यूपी में क्या किसी जाति या धर्म विशेष को किया जाता है टारगेट? एनकाउंटर के आंकड़े बता रहे ये सच्चाई
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में कहा था कि माफिया को मिट्टी में मिला देंगे. उसके पहले भी इस तरह के बयान वह दे चुके हैं. यहां तक कि जब पहली बार सत्ता संभाली तो अपराधियों को कहा कि यूपी छोड़ो या सरेंडर करो. इस बीच गंगा-यमुना में बहुत पानी बहा. पुलिस को एनकाउंटर की खुली छूट मिली तो जैसे झड़ी ही लग गई. एक मीडिया संस्थान ने दावा किया है कि पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक यूपी में पिछले छह साल में हरेक पखवाड़े एक एनकाउंटर हुआ है. यह एनकाउंटर पुलिस प्रशासन की चुस्ती का संकेत है या मानवाधिकारों के प्रति सरकार की सुस्ती का.
यूपी पुलिस को खुली छूट मिली
योगी आदित्यनाथ ने जब 2017 में कमान संभाली थी, तो उन्होंने बिल्कुल साफ कर दिया था कि अपराध और अपराधियों से सख्ती से निबटा जाएगा. उसके बाद पुलिस ने लगातार एनकाउंटर भी किए. बीच-बीच में कई मजेदार खबरें भी आती रहीं, जिसमें अपराधी गले में तख्ती डाल कर थाने में जाते थे कि हमें गिरफ्तार कर लो, लेकिन गोली न मारो. हालांकि, विपक्ष ने इसे 'ठोक दो' की नीति बताकर आलोचना भी की है. यह लेकिन तय है कि योगी सरकार ने एनकाउंटर के मामले में पुलिस के हाथ खोल दिए और उसी का परिणाम देखने को मिला है. उस नीति के कई आयाम हो सकते हैं लेकिन इस वक्त उत्तर प्रदेश में अपराधियों का एक अलग क्लब भी बन सकता है, जिसे पुलिस की गोली ठीक एक ही जगह लगी है- बाएं पैर के घुटने के पास. इसीलिए, कई बार इस बात पर भी चर्चा होती है कि यूपी पुलिस का निशाना बिल्कुल सटीक हो गया है. इन सबके इतर एक बात तो ये है कि योगी आदित्यनाथ ने जो आपराधिक गिरोहों के खात्मे का वायदा किया था, तो अब यूपी में कई संगठित आपराधिक गिरोहों का लगभग खात्मा हो गया है, उनकी हालत तो खराब हुई ही है.
यूपी में एनकाउंटर राज
इस बात में कहीं दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर राज हो गया है. हालांकि, पुलिस की कार्यशैली पर भी कई सवाल उठते हैं. अतीक अहमद का मामला ताजा है. वह पुलिस कस्टडी में थे. ढेरों पुलिसकर्मी घटनास्थल पर मौजूद थे, फिर भी एक गोली प्रतिकार में नहीं चली. पुलिस ने कोई जवाब नहीं दिया. अपराध बदस्तूर जारी हैं. जेलों में हत्याएं हो रही हैं. जिस तरह से मुन्ना बजरंगी की जेल में हत्या हुई, वह भी एक बड़ा सवाल है. आखिर सरकार जिस कानून-व्यवस्था का दावा करती है और एनकाउंटर को उसका एक जरिया बताती है, उस राज्य में बाकी जघन्य अपराध कैसे हो रहे हैं? अगर अपराधियों में डर है तो अतीक अहमद और अशरफ को गोली कैसे मार दी गयी, अगर अपराधियों में खौफ है तो मुन्ना बजरंगी की हत्या कैसे हो गई?
राज्य के डीजी ने एनकाउंटर का बचाव किया है और कहा है कि पुलिस केवल एनकाउंटर नहीं करती, लेकिन फिर पुलिस बताए न कि वो और क्या करती है, उसकी और क्या रणनीति है? उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की बात करें, तो लगभग रोजाना एक-दो हत्याएं हो रही हैं. अभी पिछले दिनों भीड़ भरे बाजार में ताबड़तोड़ फायरिंग हुई और अपराधी भाग गए. खुद मुख्यमंत्री के गृह जनपद में हत्याओं का सिलसिला जारी है, अपराध बेलगाम हैं, प्रयागराज क्राइम कैपिटल की तरह उभर कर आया है. एनकाउंटर के साथ पुलिस की और क्या रणनीति है?
पुलिस राज में मानवाधिकार...
