भारत की विदेश नीति का स्वर्णिम दौर, अमेरिका-रूस दोनों के साथ संतुलन, देशहित प्राथमिकता, चीन की हरकतों पर नज़र
राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में अभी चारों ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की पहली राजकीय यात्रा की चर्चा हो रही है. पिछले कुछ सालों में जिस तरह का रुख भारत ने अपनाया है और दुनिया के ताकतवर मुल्कों में भारत के साथ संबंधों को बढ़ाने की उत्सुकता और ललक दिख रही है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि फिलहाल भारत की विदेश नीति का स्वर्णिम दौर है.
दरअसल भारत की विदेश नीति में पहले तटस्थता का भाव ज्यादा था. वो किसी खेमे में रहने का पक्षधर नहीं था. अभी भी भारत किसी खेमे या गुट में बंधने के पक्ष में नहीं है और न ही भविष्य में ऐसा होने की कोई संभावना दिखती है.
विदेश नीति में अब संकोच की जगह नहीं
इसके बावजूद भारत की विदेश नीति में एक बड़ा बदलाव पिछले कुछ सालों से दिख रहा है. भारतीय विदेश नीति में अब संकोच की कोई जगह नहीं रह गई है. अब भारत का रुख किसी गुट या खेमे में नहीं रहने की बजाय हर गुट या खेमे का हिस्सा बनने की ओर है. बस इसके लिए एक चीज होनी चाहिए और वो है भारत का हित. जहां भी भारत का हित सधेगा, अब भारत वहां दिखेगा. भारतीय विदेश नीति में पिछले कुछ सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में यह सबसे बड़ा बदलाव आया है. जब से रूस-यूक्रेन शुरू हुआ है, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ये बातें कई बार कही है कि भारत की विदेश नीति में अब प्राथमिकता अपने हितों को साधने पर है.
अमेरिका के साथ गाढ़ी होती दोस्ती
अमेरिका से भारत की गाढ़ी होती दोस्ती भारतीय विदेश नीति के उसी बदले हुए रुख का उदाहरण है. हम सब जानते हैं कि अमेरिका का इस समय रूस के साथ संबंध बेहद ही बुरे दौर में है. रूस पिछले 6 दशक से भारत का सबसे करीबी दोस्त रहा है. इन दोनों पहलुओं के बाद भी पिछले कुछ सालों से भारत और अमेरिका के बीच का संबंध लगातार मजबूत हुए हैं.
हम कह सकते हैं कि पिछले 23 साल में भारत और अमेरिका के संबंध धीरे-धीरे उस मुकाम तक पहुंच गया है, जब अमेरिका की ओर से बार-बार भारत को उसका सबसे अच्छा साझेदार बताया जा रहा है. इसकी शुरुआत मार्च 2000 में हुई थी, जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत की यात्रा पर आए थे. ये किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का 22 साल बाद भारत का दौरा था. बिल क्लिंटन से पहले जनवरी 1978 में तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने भारत की यात्रा की थी.
पिछले 23 साल रहे हैं काफी महत्वपूर्ण
बिल क्लिटंन से जो शुरुआत हुई, उसके बाद ये सिलसिला थमने का नाम नहीं लिया. क्लिंटन के बाद जितने भी राष्ट्रपति हुए सभी ने भारत की यात्रा की और इससे द्विपक्षीय संबंधों को नया आयाम मिलते गया. क्लिटंन के बाद जार्ज डब्ल्यू बुश ने मार्च 2006 में भारत की यात्रा की. उसके बाद बराक ओबामा अपने दोनों कार्यकाल में यानी दो बार भारत आए. पहली बार ओबामा नवंबर 2010 में और दूसरी बार जनवरी 2015 में भारत आए. उनके बाद डॉनल्ड ट्रम्प ने फरवरी 2020 में भारत की यात्रा की. मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन जी 20 के सालाना शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने इस साल सितंबर में भारत आएंगे.
इसके साथ ही भारत की ओर से भी वर्ष 2000 से अमेरिका की यात्रा का सिलसिला तेज़ हुआ. बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सितंबर 2000 से सितंबर 2003 के बीच 4 बार अमेरिका गए. वहीं बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सितंबर 2004 से सितंबर 2013 के दौरान 8 बार अमेरिका गए, जिसमें नवंबर 2009 में उनकी अमेरिकी यात्रा राजकीय यात्रा थी.
