प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 19 मई से 24 मई के बीच तीन देशों जापान, पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा पर हैं. पीएम मोदी  जी 7 की बैठक में शामिल होने के साथ ही जापानी समकक्ष किशिदा फुमियो के साथ द्विपक्षीय बैठक करेंगे. जापान दौरे के बाद प्रधानमंत्री मोदी फिर पापुआ न्यू गिनी और सिडनी जाएंगे.


सिडनी में क्वाड की बैठक होने वाली थी, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के मना करने के बाद वह टल गयी है, हालांकि मोदी सिडनी फिर भी जा रहे हैं. अब जापान में जी 7 की पृष्ठभूमि में ही क्वाड के नेताओं की भी मीटिंग होगी, इसके आसार हैं. प्रधानमंत्री मोदी के इस विदेश दौरे को खास माना जा रहा है, क्योंकि अमेरिका की हालत खराब है, पीएम मोदी G20 के नेता के तौर पर जा रहे हैं और वैश्विक राजनीति तेजी से बदल रही है.


वैश्विक पटल पर भारत का कद लगातार बढ़ रहा है


अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत का कद बढ़ा है और साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कद भी बढ़ा है. इसके कई कारण हैं, पर सबसे अहम है...हमारी इकोनॉमी का स्थिर होना और लगातार प्रगति करना. हम पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और अगले कुछ साल में हम पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाला देश हो जाएंगे और उसके पांच साल बाद 10 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाला देश. यही इसका ग्रोथ-पैटर्न है और उसी की संभावना यहां भी है. दूसरा कारण यह भी है कि भारत के अंदर अंग्रेजी भाषी, टेक्नोसेवी एक मिडल क्लास भी है और तकनीक के उच्चतम सोपान पर भी खड़ा है.


इसके अलावा भारत में प्रजातंत्र है, राजनीतिक स्थिरता है और सस्ते दर पर श्रम भी उपलब्ध है. चीन के साथ जिन देशों के मसले चल रहे हैं, वे भारत को अपनी सप्लाई चेन में जोड़ रहे हैं. एक मामला क्वाड का है, दक्षिण चीन सागर का भी है. चीन की विस्तारवादी और आक्रामक नीति को रोकने के लिए ही क्वाड बना. ये जो सी-लेन है, जहाजरानी का यहां से तकरीबन 6 ट्रिलियन का ट्रेड गुजरता है. रूस से लेकर स्टेट ऑफ मलक्का तक भारत उसको सुरक्षा देता है, अब तो ये आगे भी बढ़ गया है. इंडो पैसिफिक क्षेत्र में भारत महत्वपूर्ण स्थान रखता है.


भारत मानता है कि यह अंतरराष्ट्रीय सीमा है, जिस पर सभी देशों के जहाज बिना किसी रोक टोक के आने-जाने चाहिए. चीन इस पर कंट्रोल चाहता है. भारत के संबंध ऑस्ट्रेलिया से भी बढ़ रहे हैं. अमेरिका और यूरोप के पास तकनीकी कुशलता है, पर जनसंख्या कम है. बड़ी संख्या में भारतीय वहां काम करते हैं. जापान में बहुत कम आबादी है. वहां की सैकड़ों कंपनियां यहां आ चुकी हैं. दक्षिण कोरिया के साथ भी यही है और वे भी भारत और भारतीयों के साथ काम कर रहे हैं. भारत की एक महत्वपूर्ण भूमिका है और पीएम मोदी का अपना अंदाज भी है. 