मानवाधिकार पुलिस राज में कभी नहीं होते हैं. बहुत स्पष्ट बात है कि पुलिस राज में इसकी कोई जगह नहीं होती. मानवाधिकार को जब कंट्रोवर्शियल बना दिया गया है, जो लोकतांत्रिक, मानवीय और संवैधानिक सिद्धांत है. हालांकि, भाजपा की ये पुरानी शैली है. आप यूपी में जैसे ही मानवाधिकार की बात करेंगे, वो अपराध की बात करने लगेंगे. बीजेपी के लिए अपराधियों, आतंकवादियों की बात नहीं उठती है. तो, अब मानवाधिकार का प्रश्न उठाना ही इस वक्त बेमानी है. यह प्रोपैगैंडा का एक हिस्सा तो खैर है ही. जैसे, छोटे-छोटे रंगदार जो थे, बदमाश-गुंडे जो थे, वे गायब हो गए हैं. एनकाउंटर को खैर इस प्रचार का हिस्सा तो बताया ही जाता है कि अपराधियों पर नियंत्रण की कोशिशें जारी हैं. फिलहाल, तो एक जनभावना है ही कि अपराध को लेकर सरकार सख्त है.
हालांकि, इसको अगर वोटबैंक की पॉलिटिक्स में ट्रांसलेट करें, 2024 के चुनाव का अंदाजा लगाएं तो एकाध बातें याद रखनी चाहिए. 2017 में जितनी सीटें मिली थीं, बीजेपी को, उतनी सीटें 2022 में नहीं मिलीं. अभी हाल ही में जो निकाय चुनाव हुए हैं, उसमें मेयर की सारी सीटें भाजपा ने भले जीत ली हों, लेकिन जैसे-जैसे नीचे आएंगे, तो देखेंगे कि उसकी सीटें बहुत कम हैं. कुल मिलाकर वह 32-33 फीसदी ही सीटें जीत पाई हैं. इसके बावजूद वह चुनाव में कानून व्यवस्था, अपराध नियंत्रण को एक मुद्दा तो बनाएगी ही. भाजपा का अभी जो महाजनसंपर्क अभियान चल रहा है, उसमें बताने के लिए उसके पास यूपी में तो यही सबसे बड़ी बात है. जनता इसको कितना पसंद कर रही है, वह अलग बात है. शहरों में तो इसका फायदा होगा, बात हो रही है, लेकिन गांव के स्तर पर दूसरे सवाल खड़े हो जाते हैं. यही हमें निकाय चुनाव के नतीजों में भी देखने को मिलता है. अब गांव में थानों में फैले भ्रष्टाचार पर भी बात होती है, यहां तक कि यूपी में तो यह कहावत चल रही है कि चूंकि खतरा बढ़ा है, तो रेट भी बढ़ गए हैं. दूसरी बात ये है कि विकास की गाथाएं आप भले जितने भी गा लें, लेकिन जमीनी स्तर पर काम अभी कम दिख रहा है.
एनकाउंटर या बदला
योगी सरकार में जब अपराध नियंत्रण की चर्चा शुरू हुई थी, तो अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी सहित पश्चिम के ऐसे ही लोगों को निशाने पर रखा गया. दूसरे, इन्हीं दो बातों को स्मार्टली पिक किया गया. आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में जातिवाद के खिलाफ इस सरकार को मैंडेट मिला था, लेकिन स्थानीय स्तर पर अगर आप तैनाती देखें तो मुख्यमंत्री के सजातीयों की तैनाती बहुत हुई है. अल्पसंख्यकों या हिंदुओं के भीतर दूसरी जातियां एनकाउंटर में अधिकांशतः निशाने पर रही हैं, इसमें कोई शक नहीं है.
अभी आप देख लीजिए तो उत्तर प्रदेश के टॉप 20 माफिया में राजूपत या क्षत्रिय बिरादरी के बहुतेरे नाम होंगे. विपक्ष अगर कोई बात उठा रहा है, तो कुछ तो वहां तथ्य है ही. आप जैसे ब्रजेश सिंह को देखिए, मुख्यमंत्री के गृह जनपद में सुधीर सिंह को देखिए, रघुराज प्रताप उर्फ राजा भैया को देखिए, तो इनके खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई होती दिखाई नहीं पड़ती. वैसे ही, अपराधी तो अपराधी होता है, लेकिन जब आंकड़े आपकी मंशा पर सवाल उठाने लगें, तो फिर दिक्कत तो होती ही है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)