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व्यंग्य: ये राजनीति का 'टोंटी काल' है, जो जितनी टोंटियां अपने पाइप में फिट कर लेगा उतना पारंगत कहलाएगा
राजनेता मीडिया के सामने आता है तो खुलासे करता है. विरोधियों की पोल खोलने वाला दस्तावेज दिखाता है. स्टिंग ऑपरेशन सामने रखता है. विरोधियों के कुकर्मों की सीडी दिखाता है. लेकिन टोंटी !! टोंटी कौन दिखाता है भाई ? लेकिन राजनीति का स्तर देखिए कि अब टोंटियां दिखाई जाने लगी हैं. उत्तर प्रदेश के एक नेताजी पर आरोप लगा कि जबरन उनसे बंगला खाली कराया गया तो वह बाथरूम की टोंटी तक उखाड़ ले गए, स्विमिंग पूल में मिट्टी भर गए, महंगे स्विच बोर्ड निकाल ले गए वगैरह वगैरह. इन आरोपों से आहत नेताजी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और टोंटी दिखाने लगे. 'चपंडूक टाइम्स' जैसे अखबार और 'मुर्दों तक' जैसे न्यूज चैनल के कई पत्रकार सोचकर आए थे कि कोई शानदार मसालेदार स्टिंग वगैरह देखने को मिलेगा लेकिन देखने को मिली सिर्फ टोंटी.
कोई भी बंदा, जो अपने पैसे से टोंटी लगवाए, एसी लगवाए, इटालियन मार्बल लगवाए, लाखों के स्विच लगवाए, वो बंगला छोड़ेगा तो उखाड़ेगा ही. राजनेता की जान वैसे भी बंगले नामक तोते में होती है. राजनेताओं का अलिखित नारा होता है-प्राण जाए पर बंगला न जाए. लेकिन-बंगला जाए और टोंटी भी चली जाए-ये कोई अच्छी बात नहीं. तो उखाड़ ली.
मेरी चिंता टोंटी उखाड़ने को लेकर नहीं, भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखाने को लेकर है. अब अगली बार कोई नेता टॉयलेट का लोटा उठा लाएगा या कोई वीर बहादुर कमोड ही उखाड़ लाए तो फिर क्या किया जाएगा? राजनीति का इतना पतन. छी छी छी. सनी भाईसाहब ने हैंडपंप उखाड़ा तो कितना नाम हुआ था उनका. दूर विदेश तक उनकी राष्ट्रवादिता का डंका बजने लगा. आज भी जब हम हिंदुस्तानियों को व्हाट्सएप पर पाकिस्तान की 'ऐसी-तैसी' करनी होती है तो हम सनी के उखड़े हैंडपंप की शरण में जाते हैं. लेकिन टोंटी !!!
नेताजी ने टोंटी दिखाई तो कई पत्रकार हाथ में लेने से घबरा गए. पता नहीं कहां की टोंटी है. स्नानाघर की या शौचालय की ? कुछ पत्रकार इसलिए डर गए कि कहीं नेताजी ने टोंटी फेंककर दे मारी तो पत्रकार बेचारा टें बोल जाएगा. यानी क्या नेताजी टोंटी हाथ में लेकर बाकायदा धमका रहे थे कि कुछ भी ऐसा वैसा पूछा तो बेटे आज तुम गए. फिर कई पत्रकार टोंटी के भीतर बोटी का आकलन करने लगे. मसलन कई नेता स्विस बैंक में अकाउंट होने के बावजूद सहकारी बैंक की पासबुक लहराते हुए दावा करते हैं कि उनके पास पैसे नहीं हैं, वैसे ही हो सकता है कि असल टोंटी कई कई लाख की हों लेकिन सस्ती टोंटी प्रदर्शित कर खुद को समाजवादी दिखाने की कोशिश हो. यूं सबका अपना अपना समाजवाद है और इन दिनों खुद को समाजवादी दिखाने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ती है. कई राजनीतिक दल खुद को समाजवादी बताने-दिखाने का उपाय पूछने के लिए पहले करोड़ों रुपए एडवरटाइजिंग एजेंसी को देते हैं. एजेंसियों दिनों दिन रिसर्च कर बताती है कि इन दिनों मार्केट में कैसे समाजवादियों की जरुरत है. संभव है नेताजी ऐसे ही किसी उपाय पर अमल कर रहे हों.
इन दिनों राजनीति का 'टोंटी युग' चल रहा है, जिसमें तूती बोले न बोले टोंटी बोलने की पूरी संभावना है. राजनेता जानते और मानते हैं कि अपने पॉलिटिकल पाइप में कब किस धातु, किस आकार, किस ब्रांड की टोंटी किन हालात में फिट करनी पड़ जाए-'ईश्वर भी नहीं जानता. त्रिया चरित्रम, राजनेतास्य भाग्यम, देवो न जानति कुतो गठबंधनम' आज की राजनीति का ब्रह्मवाक्य यही है. जो राजनेता जितनी जल्दी अलग अलग तरह की टोंटी को अपने पाइप में फिट करने के खेल में पारंगत हो जाता है, उसकी दुकान उतनी ही लंबी चलती है. उसे ईश्वर प्रदत्त वरदान रहता है कि वो कभी विपक्ष में नहीं रहता. उसके कार्यकर्ता कभी ठेकों से महरुम नहीं रहते. बेटे का मंत्रीपद सदा बना रहता है. घर में जगमग दिवाली 365 दिन रौशन रहती है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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