मौजूदा सरकार के सात साल पूरे, जानें पीएम मोदी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में अंतर
प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के सात साल पूरे हो गये हैं. सात सालों की लोग अपने अपने हिसाब से समीक्षा करने में लगे हैं. इसके साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी सात सालों से भी तुलना की जा रही है. ऐसी ही तुलना आइए हम भी करते हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार के आखिरी सात साल यानि 2007 से 2014 तक का शासनकाल और मोदी सरकार का 2014 से 2021 तक का शासनकाल. तिजारत से लेकर तक सियासत के मोर्चे पर क्या हाल रहा दोनों सरकारों का इसका हिसाब लगाते हैं .
2011 का अन्ना हजारे का आंदोलन और 2020 से चल रहा किसान आंदोलन. क्या दोनों आंदोलन में किसी तरह की समानता देखी जा सकती है. अन्ना का आंदोलन मनमोहनसिंह सरकार का घोटालों के खिलाफ था, जनलोकपाल बनाने की मांग को लेकर था. इस आंदोलन से मनमोहन सिंह सरकार की साख पर बट्टा लगा था. कांग्रेस की छवि पूरे देश में भ्रष्ट सरकार की बनी थी जिसका सियासी फायदा बीजेपी ने देश भर में उठाया था. साफ है कि 2014 में कांग्रेस की हार की एक बड़ी वजह अन्ना का आंदोलन रहा जिसने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेन्द्र मोदी को और दिल्ली राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अरविंद केजरीवाल को बैठाने में बड़ी भूमिका निभाई.
मोदी सरकार को अपने शासन के सातवें साल में किसान आंदोलन से दो चार होना पड़ रहा है जो सातवें महीने में प्रवेश कर चुका है. देश में चौदह करोड़ किसान है और किसानों का एक वर्ग कृषि संबंधी तीन कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं. एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीद को लीगल राइट घोषित करने की मांग कर रहे हैं. चार महीनों से दोनों के बीच बातचीत बंद हैं और छह सात महीने बाद यूपी में विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लागू हो जाएगी.
यूपी में पंचायत चुनाव में बीजेपी की हार को जानकार किसान आंदोलन से जोड़ कर देख रहे हैं . कुछ महीने पहले पंजाब में सात नगर पालिकाओं में कांग्रेस की एकतरफा बड़ी विजय को भी किसान आंदोलन का प्रसाद माना जा रहा है. ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या किसान आंदोलन कांग्रेस को पोलिटिकल कवारंटाइन से उसी तरह निकालेगा जिस तरह अन्ना आंदोलन ने मोदी को गुजरात से बाहर आल इंडिया विस्तार दिया था. अब सच तो यह है कि किसान आंदोलन का असर उतना व्यापक नहीं है जितना अन्ना आंदोलन के समय था लेकिन किसान आंदोलन कोरोना काल में हो रहा है. कोरोना अपने साथ आर्थिक मंदी भी लेकर लाया है. यह चुनौती ज्यादा बड़ी है.
वैसे आर्थिक सुस्ती का शिकार मनमोहन सिंह सरकार को भी होना पड़ा था. 2008 में दुनिया भर में आर्थिक सुस्ती आई थी. तब मनमोहन सिंह ने डिमांड यानि मांग बढाने पर जोर दिया था. मनरेगा के बजट में इजाफा किया था. राइट टू फूड यानि भोजन के अधिकार के तहत देश की 82 करोड़ आबादी को पांच किलो चावल तीन रुपये किलो की दर से या गेंहू दो रुपये किलो की दर से देना शुरु किया था. मिड डे मील योजना को पांचवी से बढ़ाकर आठवीं कक्षा तक कर दिया था. कच्चे तेल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ने के बावजूद देश में उस अनुपात में पेट्रोल डीजल के रेट बढने नहीं दिये थे.
मोदी सरकार की बात करें तो कोरोना ने आर्थिक सुस्ती को आर्थिक मंदी में बदल दिया है. विकास दर पिछले साठ सालों में माइनस में गयी है. मोदी सरकार ने सप्लाई यानि आपूर्ति बढ़ाने पर ज्यादा जोर दिया है. इसके लिए कारपोरेट जगत को डेढ़ लाख करोड़ की रियायतें दी गयी. बीस लाख करोड़ रुपए के पैकेज में से चार लाख करोड़ रुपये सूक्ष्य लघु और मध्यम उद्योग यानि एमएसएमई के लिए रखे. इसके साथ ही मनरेगा का बजट साठ हजार करोड़ रुपये से बढ़ाकर एक लाख दस हजार करोड़ कर दिया. किसानों को छह हजार रुपये सालाना देने शुरु किये. लेकिन न तो उद्योग सप्लाई बढ़ा रहा है और न ही आम आदमी जेब का पैसा खर्च कर मांग बढ़ाने में सहयोग कर रहा है. कुल मिलाकर विश्वास की कमी दिखाई दे रही है.
