पीएम मोदी के 'Mann Ki Baat' और जनता के 'मन की बात' के बीच का विरोधाभास कब होगा खत्म?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' की हर जगह चर्चा हो रही है. ये कार्यक्रम संख्या के हिसाब से एक नया मुकाम हासिल करने वाला है. आगामी रविवार यानी 30 अप्रैल को पीएम मोदी के 'मन की बात' कार्यक्रम का 100वां एपिसोड प्रसारित किया जाएगा.
'मन की बात' कार्यक्रम की 100वीं कड़ी के लिए धूमधाम से तैयारियां की जा रही हैं. पूरे सप्ताह भर इसके लिए कार्यक्रम और समारोह का आयोजन किया जा रहा है. 26 अप्रैल यानी बुधवार को राजधानी दिल्ली में 'मन की बात' @ 100’ सम्मेलन का आयोजन किया गया. खुद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसका उद्घाटन किया. इस समारोह में आमिर खान और रवीना टंडन, पुडुचेरी की पूर्व उप राज्यपाल किरण बेदी, खिलाड़ी निकहत जरीन और दीपा मलिक के साथ ही कई और हस्तियां शामिल हुईं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा है कि वे अपने रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' की 100वीं कड़ी का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. दादरा और नगर हवेली के सिलवासा जिले में कई परियोजनाओं की शुरुआत करने के मौके पर 25 अप्रैल को आयोजित जनसभा को संबोधित करते हुए खुद ही से प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि 'मन की बात' भारत के लोगों की विशेषताओं को रेखांकित करने और देश की विशिष्टता की प्रशंसा करने का बहुत अच्छा मंच है.
मई 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 3 अक्टूबर 2014 से पीएम के 'मन की बात' कार्यक्रम की शुरुआत हुई. हर महीने के आखिरी रविवार को इस कार्यक्रम का प्रसारण रेडियो पर किया जाता है. इस कार्यक्रम के लिए जबरदस्त तैयारियां की जाती हैं. पूरा सरकारी तंत्र लगा दिया जाता है, स्कूल कॉलेज से लेकर हर सरकारी संस्था के लोग पूरी मुस्तैदी से इस कोशिश में रहते हैं कि वे ये दिखाने से पीछे नहीं रहें कि उनके जरिए 'मन की बात' कार्यक्रम जन-जन तक पहुंचाया जा रहा है.
जाहिर सी बात जब इतनी तैयारियां की जाती है तो इसे सुनने वालों की संख्या भी बहुत ज्यादा होगी. इसको लेकर भारतीय प्रबंधन संस्थान IIM रोहतक ने हाल ही में एक सर्वे भी किया है. इसमें कहा गया है कि करीब 23 करोड़ लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'मन की बात' कार्यक्रम को हर महीने के आखिरी रविवार को सुनते हैं, जिसमें 65% श्रोता हिंदी में उनकी बात सुनना पसंद करते हैं. सर्वे से ये भी पता चलता है कि 18% श्रोता कार्यक्रम को अंग्रेजी में, 4% उर्दू में और 2-2% डोगरी और तमिल में सुनना पसंद करते हैं. इस सर्वे से एक बात ये भी निकलकर आई कि कुल श्रोताओं में से 44.7% टेलीविजन सेट पर कार्यक्रम सुनते हैं, जबकि 37.6% मोबाइल फोन पर इसे सुनते हैं. सर्वे से ये भी तथ्य निकलकर आया है कि अन्य भाषाओं जैसे मिज़ो, मैथिली, असमिया, कश्मीरी, तेलुगु, ओडिया, गुजराती और बंगाली के श्रोताओं की हिस्सेदारी कुल श्रोताओं की 9% थी. इस कार्यक्रम का आकाशवाणी के 500 से अधिक केंद्रों द्वारा किया जा रहा है. आपको जानकर हैरानी होगी कि 22 भारतीय भाषाओं और 29 बोलियों के अलावा, ''मन की बात'' फ्रेंच, चीनी, इंडोनेशियाई, तिब्बती, बर्मी, बलूची, अरबी, पश्तू, फारसी, दारी और स्वाहिली जैसी 11 विदेशी भाषाओं में प्रसारित किया जाता है.