नए सिरे से संबंधों को परिभाषित करने पर ज़ोर
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते और तेजी से मजबूत हुए. मौजूदा यात्रा को मिलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 8 बार अमेरिका जा चुके हैं. उसमें भी इस बार की यात्रा उनकी पहली राजकीय यात्रा है. अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ ही नरेंद्र मोदी ने भी पिछले 9 साल में अमेरिका के साथ संबंधों को नया आयाम देने के लिए तत्परता दिखाई. जनवरी 2021 में जो बाइडेन के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद दोनों देशों ने नए सिरे से अपने संबंधों को परिभाषित करना शुरू किया.
रक्षा और तकनीकी सहयोग सबसे महत्वपूर्ण
रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भी अगर हम भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती दोस्ती पर नजर डालें तो एक बात स्पष्ट है कि भारतीय विदेश नीति में अब रूस के साथ ही अमेरिका के साथ संतुलन बनाना भारत की प्राथमिकता में शामिल है.
भारत और अमेरिका के संबंधों में अब व्यापार के साथ ही रक्षा और तकनीक सहयोग सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं. भारत के लिए ये कूटनीतिक लिहाज से भी महत्वपूर्ण है. इससे रक्षा जरूरतों के लिए रूस पर निर्भरता कम होगी. रूस पर भारत की निर्भरता का आलम इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फ़ॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ की रिपोर्ट से समझा जा सकता है. इसके मुताबिक वर्तमान में भारत की 90% बख्तरबंद गाड़ियां, 69% लड़ाकू विमान और 44% युद्धपोत और पनडुब्बी रूसी निर्मित हैं. पिछले कुछ सालों में अमेरिका के बीच कई रक्षा समझौते हुए हैं और अमेरिका से हथियारों की खरीदारी बढ़ी भी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली राजकीय यात्रा के दौरान होने वाले रक्षा समझौतों के बाद भविष्य में रक्षा जरूरतों के लिए रूस पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी.
विदेश नीति का बढ़ रहा है दायरा
पहले कहा जाता था (ख़ासकर शीत युद्ध के समय) कि अगर भारत, अमेरिका से संबंध मजबूत करेगा तो सोवियत संघ की ओर से नाराजगी झेलनी पड़ सकती है. लेकिन अब भारत उस दौर और उस सोच से भी आगे निकलकर अपनी विदेश नीति को ज्यादा व्यापक आधार दे रहा है.
सवाल उठता है कि क्या यूक्रेन संकट ने भारत को और तेजी से अमेरिका के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए प्रेरित किया है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कुछ दिन पहले ही ब्रिटिश मैगजीन 'द इकोनॉमिस्ट' को दिए इंटरव्यू में कहा है कि पिछले दो दशकों में अमेरिका में जो भी राष्ट्रपति हुए हों, चाहे वो रिपब्लिकन हो या फिर डेमोक्रैटिक, हर राष्ट्रपति भारत से संबंधों को बेहतर करने के पक्ष में रहे हैं. भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने को लेकर उनके बीच मतभेद नहीं थे.
अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में बदलाव और मजबूती दोनों का एक महत्वपूर्ण पहलू ये है कि अब अमेरिका न सिर्फ भारत के साथ रक्षा और आर्थिक संबंधों को बढ़ा रहा है, इसके साथ ही पहले जिस चीज को लेकर संशय रहता था, अब वो संशय भी उस चीज को लेकर नहीं रह गया है. पहले अमेरिका भारत को आधुनिक तकनीक ट्रांसफर करने के पक्ष में नहीं रहता था, लेकिन मौजूदा वक्त में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अमेरिका का भारत के साथ जिस तरह का संबंध और सहयोग है, वैसा किसी और देश के साथ नहीं है.
