कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की. 224 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस ने 135 सीटें जीती जबकि बीजेपी महज 66 सीटों पर सिमट कर रह गई. तो वहीं जेडीएस 19 सीटें जीतने में कामयाब रहीं. अब अगली चुनौती दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव में जीत और लोकसभा चुनाव में एनडीए सरकार को हटाने की है. दरअसल, कर्नाटक चुनाव के दौरान बीजेपी की तरफ से काफी भ्रम फैलाया जा रहा था कि अब मोदी और अमित शाह की लीडरशिप को हराया नहीं जा सकता है. लोगों में ये भ्रम फैल चुका था.
जब हिमाचल प्रदेश का विधानसभा चुनाव हम जीते तो क्योंकि वे आबादी के हिसाब से इतना बड़ा राज्य नहीं है, और हमारी जीत काफी नजदीकी वाली थी. इस पर बीजेपी ने कहा कि ये तो बस बदलाव हो गया, अब कर्नाटक में देखेंगे. लेकिन कर्नाटक नतीजे के बाद ये साफ हो गया है कि मोदी और अमित शाह की लीडरशिप को भी हराया जा सकता है.
कार्यकर्ताओं में बढ़ा जोश
कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद पार्टी के नेता और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा है. अभी तक उनका हौसला काफी टूटा हुआ था. जब हौसला बढ़ता है तो उससे राष्ट्रीय स्तर पर 2 से 4 प्रतिशत वोट का जरूर अंतर पड़ता है. इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि कर्नाटक चुनाव की जीत जरूरी थी. अब जहां तक सवाल इसके कारण का है तो निश्चित ही ये प्रियंका गांधी के संकल्प की जीत है. राहुल गांधी के त्याग की जीत है और मल्लिकार्जुन खरगे के अनुभव की जीत है. सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की मेहनत की जीत है. सोनिया गांधी के आशीर्वाद की जीत है. कर्नाटक के करोड़ों लोगों के सहयोग और उनके आशीर्वाद की जीत है. इस जीत का कोई एक कारण नहीं कह सकते हैं. जब कोई जीत होती है तो उसके बहुत से फैक्टर होते हैं और हार होती है तो उसकी भी कई वजहें होती हैं.
लेकिन जहां तक विपक्षी एकजुटता की बात है तो ये बहुत ही संवेदनशील सवाल है कि पीएम मोदी को हराने के लिए ये फैक्टर कितना काम करेगा. मैं ऐसा मानता हूं कि बीजेपी को हराने या मोदी जी को हटाने के लिए जो राजनीतिक पार्टी और क्षेत्रीय दल एक होना चाह रहे हैं, एक होने की कोशिश कर रहे हैं, ये एक अच्छी पहल है. ताकि बीजेपी के विरोधी वोट का बंटवारा होने से रोका जा सके.
विपक्षी वोट एक साथ लाना नहीं आसान
लेकिन, मेरा ऐसा मानना है कि नेताओं को आपस में मिलने से जनता मिल जाएगी, ये अभी पक्का नहीं है. क्योंकि कभी-कभी क्या होता है कि नेता मिल जाते हैं, एक दूसरे का विरोध करने वाले लीडर एक साथ मंच पर आ जाते हैं, लेकिन उनके समर्थक, उनके फॉलोअर्स नहीं आ पाते हैं. उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश में हैं. एक साथ लड़ने के बावजूद एक दूसरे का वोट ट्रांसफर नहीं हो पाया. ऐसे में यदि सारे विपक्षी नेता एक साथ आ जाए तो हम ये मान लें कि विरोधी सारा वोट एक जगह आ जाएगा, मैं समझता हूं कि ये कहना उचित नहीं होगा.
दूसरा फैक्टर ये है कि कांग्रेस पार्टी एक राष्ट्रीय पार्टी होने के साथ-साथ मुख्य विपक्षी दल है. नरेन्द्र मोदी को हराने के लिए, बीजेपी को हटाने के लिए जो पहल कांग्रेस के नेताओं को करनी चाहिए, वो पहल क्षेत्रीय पार्टियों के नेता कर रहे हैं. ये ठीक नहीं है. चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर जो पार्टी बीजेपी को टक्कर दे सकती है वो कांग्रेस है.