लुब्ब-ए-लुबाब ये है कि पीएम मोदी के कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने और लोकप्रियता को बताने के लिए पिछले 8 साल में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा गया है. जाहिर सी बात है प्रधानमंत्री का कार्यक्रम है तो खर्च भी सरकारी खजाने से ही होगा और ये भी साफ है कि सरकारी खजाना मतलब हमारा-आपका पैसा. कहने का मतलब है कि पीएम के 'मन की बात' कार्यक्रम पर दिल खोलकर सरकारी राशि खर्च की जा रही है. देश में जश्न का माहौल है और इसी तरीके से प्रधानमंत्री मोदी देश के हर नागरिक को अपने 'मन की बात' सुना रहे हैं.
इन सबके बीच सवाल उठता है कि जब मई 2014 में पहली बार नरेंद्र मोदी देश की जनता का समर्थन हासिल कर प्रधानमंत्री बने थे, तब भारत के लोगों ने उन्हें ये जिम्मेदारी अपने 'मन की बात' को सुनाने और समझने के लिए दी थी. तो फिर पीएम मोदी के 'मन की बात' के सामने जनता के 'मन की बात' का विरोधाभास पिछले करीब 9 साल से कैसे पैदा हो गया. इस पर सोचने की जरूरत है.
26 मई 2014 को नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे. उससे पहले हुए लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने बहुत ही उम्मीदों के साथ जमकर अपना वोट नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को दिया था. उस वक्त जनता बेहद परेशान थी. चारों ओर भ्रष्टाचार का माहौल दिख रहा था. महंगाई उस वक्त के लिहाज से चरम पर थी. राजनीतिक तंत्र पूरी तरह से वीआईपी कल्चर की गिरफ्त में था. आम लोगों को लगने लगा था कि अब उनकी अहमियत लोकतांत्रिक सरकार में सिर्फ़ वोट देने तक ही सीमित रह गई है. इन सबके बीच देश की एक बड़ी आबादी ऐसे विकल्प को तलाश रही थी जो उनके ''मन की बात'' को सुनें, उनके दु:ख-दर्द को समझे.
जनता की इस भावना को आपने बखूबी समझा और चुनाव प्रचार में हर वो वादे किए जो जनता चाह रही थी. महंगाई से मुक्ति दिलाने से लेकर भ्रष्टाचार के जंजाल से मुक्ति दिलाने तक का वादा किया गया. सबसे बड़ी बात कि जिस तरह से यहां के राजनेता, मंत्री, सांसद, विधायक खुद को सामंत को सामंत मानकर उसी तरह का व्यवहार कर रहे थे और आपने यानी नरेंद्र मोदी ने जनता को यकीन दिलाया कि मेरी सरकार बनेगी तो ये संस्कृति पूरी तरह से खत्म हो जाएगी.
उस वक्त आपने और आपके कई नेताओं के साथ ही आपकी पार्टी के लिए प्रचार करने वाले बड़े-बड़े लोगों ने जनता के बीच ये बातें रखी कि महंगाई का 'म' को लेकर भी मुंह नहीं खोलने वाली यूपीए सरकार ( मनमोहन सिंह सरकार) को देश की जनता हटाए और नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी को सरकार बनाने का मौका दे और ऐसा हो जाएगा तो फिर देश में सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता की बात सुनी जाएगी. आपके कई नेताओं और प्रचारकों ने वादा किया कि चीनी 13 रुपये किलो मिलेगी, पेट्रोल 35 रुपये प्रति लीटर मिलने लगेगा. गैस सिलेंडर के दाम बहुत कम हो जाएंगे. न जानें इस तरह के कितने वादे उस वक्त किए गए थे. देश की अधिकांश जनता आपके इन वादों को बिल्कुल सच मान बैठी थी और उसके बाद आप में उम्मीद की किरण देखते हुए जनता ने देश की सत्ता आपको सौंप दी थी.