अमेरिका-रूस दोनों के साथ संतुलन
ऐसा नहीं है कि भारत रूस के एवज में अमेरिका से संबंधों को मजबूत कर रहा है. एक बात जरूर है कि हाल फिलहाल के कुछ वर्षों में रूस के साथ चीन की दोस्ती ज्यादा गहरी हुई है और ये भारत के लिए जरूर चिंता की बात है. इसके बावजूद भारत रूस से अपने पुराने संबंधों को कहीं से भी कमतर नहीं कर रहा है. अभी भी रूस ही भारत का सबसे बड़ा हथियार देने वाला देश है. हम अपने आधे से भी ज्यादा सैन्य उपकरण के लिए रूस पर निर्भर रहते हैं.
रूस से सबसे ज्यादा कच्चे तेल की खरीदारी
पिछले 8 महीने से भारत सबसे ज्यादा कच्चा तेल रूस से ही खरीद रहा है. भारत के कच्चे तेल के आयात में रूस की हिस्सेदारी 42% से ज्यादा हो गई है. रूस से तेल खरीदने का सबसे बड़ा फायदा ये मिल रहा है कि कच्चे तेल को लेकर ओपेक देशों पर भारत की निर्भरता धीरे-धीरे बहुत ही कम हो गई है. ओपेक की हिस्सेदारी घटकर 39% हो गई है. यूक्रेन युद्ध से इस मोर्चे पर भारत के संबंध रूस से मजबूत ही हुए हैं. इस युद्ध के शुरू होने से पहले भारत के कच्चे तेल के आयात में रूस की हिस्सेदारी एक प्रतिशत से भी कम थी. अब भारत, रूस से सस्ते दामों पर कच्चे तेल हासिल कर पा रहा है.
'द इकोनॉमिस्ट' को दिए इंटरव्यू में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि रूस के साथ भारत की दोस्ती 6 दशकों के इतिहास का नतीजा है और 6 दशक के बाद ऐसा नहीं है कि भारत का विचार बदल गए हैं. उन्होंने ये भी याद दिलाया कि 1965 में पाकिस्तान के साथ भारत के युद्ध के बाद अमेरिका ने इंडिया को हथियार नहीं बेचने का फैसला किया था और भारत के लिए सही मायने में हथियारों की खरीद के लिए सोवियत संघ के पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
भारत के लिए प्राथमिकता से तय होते रिश्ते
एस जयशंकर ने बड़े ही बेबाक अंदाज में कई बार कहा है कि जो आपको पसंद है, उसके हिसाब से भारत फैसले नहीं ले सकता. भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकता को स्पष्ट करते हुए एस जयशंकर ने ये जता दिया कि ऐसा नहीं हो सकता कि अब किसी देश से भारत का संबंध मजबूत हो रहा है तो उसके एवज में पुराने साथियों से भारत अपने संबंधों को कम कर ले.
अमेरिका हो या फिर कोई और देश भारत के लिए रूस के साथ दोस्ती सैन्य जरूरतों के लिहाज से तो महत्वपूर्ण है ही, इसके अलावा अब कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस को लेकर भी इसका महत्व बढ़ गया है. ये बात जरूर है कि पिछले डेढ़ साल में जिस तरह से रूस और चीन बेहद करीब आए हैं, साथ ही भारत का संबंध चीन के साथ लगातार बिगड़ते गए हैं, उस लिहाज से भारत को अपनी विदेश नीति में नए विकल्पों पर सोचने का कारण जरूर मिल गया है.
व्यापार में चीन के विकल्प पर नज़र
अमेरिका पिछले दो साल से भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है. उससे पहले चीन 2013-14 से लेकर 2017-18 तक और फिर 2020-21 में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था. अमेरिका के बाद अभी भी चीन ही भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. आयात के मामले में तो चीन पर हमारी निर्भरता बहुत ज्यादा है. पिछले 15 साल से हम चीन से सबसे ज्यादा आयात करते हैं. अभी भी हालात कुछ ऐसे हैं कि भले ही अमेरिका हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, इसके बावजूद 2022-23 में भारत को अमेरिका से करीब दोगुना आयात चीन से करना पड़ा था.
