हम पत्रकारों को जितना आने वाले वक्त से प्यार होता है उतना ही गुजरे वक्त से भी स्नेह होता है. जैसे आज जब लिखने बैठा हूं तो सामने के कैलेंडर पर 12 दिसंबर 2020 का पन्ना फड़फड़ा रहा है मगर मुझे दो साल पहले का 12 दिसंबर 2018 याद आ रहा है. उस दिन भोपाल में तब सत्ता परिवर्तन की आहट थी. सुबह के ग्यारह बजे थे और हम टीवी पत्रकार राजभवन के सामने खड़े होकर देख रहे थे कि प्रवेश द्वार से कमलनाथ का काफिला अंदर प्रवेश कर रहा था तो निकासी वाले द्वार से शिवराज सिंह चौहान का काफिला बाहर आ रहा था.


कमलनाथ सरकार बनाने का दावा करने जा रहे थे तो शिवराज इस्तीफा देकर निकल रहे थे. हमेशा की तरह शिवराज के चेहरे पर मुस्कुराहट थी उन्होंने हमारे कैमरों के सामने उंगलियों से वी यानि कि विक्ट्री का निशान बनाकर कर कहा, “नाउ आई एम फ्री, इस्तीफा देकर आ गया हूं.”


11 दिसंबर की देर रात तक चली मतों की गिनती के बाद जो परिणाम आये उनमें बीजेपी 109 तो कांग्रेस 114 सीटें पा गयी थीं. बीजेपी चुनाव हारी नहीं थी तो कांग्रेस भी चुनाव जीती नहीं थी. कांग्रेस बहुमत पा नहीं सकी थी तो बीजेपी संख्या में पिछड़ी हुयी थी. मगर बीजेपी सत्ता से पंद्रह साल बाद हट रही थी तो कांग्रेस पंद्रह सालों में सत्ता पर काबिज होने जा रही थी. राजनीति के लिहाज से ये बड़ा बदलाव था.


दो साल बाद अब देख रहा हूं तो आज की तारीख में दो साल पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भले ही कार्यकारी हों शिवराज सिंह चौहान ही थे तो वो आज भी मुख्यमंत्री हैं. वो जिस मुख्यमंत्री निवास में रह रहे थे, आज भी वहीं रह रहे हैं. कमलनाथ दो साल पहले जिस पद पर थे, आज भी वहीं हैं. यानि कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष निवास आज भी उनका वही है जो पहले था यानि कि सिविल लाइंस का बड़ा बंगला. अब सवाल यही है कि इन दो साल में क्या कुछ बदला है. बदला भी है या नहीं. शायद जरा भी नहीं!


प्रदेश की राजनीतिक इतिहास में पंद्रह महीने का वक्त नगण्य सा ही होता है. इतिहास के पन्ने पलटते हुये जब देखा जायेगा तो 2018 में मध्य प्रदेश की पंद्रहवीं विधानसभा के लिये हुये चुनावों में बहुमत के करीब आकर कांग्रेस ने सरकार बनायी थी और बीजेपी को पंद्रह साल के शासन के बाद सत्ता छोड़नी पड़ी थी. शिवराज सिंह चौहान की मुख्यमंत्री पद से विदाई हुयी थी और कमलनाथ प्रदेश के नये मुख्यमंत्री बने थे. मगर पंद्रह महीने में ही फिर सब बदल गया और फिर वैसा ही हो गया जैसा पंद्रह महीने पहले था. यानि कि शिवराज फिर मुख्यमंत्री बने और कमलनाथ फिर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष ही रह गये.


कांग्रेस के ‘अच्छे दिन’ पंद्रह महीने ही चल पाये और कांग्रेस विधायक मध्य प्रदेश में विधानसभा की सीटों पर अध्यक्ष की बाईं तरफ से फिर दाहिने तरफ की सीट पर आ गये. कांग्रेस का सत्ता सुख इतने कम दिन क्यों चला और इसके लिये कौन जिम्मेदार था, किस नेता ने क्या गलती की, शायद इसकी चर्चा आने वाले दिनों में कम ही की जायेगी. क्योंकि सफलता के सौ बाप होते हैं, हारने वाला अकेला ही होता है और हारने वाले के साथ कोई खड़ा नहीं होता, यहां तक कि इतिहास भी नहीं.


मगर हमारे लिये ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, सिर्फ दो साल ही हुये हैं. इसलिये कुछ नये सिरे से सोचा जा सकता है कि कांग्रेस ने 2018 में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बेहतर तरीके से चुनाव प्रचार कर चुनावी रणनीति तैयार कर और कर्जमाफी का पंजाब विधानसभा चुनावों में आजमाया हुआ नुस्खा सामने रखकर चुनाव लड़ा और बीजेपी को संख्या में पीछे छोड़ दिया था. तब के कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने तीनों चुनावी प्रदेशों में दो-दो नेताओं को आगे कर चुनाव लड़ा था. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव तो राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट और मध्यप्रदेष में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया. युवा और अनुभवी नेता का ये ब्लेंड काम आया और जनता ने बीजेपी को छोड़ कांग्रेस पर भरोसा किया मगर मुख्यमंत्री पद पर किसे चुनें इसमें राहुल गांधी ने अनुभव को आगे किया ओर युवा नेता से इंतजार करने को कहा.


राहुल ने सिंधिया और कमलनाथ के हाथों में हाथ डाल जो फोटो ट्वीट की उसमें रूसी महान लेखक लियो टॉलस्टॉय का चर्चित कोट लिखा, “द टू मोस्ट पावरफुल वॉरियर्स आर पेसेंस एंड टाइम”, मतलब समय और धीरज से ज्यादा ताकतवर कोई नहीं. इशारा साफ था कि सिंधिया को धीरज तो कमलनाथ को वक्त के साथ चलने की नसीहत थी इस ट्वीट में. मगर गलती दोनों नेताओं से हो गयी.


कमलनाथ वक्त के साथ कदमताल कर चल नहीं पाये अपने को वक्त के मुताबिक बदल नहीं पाये और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी धीरज की सीख भुला दी. दल बदला और सरकार बदल दी. धीरज तो राजस्थान में सचिन पायलट ने भी छोड़ दिया था. वो तो कांग्रेस की किस्मत अच्छी थी वरना वहां भी आज वसुंधरा राजे सिंधिया का राज आ गया होता.


कल्पना करिये यदि राहुल ने धीरज का पाठ कमलनाथ को और समय का पाठ सिंधिया को पढ़ाकर यहां मध्य प्रदेश की कमान सौंपी होती तो फिर क्या बीजेपी की सत्ता में पंद्रह महीनों में वापसी होती?


कमलनाथ की वफादारी और अनुभव का फायदा संगठन को दिल्ली में मिल रहा होता और पार्टी अहमद पटेल के इस तरह असमय जाने से सदमे में न होती. और फिर सिंधिया यहां नई ऊर्जा ओर जोश से पंद्रह महीने बाद भी सरकार चला रहे होते. सोचिये, सोचने में भला क्या जाता है?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)