हालांकि सत्ता में आने के बाद आपके 'मन की बात' कार्यक्रम का तो प्रसारण होने लगा, लेकिन जनता के 'मन की बात' को सुनने वाला धीरे-धीरे कोई नहीं बचा. अगर जनता के मन की सबसे पहली बात पर बात करें तो वो है महंगाई. पिछले 9 साल से महंगाई कितनी ज्यादा हो गई है, इसके लिए किसी आर्थिक संस्था की रिपोर्ट या फिर अर्थशास्त्री के आंकड़े की जरूरत नहीं है. यहां के गरीब और मध्यम आय वाले लोग इसको रोज हर पल महसूस कर रहे हैं. चाहे रोजमर्रा के खाने की चीजें हों या फिर गैस सिलेंडर से लेकर पेट्रोल डीजल की कीमतें हों..ये हर किसी को पता है कि पिछले 9 साल में इनका क्या हाल हुआ है. ये वास्तविकता है कि 10 साल पहले अगर एक आम परिवार में राशन के सामान पर हर महीने 3 से 4 हजार रुपये खर्च होते थे, तो अब उतने ही सामान के लिए 6 से 7 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं. एक और भी तथ्य है कि इन सालों में आम आदमी की आय में इस हिसाब से बढ़ोत्तरी बिल्कुल भी नहीं हुई है.
दिक्कत सिर्फ़ इतनी नहीं है कि महंगाई चरम पर पहुंच गई है. उससे भी बड़ी दिक्कत है कि देश की आम जनता महंगाई के इस दर्द को किसके सामने बयां करे. अगर कोई महंगाई पर बोलना भी चाहता है, तो आपके राजनीतिक सिस्टम ने ऐसा विमर्श खड़ा कर दिया है कि उस शख्स को हो सकता है कि देशद्रोही के तमगा से भी समाज में जूझना पड़ सकता है. महंगाई के नैरेटिव को ही करीब-करीब बहस से गायब कर दिया गया है. आम जनता के 'मन की बात' से जुड़ी महंगाई के मुद्दे को सत्ता से जुड़ा कोई तंत्र सुनने को तैयार नहीं है. जनता के 'मन की बात' है ये और बड़ी उम्मीद से जनता ने अपने 'मन की बात' सुनाने के लिए आपको चुना था.
जनता के मन में सबसे बड़ी चाहत होती है कि वो ये महसूस कर सके कि लोकतांत्रिक प्रणाली में निर्वाचित सरकार में सबसे ज्यादा अहमियत उसकी है और वो इस देश का असली मालिक है. 2014 में आपको चुनने के पीछे बहुत सारी वजहों में से एक ये भी वजह थी कि जनता को भरोसा था कि आप इस देश के प्रधानमंत्री बनेंगे तो जनता की इस चाहत को समझेंगे. आपने वादा भी किया था कि आप देश से वीआईपी संस्कृति को पूरी तरह से गायब कर देंगे. आपने संसद में प्रवेश करने से पहले जब सीढ़ियों को चूमा था, तो पूरे देश में ये आस जगी थी कि आजादी के बाद पहली बार शायद कोई प्रधानमंत्री देश की जनता को देश का मालिक बनाकर छोड़ेगा.
2014 में कांग्रेस की बुरी तरह से हार की एक प्रमुख वजह भी यही थी कि उसके सारे मंत्री और नेता जनता से बिल्कुल दूर होते गए थे और जनता के बीच ऐसी छवि बन गई थी कि जैसे वो लोकतांत्रिक प्रणाली में भी अभी भी खुद को सामंत या जमींदार मान रहे हैं. जनता को आपसे ये उम्मीद कि इस अवधारणा को आप बदल देंगे. हालांकि जैसे-जैसे आपकी सत्ता के दिन बीतते गए, कमोबेश इस मसले पर स्थिति पहले ही जैसा रहा. कहां आप वीआईपी संस्कृति को दूर करने की बात करते थे और कहां आप खुद ही इतने बड़े वीआईपी की तरह व्यवहार करने लगे हैं कि अब तो ये कहने में भी संकोच होता है कि इस देश से कभी वीआईपी कल्चर खत्म होगा. सरकार में शामिल मंत्री से लेकर सत्ता से जुड़े बड़े-बड़े नेताओं के हाव-भाव में कोई बदलाव नहीं आया है. उनका नजरिया और रवैया के साथ जीने का सलीका भी बिल्कुल पहले ही की तरह सामंत या जमींदार की तरह ही दिख रहा है. अब अंतर ये हो गया है कि ये सारे सरकारी सामंत बन गए हैं. त्रासदी ये है कि इस वीआईपी कल्चर पर एक बड़ी राशि, सरकारी खजाने यानी जनता के पैसे से खर्च हो रही है और इसको सुध लेने वाला कोई नहीं है. जनता के मन की इस बात को कौन सुनेगा.