यूरोपीय देशों से मजबूत होते संबंध
भारत आयात के विकल्प को खोज रहा है. उधर अमेरिका और चीन के बीच पिछले कुछ सालों में ट्रेड वार की स्थिति है. इस तरह से दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश व्यापार के मोर्चे पर चीन का विकल्प ढूंढ़ने में लगे हैं. यहीं वजह है कि बिना किसी सैन्य या ध्रुवीकरण से जुड़े गुट का हिस्सा बने भारत अमेरिका के साथ ही अरब देशों और यूरोपीय देशों के साथ संबंधों को नया आयाम देने में जुटा है. भारत यूरोपीय संघ से मुक्त व्यापार समझौते को जल्द से जल्द अंतिम रूप देना चाहता है. इसके साथ ही भारत, ब्रिटेन के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते को जल्दी अमलीजामा पहनाना चाहता है. भारत और ब्रिटेन के बीच प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौते पर दसवें दौर की बातचीत 9 जून समाप्त हुई है और जुलाई में 11वें दौर की बातचीत होनी है.
भारत यूरोपीय संघ से मुक्त व्यापार समझौता कर यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी के साथ भी कारोबारी रिश्ते बढ़ाना चाह रहा है. जब फरवरी में जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज भारत यात्रा की थी, तो उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत के केंद्र में व्यापार संबंधों को और बढ़ाने के तौर-तरीके ही थे. जर्मनी यूरोप में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. अमेरिका और चीन दोनों पर व्यापार को लेकर निर्भरता को भी कम करने के लिहाज से भारत के लिए यूरोपीय देशों का विकल्प है.
किसी गुट का हिस्सा नहीं बनने की नीति
जब से रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ है, किसी न किसी तरीके से अमेरिका और बाकी पश्चिमी देशों का भारत पर दबाव बनाने की कोशिश जरूर की गई है कि वो खुलकर रूस का विरोध करे. हालांकि भारत ने इस मसले पर ऐसा कुछ नहीं किया. ये जरूर है कि भारत कहते रहा है कि सिर्फ और सिर्फ़ बातचीत के जरिए ही किसी भी समस्या का समाधान निकाला जा सकता है. इस बीच भारत ने अपने हितों से कोई समझौता नहीं किया और पश्चिमी देशों की आलोचना के बावजूद रूस से कच्चा तेल खरीदते रहा, वो भी सस्ते में.
इस दौरान अमेरिका और बाकी पश्चिमी देशों की ओर से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर से एक और कोशिश की गई है. ये देश चाहते हैं कि रूस और चीन की बढ़ती नजदीकियों को देखते हुए भारत किसी तरह से NATO के सहयोगी प्लस ग्रुप में शामिल हो जाए. अमेरिकी कांग्रेस कमेटी ने भी इस बात पर ज़ोर दिया है. हालांकि भारत अपने ही अंदाज में बार-बार ये संकेत देता रहा है कि उसका किसी सैन्य गुट में शामिल होने की कोई मंशा नहीं है और न ही संबंधों की मजबूती के नाम पर वो किसी ऐसे गुट का हिस्सा बनेगा, जिससे उसके ऊपर दबाव आ जाए. इन तमाम कोशिशों के बावजूद भारत का रूस के प्रति नीतियों में कम से कम बयान के जरिए कोई बदलाव नहीं आया.
भारत-अमेरिका दोस्ती के विरोध में चीन
दूसरी तरफ रूस और चीन ने जो रवैया अपनाया है, उसका भी भारत के विदेश नीति पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती साझेदारी का चीन तो खुलकर विरोध कर रहा है. इसके साथ ही रूस की ओर से भी इस रिश्ते को लेकर सुगबुगाहट रही है. हालांकि रूस के पुतिन सरकार की ओर से खुलकर कुछ नहीं कहा गया है. इसके विपरीत भारत में रूसी राजदूत डेनिस अलीपोव ने भरोसा दिया है कि रूस भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना जारी रखेगा. उन्होंने कहा कि दोनों पक्ष ऊर्जा आपूर्ति को टिकाऊ बनाने और व्यापार असंतुलन को दूर करने के तरीकों पर काम कर रहे हैं. रूस ये भी चाहता है कि वो भारत के साथ उसके संबंधों में विविधता आए. रूस जोर देता रहा है कि भारत और रूस की दोस्ती किसी के खिलाफ केंद्रित नहीं है.
