ठीक चार महीने और चार दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिर से जापान की धरती पर पहुंच रहे हैं. हालांकि वे पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे के राजकीय अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिये टोक्यो गए हैं, जिनकी बीती 8 जुलाई को चुनावी सभा के दौरान एक हमलावर ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.
लेकिन मोदी की ये अल्पकालीन यात्रा इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि वे इस दौरान जापान के पीएम फूमियो किशिदा के साथ अलग से मुलाकात करेंगे. दोनों नेताओं के बीच होने वाली द्विपक्षीय बैठक में बुलेट ट्रेन समेत कारोबार और निवेश, रक्षा और सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा जैसे मुद्दों पर भी चर्चा होगी.
वैसे भारत के लिये इस वक़्त जापान की क्या अहमियत है, इसका अंदाजा सिर्फ इससे ही लगा सकते हैं कि जापान ने अगले पांच सालों में भारत में 5 ट्रिलियन येन यानी करीब 3. 2 लाख करोड़ रुपये का निवेश करने का समझौता किया हुआ है, जो महज छह महीने पहले ही हुआ है.
अब सोचने वाली बात ये है कि अगर जापान ने तय वक़्त में अपने इस वादे को पूरा कर दिखाया तो आने वाले पांच साल में भारत की इकोनॉमी कहाँ पहुंच जायेगी. इसलिये पीएम मोदी अपने भाषणों में भारत की इकोनॉमी को 3 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाने का दावा करते हैं, तो उसकी एक बड़ी वजह जापान के साथ किया गया ये समझौता है. लेकिन हमारे विपक्षी दलों की एक बड़ी मुश्किल ये भी है कि वे पुख्ता होम वर्क किये बगैर सरकार के इस दावे का मखौल उड़ाना शुरु कर देते हैं.
दुनिया में जापान इकलौता ऐसा देश है, जिसने परमाणु बम के सबसे पहले महाविनाश को झेला लेकिन खुद को कभी कमजोर नहीं होने दिया. शायद ये कहना ज्यादा उचित होगा की हिरोशिमा-नागासाकी की उस विभीषिका को झेलने के बाद वह पहले से ज्यादा ताकतवर और आत्मनिर्भर हुआ है. यही कारण है कि आज उसकी गिनती दुनिया के पांच अग्रणी विकसित देशों में होती है. हम जिसकी महज कल्पना ही करते हैं, उसी तकनीक या वस्तु को वो देश महज चंद साल में ही अंजाम देते हुए पूरी दुनिया को उसे खरीदने-अपनाने पर मजबूर कर देता है.
इसलिए पीएम मोदी की अपने समकक्ष फूमियो किशिदा के साथ होने वाली ये बैठक अहम मानी जा रही है, ताकि वे जापान द्वारा किये जाने वाले इस भारी भरकम निवेश की प्रगति के बारे में जान सकें. साथ ही ये भी पता लग सके कि निवेश किस क्षेत्र में तेजी के साथ करने की जरूरत है और वहां जापान को भारत की तरफ से अगर कोई दिक्कत पेश आ रही हो, तो उसे तत्काल दूर किया जा सके.
हालांकि पिछले आठ सालों में केंद्र के स्तर पर कामों को लटकाने की अफसरशाही की आदतों पर लगाम कसी गई है लेकिन फिर भी वो कुछ नुक्स निकालकर तय वक़्त पर किसी प्रोजेक्ट के पूरा होने की अपनी पुरानी आदत से बाज नहीं आती है. इसीलिये विदेशी निवेश वाले तमाम प्रोजेक्ट की निगरानी खुद पीएम ही करते हैं, ताकि संबंधित विभाग के मंत्रियों को कोई दलील देने का बहाना ही न मिल सके.
हालांकि मोदी के सपनों वाली बुलेट ट्रेन का प्रोजेक्ट पूरा होने में देरी हो रही है लेकिन इसके लिए पहली बड़ी वजह थी कोरोना की महामारी और दूसरी ये की महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली महा विकास अघाड़ी ने अपने हिस्से वाली जमीन का अधिग्रहण देने को जान बूझकर लटकाए रखा.
अहमदाबाद से मुम्बई के बीच चलने वाली इस जापानी बुलेट ट्रेन की खासियत ये है कि इसकी स्पीड 320 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुंच जाती है. ये ट्रेन मुंबई को सूरत और अहमदाबाद से जोड़ेगी, जिसमें 12 स्टेशन प्रस्तावित हैं. परियोजना के तहत 8 स्टेशन गुजरात में और 4 स्टेशन महाराष्ट्र में होंगे. 21 किलोमीटर का ट्रैक ही ज़मीन पर होगा.
बाक़ी ट्रैक एलिवेटेड होगा. जानकारों के अनुसार जिस 508 किलोमीटर को पूरा करने के लिए अभी आठ घंटे लगते हैं, बुलेट ट्रेन उस दूरी को महज तीन घंटे में पूरा करेगी. मोदी सरकार ने इसके लिए जापान सरकार के साथ जो समझौता किया है, उसके अनुसार जापान ने इस परियोजना के लिए 88, 000 करोड़ रुपये का कर्ज भारत को महज़ 0.01% की दर पर 50 साल के लिए दिया है.
लेकिन किसी भी प्रोजेक्ट में होने वाली देरी से सरकार के खजाने पर जो बोझ पड़ता है, उसकी सारी मार आम आदमी पर ही पड़ती है जिसके टैक्स से ही उस नुकसान की भरप्पाई की जाती है. जब बुलेट ट्रेन का सपना पहली बार पीएम मोदी ने देखा था तब 2014-15 में इसकी कुल लागत का अंदाज़ा 98000 करोड़ रुपये लगाया गया था. साल 2020 तक परियोजना की लागत बढ़ कर 1 लाख 10 हज़ार करोड़ रुपये हो गई थी. जानकार मानते हैं कि उसके बाद कोरोना महामारी, वैश्विक अर्थव्यवस्था में गिरावट, महंगाई और भारत पर उसका असर- सभी कुछ को जोड़ लें, तो ये लागत और बढ़ गई है.
रेल मंत्रालय में मेंबर ट्रैफिक रह चुके श्रीप्रकाश के मुताबिक, "केंद्र सरकार में इस परियोजना को पूरा करने की इच्छाशक्ति तो दिखती है, लेकिन कोरोना महामारी और जमीन अधिग्रहण में देरी की वजह से परियोजना में देरी ज़रूर हुई है. 500 किलोमीटर से ज़्यादा दूरी की परियोजना में कम से कम पांच साल का वक्त लगता है, वो भी जमीन अधिग्रहण के बाद. अगर अगले दो साल में जमीन अधिग्रहण का काम पूरा हो जाता है तो साल 2029-30 तक ये परियोजना पूरी हो सकती है. और ऐसी सूरत में परियोजना की लागत भी 60 फीसदी के आसपास बढ़ जाएगी. यानी ये एक लाख 60-70 हज़ार करोड़ के बीच होगी.
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