भारत अपने हितों के लिहाज से बनाएगा संबंध


भारत की विदेश नीति ख़ुद-मुख़्तार यानी स्वतंत्र है और यह बात पीएम मोदी भी कह चुके हैं. भारत का जिस देश के साथ हित होगा, वह उसके साथ संबंध प्रगाढ़ करेगा. क्वाड है तो चीन को रोकने के लिए, लेकिन भारत का ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका से भी संबंध अच्छे हैं. ब्रिक्स में भी कई सारे देश हैं और अब लगभग 20 देशों ने उसमें शामिल होने की मंशा जाहिर की है. जहां तक युद्ध का सवाल है तो भारत की नीति अमन और शांति की है. भारत ने रूस-यूक्रेन के संबंध में भी यही नीति बनाए रखी है. उसने रूस को कहा भी है कि मौजूदा वक्त युद्धकाल के लिए उपयुक्त नहीं है. कोरोना की वजह से सप्लाई लाइन वैसे भी बाधित हुई है, तो भारत हमेशा ही जंग की जगह अमन की बात करता है. ये बातें अमेरिका को पसंद हो या न हो, यह अलग बात है. उससे भारत की सेहत पर फर्क नहीं पड़ता.


चूंकि G7 की बैठक के लिए चारों क्वाड देशों के सरकारी प्रमुख जापान में रहेंगे ही, तो शायद अमेरिका ने सोचा हो कि सिडनी की जगह जापान में ही बातचीत कर ली जाए. इसका एजेंडा तो खैर बाद में चलेगा. बाइडेन का ये साल इलेक्शन का भी है. यूक्रेन वॉर में भी अमेरिका और यूरोप फंसे हुए हैं तो यह भी एक वजह हो सकती है. इसमें बहुत साजिश जैसी बात सोचने की जरूरत नहीं हैं. 


दुनिया बड़े बदलाव से गुजर रही है


अमेरिका में इनफ्लेशन अधिक है, उनकी इकोनॉमी सिकुड़ रही है, उनका मुद्राकोष सूखा है और उनके पास आंतरिक और बाह्य मिलाकर 32 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज है. उस पर डेट सीलिंग करनी जरूरी है. इसके लिए कांग्रेस में दोनों ही पार्टी- डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन- मिलकर इस पर बैठक करेंगे और समस्या का हल खोजेंगे. ऐसा अमेरिका में पहले भी कई बार हो चुका है, खासकर बजट के संदर्भ में, ताकि, उसके बजटीय कोष, फंड वगैरह में कमी न होने पाए. पापुआ न्यू गिनी तो इसलिए महत्वपूर्ण बन गया है क्योंकि वह खींच-तान का केंद्र बना है. अमेरिका चाहता है कि वह उसके प्रभाव में रहे, चीन ने उसमें निवेश किया है और वह अपनी दबंगई दिखाता है.


दरअसल, दुनिया में एक बहुत बड़ा बदलाव आ रहा है. अमेरिका के साथ जो देश थे, उन्होंने देखा है कि अमेरिका अपने ही हितों को प्रमुखता देता है, इसलिए अब बाकी देश भी पुनर्विचार कर रहे हैं. जिस तरह इराक और सीरिया में अमेरिका ने किया, वह अरब देशों को सावधान बना गया है. अफगानिस्तान के साथ जो हुआ, उससे यह तो लगभग तय हो गया है कि अमेरिकी हितों के साथ बाकी देशों के हित बहुत दूर तक नहीं सध पाते.


डी-डॉलराइजेशन यानी डॉलर के अलावा स्थानीय देशों की करेंसी में व्यापार का भी मामला बढ़ गया है. अमेरिका की धाक और धमक में कमी आय़ी है. यह समय बहुत ही खतरनाक और महत्वपूर्ण समय है. वैश्विक राजनीति में एक बड़ी ताकत के रसूख में कमी आने का समय बहुत अहम होता है. एक तरफ रूस-यूक्रेन युद्ध चल रहा है, जो कभी भी बढ़ सकता है, कहीं यूरोप के अंदर परमाणु युद्ध न हो जाए, इसकी भी आशंका है. सारी परिस्थितियों को मिलाकर देखते हुए ये कह सकते हैं कि ये एक अभूतपूर्व समय है.


अमेरिका की नीति लंबे समय से युद्ध और प्रतिबंध लगाकर अपनी नीति लागू करने की रही है. भारत की भूमिका ऐसे समय में बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. यह समय पूरी दुनिया के लिए इंतजार करो और देखो का हो सकता है, लेकिन भारत के लिए यह देखो और एक्ट करो का वक्त है. 


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)