रूस से चीन की बढ़ रही है नजदीकियां
हालांकि विदेश नीति के तहत कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जो पर्दे के पीछे चलते रहती हैं. यहीं वजह है कि चीन का जिस तरह से रूस में आर्थिक गतिविधि बढ़ रहा है, उसको देखते हुए भारत भी अपनी विदेश नीति में खुलापन ला रहा है और हर मोर्चे पर नए विकल्पों के साथ आगे बढ़ने के हिसाब से तमाम देशों के साथ संबंधों को साध रहा है.
भारत अब अपने रवैये से ये जाहिर करने में भी पीछे नहीं हट रहा है कि चाहे कोई भी देश हो भारत के साथ संबंध मजबूत करना है तो फिर उसमें कोई शर्त या बंधन नहीं हो. भारत किसी देश के आदेश पर नहीं चलना चाहता, भले ही वो कोई सुपरपावर ही क्यों न हो. ये अमेरिका और रूस दोनों के लिए ही एक तरह से संकेत भी है और संतुलन भी है. चीन को लेकर इंडो पैसिफिक रीजन में जो खतरा भारत को है, उसके लिहाज से भी भारत, अमेरिका समेत अरब और यूरोपीय देशों के साथ गठजोड़ को बढ़ा रहा है क्योंकि इस मसले पर रूस की ओर से भारत के लिए कोई सकारात्मक संकेत नहीं है.
पड़ोसी समीकरणों को साधने की चुनौती
भले ही अमेरिका, अरब के देश और यूरोपीय देशों की ओर से भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए उत्सुकता दिख रही है, लेकिन इन सबके बीच भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती पड़ोसी देशों से जुड़े समीकरणों को लेकर भी है. पाकिस्तान से हमारे संबंध हमेशा से खराब रहे हैं. इसके साथ ही नेपाल और भूटान में चीन अपना प्रभाव बढ़ाने की निरंतर चेष्टा करते रहता है. म्यांमार से भी भारत के लिए किसी न किसी तरीके से खतरा पैदा होते ही रहता है. फिलहाल मणिपुर में जो हिंसा का दौर चल रहा है, उसमें भी म्यांमार की तरफ से चीन का हाथ होने की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता है.
चीन की नजर अमेरिका के साथ संबंधों पर
इस बीच अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन 18 जून को दो दिन के दौरे पर बीजिंग पहुंचे. पिछले 5 साल में अमेरिका के किसी बड़े नेता या मंत्री का ये पहला चीन दौरा है. बाइडेन कैबिनेट के वे पहले मंत्री हैं जो चीन पहुंचे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से ठीक पहले ब्लिंकन की चीन यात्रा से स्पष्ट है कि अमेरिका, चीन के साथ अपने तनातनी भरे रिश्तों को बेहतर करना चाहता है. ब्लिंकन ने 19 जून को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी मुलाकात की थी. इस दौरान अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा भी कि दोनों देश रिश्ते को स्थिर करने की जरूरत पर सहमत हैं. वहीं शी जिनपिंग ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय संबंधों की वर्तमान स्थिति के बारे में चिंतित था. वे संघर्ष या टकराव नहीं देखना चाहते. इससे पहले मई में अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन और चीन के वरिष्ठ राजनयिक वांग यी के बीच ऑस्ट्रिया के विएना में मुलाकात हुई थी. इन दौरों और मुलाकात से जाहिर है कि चीन और अमेरिका रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाना चाहते हैं. भारत को इन परिस्थितियों पर भी गौर करना होगा.
विदेश नीति में यथार्थ के बाद व्यवहार पर ज़ोर
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि एक समय था जब भारत की विदेश नीति में आदर्शवाद का पुट ज्यादा होता था, लेकिन अब भारत का रवैया यथार्थवाद से संचालित होने लगा है. ये भी कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति अब यथार्थवाद से भी एक कदम आगे जाकर व्यवहारवाद पर आगे बढ़ रही है. उसी का नतीजा है कि अब भारत हर जगह आगे बढ़कर मोर्चा संभालने या नेतृत्व करने की नीति पर कदम बढ़ा रहा है.
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