पश्चिम बंगाल में फिलहाल पंचायत चुनावों में जारी हिंसा को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है. मुख्य विपक्षी दल बीजेपी सहित कांग्रेस और सीपीएम ने भी हिंसा की घटनाओं को देखते हुए केंद्रीय बलों की मांग की है. यहां तक कि खुद हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार से स्पष्टीकरण मांगा. राज्य सरकार जब सुप्रीम कोर्ट गयी तो मंगलवार 20 जून को फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को सही ठहराया. साथ ही, बंगाल सरकार को विधानसभा चुनाव में हिंसा की याद भी दिलाई. 


सुप्रीम कोर्ट पर भी तंज 


बंगाल हिंसा पर बात करें, उससे पहले राष्ट्रपति शासन की मांग को समझते हैं. इसको देखने का एक नजरिया यह भी हो सकता है कि संघीय ढांचे में जब भी विरोधी दलों को मौका मिलता है, तो वे इस तरह की बात करते हैं. खासकर, जिस पार्टी की केंद्र में सरकार होती है, उनकी प्रादेशिक शाखा जोरशोर से यह मांग उठाती है. यह तो एक पैटर्न है, लेकिन हिंसा की जो बात है बंगाल में, खासकर चुनाव के समय वह जरूर चिंता का विषय है. वह चिंता का विषय इसलिए भी है कि यहां की हिंसा का जो मसला है, वह बाकी जगहों से थोड़ा अलग है. यहां की राज्य सरकार के मन में थोड़ा भय या चोर भी है. इसका एक उदाहरण यह भी देखिए कि जब यहां कोलकाता हाईकोर्ट ने खुद हिंसा पर चिंता जताई और इनसे संवेदनशील बूथों की संख्या और सूची मांगी, तो ये हीला-हवाली करने लगे.



इतना ही नहीं, जब ये इसे रोकने सुप्रीम कोर्ट तक गए, तो वहां भी इनको मुंह की खानी पड़ी. उसके बाद इनके (यानी टीएमसी) के जो नेता हैं, उनकी कुंठा और खीझ तब देखने को मिली, जब इन्होंने कहा कि हां ठीक है, अब बंगाल में शांति-सेना भी बुला ही ली जाए. सुप्रीम कोर्ट ने तो बाकायदा यह कहा कि चुनावी हिंसा जिस स्तर पर हो रही है, उसमें निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकते. दूसरा सवाल सुप्रीम कोर्ट ने यह किया कि जब आप पड़ोसी राज्यों से सुरक्षा बल मंगा रहे हैं, तो फिर भला आपको एक जगह से केंद्रीय सुरक्षा बल मंगाने में क्या दिक्कत है? राज्य सरकार को हालांकि पहले से ये पता था कि इनका विरोध टिकेगा नहीं. चुनाव कराने का काम तो चुनाव आयोग का है, कोर्ट ने भी यही बात कही और आपको अगर हिंसा रोकने में सफलता नहीं मिली, तो यह कहना जायज भी है. फिर, टीएमसी ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भी तंज कसा. तो, झोल तो साफ-साफ दिखता है. 


स्थानीय पुलिस सत्ता के साथ! 


इसका एक कोण यह भी है कि स्थानीय प्रशासन या पुलिस होगी तो उसको ये अपने हिसाब से मैनेज कर लेंगे. यही बात सारे विपक्षी दल भी कह रहे हैं. चुनाव के परिणाम की तो बात अभी रहने दें, लेकिन पंचायत चुनाव हो या कुछ भी, हिंसा की बात तो अभी भी सुनने में आ ही रही है. यह तो मानना ही पड़ेगा न कि चुनाव चाहे किसी स्तर के हों, उसमें हिंसा तो होती ही है. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 की चुनावी हिंसा का भी रेफरेंस दिया है. जब मंगलवार 20 जून को सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए उसे खारिज किया तो बाकायदा यह कहा कि बंगाल सरकार का रिकॉर्ड रहा है 2013 में और 2018 में भी हिंसा का और इसी वजह से हाईकोर्ट ने यह बात कही और वह बात बिल्कुल जायज है.


हिंसा का एक और संदर्भ हमें देखना चाहिए, वह है बीजेपी का उभार और पोलराइजेशन. जब सीपीएम का पतन हुआ और जो कैडर थे, तो वे जो इधर-उधर गए, तो उसी पैटर्न से वह हिंसा भी करते हैं, जैसे पहले करते थे. बीजेपी का जब उभार हुआ और बहुत तेजी से हुआ, तो चुनाव के बहुत पहले, रामनवमी में जबकि रमजान भी चल रहा था, तब भी हिंदू संगठनों ने जुलूस निकाला और हिंसा हुई. बंगाल में राम को मानते हैं, लेकिन पूजा शक्ति की होती है. यहां रामनवमी में जब जुलूस निकला तो कुछ जगहों पर, ध्यान रखें पूरे राज्य में नहीं, कुछ जगहों पर हिंसा हुई. उसकी जो जांच करनेवाली एजेंसी है एनआईए या सीबीआई, उसने यह बयान दिया है कि राज्य की पुलिस सहयोग नहीं दे रही है, फाइल्स नहीं दे रही है. इसका मतलब यह तो है कि राज्य सरकार पर जो बार-बार ऊंगलियां उठ रही हैं, वह कहीं न कहीं आपको जवाबदार तो बनाती है. पिछले चुनाव में भी डायमंड हार्बर में जो हिंसा हुई, उसकी भी जिम्मेदारी तो लेनी पड़ेगी न. आप केवल विपक्ष पर ऊंगली उठाकर नहीं रह सकते. 


तोलेबाजी और तुष्टीकरण के भी आरोप


ममता बनर्जी पर कट मनी या तोलाबाजी के भी आरोप लगते रहे हैं. हालांकि, उनको सिद्ध नहीं किया जा सका है, लेकिन ग्राउंड पर भी ऐसी बातें चलती हैं. पुलिस का बेजा इस्तेमाल करना, अपनी पार्टी के लोगों को सारी सुविधाएं देना, शहरों में घर बनाने से लेकर बाकी कामों तक पर कट मनी के आरोप उन पर लगते ही रहे हैं. हालांकि, सरकार इसको सिरे से नकारती है, लेकिन जनता के स्तर पर बात होती ही है. दो साल पहले उन्होंने दुर्गा-विसर्जन को रोक कर मुसलमानों के एक मजहबी जुलूस को निकालने की आज्ञा दी थी. तो, एक पक्ष का आरोप हमेशा से ही यह लगता ही रहा है. लोगों में एक डर का तो माहौल दिखता है, कई बार. बंगाल में टीएमसी पर लगातार हिंसा का आरोप लगता रहा है, उससे पहले सीपीएम पर लगता रहा है. कुल मिलाकर कहें तो हिंसा बंगाल के चुनावों की सबसे बड़ी समस्या है. इस बार का चुनाव अभी भी, यानी हम अगर निकाय चुनाव की बात करें तो वह सत्तापक्ष के प्रति रुझान है. हालांकि, ग्रामीण समाज में भी अब मीडिया का पेनेट्रेशन बहुत हुआ है. तो, हिंसाग्रस्त इलाकों में बाजी पलट भी सकती है. फ्री एंड फेयर चुनाव हों, तो  फिलहाल सीपीएम जो खड़ा होने की कोशिश कर रही है, यह द्वंद्व चलेगा, लेकिन फिलहाल तो इसकी भविष्यवाणी करना बहुत उचित नहीं है. 


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