन जब पर्यवेक्षक गए तो गहलोत समर्थकों ने हंगामा कर दिया और गहलोत के विधायकों ने जो तेवर दिखाए, वो सीधे गांधी परिवार को चुनौती थी. उसके बाद माना जा रहा था कि कांग्रेस आलाकमान उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करेगा.
उनके खिलाफ न करे, तो उनके समर्थकों के खिलाफ करेगा, लेकिन वैसा हुआ नहीं. कांग्रेस आलाकमान की इतनी भी हिम्मत नहीं हुई, इससे गहलोत की मजबूत स्थिति को समझा जा सकता है. यह उनकी मजबूती को भी बयान करता है और पायलट के फ्रस्ट्रेशन को भी. इसी वजह से वो धरने पर बैठे, यात्रा निकाली और विद्रोही तेवर अपनाए.
हालांकि, कांग्रेस आलाकमान ने सचिन पायलट पर भी कार्रवाई नहीं की. मतलब कि पायलट और गहलोत दोनों ही आंखें दिखा रहे हैं और आलाकमान कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं. कुछ तो बात हुई है, जिसके आधार पर वेणुगोपाल ने घोषणा की, लेकिन यह स्थायी संधि नहीं है. कभी भी मतभेद की ज्वाला भड़क सकती है, कभी भी शांति भंग हो सकती है.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]