कांग्रेस को जो करना चाहिए वो क्षेत्रीय दल कर रहे
लेकिन मैसेज देश में ऐसा जा रहा है कि पीएम मोदी को हटाने के लिए भी जिम्मेदारी कांग्रेस ने क्षेत्रीय पार्टियों को दे दी है. जो काम नीतीश कुमार या अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं, वो कांग्रेस को करना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो बीजेपी के खिलाफ लड़ सकती है. लेकिन विपक्षी लोगों को एक करने की मुहिम क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने चला रखा है. इससे देश में ये मैसेज जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी देश में क्षेत्रीय पार्टियों के पीछे खड़ी हो जाएगी.
अगर ये मैसेज चला गया कि बीजेपी को हटाने के लिए कांग्रेस बैकफुट पर आ रही है, क्षेत्रीय पार्टियों के पीछे खड़ी हो रही है तो इससे सीधा-सीधा बीजेपी को फायदा होगा. क्योंकि देश की जनता बीजेपी के सामने एक राष्ट्रीय विकल्प तलाश रही है. यदि उन्हें राष्ट्रीय विकल्प नहीं मिला तो मुझे नहीं लगता है कि वे मोदी के खिलाफ वोट करेंगे.
नरेन्द्र मोदी देश का बड़ा पॉपुलर चेहरा
2024 लोकसभा चुनाव के दौरान मुद्दों पर नहीं बल्कि चेहरों पर चुनाव लड़ा जाएगा. नरेन्द्र मोदी देश का एक बहुत पॉपुलर और बड़ा चेहरा हैं. मोदी का चेहरा बड़ा चेहरा है, इसलिए उस चेहरे को हटाने के लिए नेताओं के जुड़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण देश की जनता के सामने ये है कि आखिर विपक्ष का चेहरा कौन होगा?
यदि किसी पार्टी को हटाना चाहते हैं तो उसके सामने हम किसी पार्टी को लाते हैं. किसी सिद्धांत के खिलाफ हम अगर मत इकट्ठा करते हैं तो दूसरे सिद्धांत को लाते हैं कि ये सिद्धांत अच्छा है और ये खराब है. सैद्धांतिक मुद्दा वैचारिक लड़ाई होती है. मगर यहां पर चेहरों की लड़ाई है. अगर मोदी को हटाना चाहते हैं तो चेहरा तो देना पड़ेगा ना. विपक्षी एकता का तब तक कोई औचित्य नहीं बनता जब तक उसका कोई चेहरा नहीं होगा.
देश की जनता के सामने ये एक बड़ा सवाल है कि वे किसे प्रधानमंत्री मानकर वोट डालें. वे अखिलेश, केसीआर या ममता बनर्जी... किसे पीएम समझकर अपना वोट डालें. बिना चेहरे के अगर चुनाव होगा तो इसका सीधा फायदा बीजेपी और नरेन्द्र मोदी को होगा. मुझे लगता है कि विपक्षी दलों को बैठकर चिंतन करना चाहिए, वो चिंतन जो वो चुनाव के बाद करना चाहते हैं.
प्रियंका नहीं चाहती बने पीएम उम्मीदवार
प्रियंका गांधी खुद नहीं चाहती हैं कि उन्हें देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया जाए. राहुल गांधी भी नहीं चाहते हैं. ये आकलन करते हैं कि कौन चेहरा होना चाहिए. मैंने अपनी राय रखी है. अगर आप किसी बड़े चेहरे को हराना चाहते हो तो उसके सामने एक चेहरा देना चाहिए. दूसरा ये कि जो पीएम चेहरा बने उसके बारे में लोग कम से कम जानते तो हों. उसकी विश्वसनीयता हो, उसकी स्वीकार्यता हो. इन सब लिहाज से प्रियंका गांधी एक बड़ा चेहरा हैं.
अब ये तय करना होगा कि आखिर लक्ष्य क्या है. लक्ष्य पीएम बनना है या फिर नरेन्द्र मोदी को हटाना है. अगर नरेंद्र मोदी को हटाना लक्ष्य है तो अपने छोटे-छोटे निजी स्वार्थ को छोड़ना होगा. अगर ये चाहते हैं कि हम पीएम भी बन जाएं और नरेन्द्र मोदी भी हट जाए. तो फिर ये तो जनता ही तय करेगी.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]