भ्रष्टाचार को लेकर भी जनता को लगा था कि अब उनकी बात सुनी जाएगी, लेकिन इस मोर्चे पर भी जनता को निराशा ही हाथ लगी है. आप दावा तो करते रहे हैं कि सरकारी तंत्र से भ्रष्टाचार बहुत हद तक गायब हो गया है, लेकिन गरीब और देश की बहुसंख्यक आम आदमी से पूछिए कि उन्हें रोजमर्रा के जरूरी कामों के लिए सरकारी तंत्र के आगे-पीछे कितना ज्यादा खून-पसीना झोंकना पड़ रहा है. इसमें घूसखोरी से लेकर चिरौरी तक शामिल है. भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ ये नहीं होता कि जब तक राष्ट्रव्यापी स्तर पर बड़ा-बड़ा घोटाले का खुलासा नहीं होगा, तब तक भ्रष्टाचार को माना ही नहीं जाएगा. सरकारी तंत्र में भ्रष्ट आचरण से देश की जनता का रोज सामना हो रहा है और ये हकीकत है. जनता के मन की इस बात को कौन सुनेगा.
लोकतंत्र में जनता के मन की सबसे बड़ी बात होती है कि वो उस अथॉरिटी से सवाल कर सके, जिस अथॉरिटी को उसके नाम पर बनाया या चलाया जा रहा है. We The People से जुड़े जनता के 'मन की बात' को कौन सुनेगा. पिछले 9 साल में जनता सवाल पूछे किससे, यही सबसे बड़ा सवाल बन गया है. सवाल पूछने पर उल्टा आम जनता को तरह-तरह के आरोपों से जूझना पड़ रहा है. ये तय मानिए कि संसदीय प्रणाली में सवाल हमेशा ही सत्ता से पूछा जाता है, विपक्ष से नहीं या फिर पहले जो सत्ता में थे, जनता उनसे जाकर सवाल नहीं करेगी. आपको जब जनता ने सत्ता की चाबी सौंपी थी, तो जनता को यकीन था कि वो जब चाहे आपसे सवाल पूछ सकती है, लेकिन आप हैं कि सवाल पूछना ही पसंद नहीं करते हैं. तो फिर जनता के मन की इस बात को कौन सुनेगा, कौन समझेगा.
ये ठीक है कि 2014 के बाद 2019 में भी देश की जनता ने आप पर ही भरोसा जताया, लेकिन इसका कतई ये मायने नहीं है कि जनता के मन में सवाल ही नहीं है और जनता को सवाल पूछने का हक़ ही नहीं है. जनता आपको जीता रही है क्योंकि जनता को शायद फिलहाल आपसे बेहतर विकल्प नज़र नहीं आ रही है और हमारा जो चुनावी सिस्टम है उसके हिसाब से जनता की मजबूरी होती है कि मौजूद विकल्पों में से ही चयन करें. शायद विपक्ष उस तरह का भरोसा नहीं जता पा रहा है, जिस तरह का भरोसा आपने 2014 में जताया था. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप जनता के 'मन की बात' सुने हीं नहीं, आप जनता के सवालों का सामना ही नहीं करें. वोट देने का ये नैरेटिव नहीं होता है कि जनता आपकी हर बात सुनते रहे और आप जनता की बातों को नजरअंदाज करते रहें.
'मन की बात' कीजिए, आपका ये कर्तव्य है, लेकिन जनता के 'मन की बात' को भी सुनिए. ऐसा कोई तरीका बनाइए, जिससे जनता सीधे आपसे सवाल कर सके. आपका ये कर्तव्य है कि आप 'मन की बात' करें, लेकिन जनता 'मन की बात' करे, ये उसका अधिकार है. जनता के ''मन की बात'' सबसे ज्यादा अहमियत रखती है और किसी भी देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए ये सबसे ज्याद महत्वपूर्ण है या कहें कि सर्वोपरि है.
(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)