मनमोहन सिंह सरकार को भ्रष्टाचार ले डूबा था. राहुल गांधी ने पिछले लोकसभा चुनाव में चौकीदार चोर है का नारा उछाला था लेकिन वो नारा खोटा सिक्का साबित हुआ. एक लाख 76 हजार करोड़ का टूजी घोटाला, एक लाख 86 हजार करोड़ का कोलगेट घोटाला. इन घोटालों की गूंज से मनमोहन सिंह सरकार उबर ही नहीं पाई. उस पर विदेशों में जमा काले धन का मसला. हालत ये थी कि मनमोहन सिंह सरकार की साख को बचाने के बजाए कोशिशें यही हो रही थी कि इसकी आंच सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर नहीं आए. इस बीच मनमोहन सिंह ने अमेरिका से परमाणु उर्जा को लेकर एतिहासिक समझौता किया. यहां तक इसके लिए अपनी सरकार भी दांव पर लगा दी. इस समझौते के बाद ही अमेरिका ने भारत पर पूरी तरह यकीन करना शुरु किया और यूरोपियन यूनियन से भी हमारे संबंध प्रगाढ़ हुए. अमेरिका और अन्य देशों से नये आर्थक, सामरिक और कूटनीतिक रिश्ते बने. लेकिन इन पर छा गया घोटाला का साया और बीजेपी का प्रचार.
इसके विपरीत प्रधानमत्री मोदी की छवि एक बेहद ईमानदार राष्ट्रभक्त प्रधान सेवक की रही है जो दिन में बीस घंटे काम करता है. पॉलिसी पैरालिसिस की जगह ईज आफ डूइंग बिजनेस पर जोर रहा. गर्वनमेंट हैज नो बिजनिस इन डूइंग बिजनेस, मिनिमम गर्वनमेंट मैक्सीमम गर्वेनेंस जैसे नये नारे ईजाद हुए. निजीकरण को बढ़ावा दिया गया. सरकारी उपक्रम में विनिवेश के साथ साथ उन्हे बेच डालने की पहल की गयी. इसमें एयर इंडिया से लेकर बीपीसीएल तक शामिल हैं. रेलवे में भी निजीकरण की बड़े पैमाने पर शुरुआत हुई. यानि मोदी सरकार ने संदेश दिया कि वो तिजारत और सियासत के संगम को पूरी तरह से बदल देना चाहती है.
प्रधानमंत्री मोदी के लिए माना जाता है कि वो 24*7 राजनीति करते हैं. पंचायत से लेकर पार्लियामेंट के चुनाव को पूरी संजीदगी से लेते हैं. सरकार के हर फैसले पर जनता की मुहर चुनाव के जरिए लगवाने में यकीन रखते हैं चाहे नोटबंदी के बाद की विधानसभा चुनावों में जीत हो या जीएसटी के बाद की विजय. बीजेपी ने हमेशा इसी तर्क को सामने रखा है. यही वजह है कि बीजेपी मोदी सरकार के सत्ता में पहले साल के समय सात राज्यो में थी वहीं बीजेपी सातवें साल में अपने सहयोगियों के साथ 17 राज्यों में राज कर रही है. लोकसभा में अपने दम पर तीन सौ से ज्यादा सांसद उसके पास हैं और राज्यसभा में भी उसने पहली बार कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया है. प्रधानमंत्री मोदी खुद विघानसभा चुनावों के समय बडी संख्या में रैलियां करते हैं और उनके चेहरे को ही सामने रखकर बीजेपी चुनाव लड़ती रही हैं.
अब इतना भारी बहुमत होने का फायदा क्या देश को सात सालों में मिला. क्या बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधार हुए. क्या संघ के एजेंडे पर मोदी सरकार के सात साल खरे उतरे मनमोहन सिंह मिली-जुली सरकार की मजबूरियों के बीच आर्थिक सुधार की कोशिशें करते रहे. एक तरफ योजना आयोग की मदद ली और दूसरी तरफ सोनिया गांधी की राष्ट्रीय परामर्श परिषद एनएसी की सलाह. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) की शुरुआत पायलट प्रोजेक्ट के रूप में की गयी. सोनिया गांधी की एनएसी का असर इतना ज्यादा था कि कहा जाने लगा कि मनमोहन सिंह सरकार तो दरअसल 'झोलाछाप' लोग ही चला रहे हैं. झोलाछाप यानि स्वयंसेवी संगठनों से जुडे लोग. खैर, जीएसटी पर सभी राज्यों को एक मंच पर लाने की असफल कोशिशें हुईं. पेट्रोल और डीजल के रेट डी लिंक किये गये. भोजन के अधिकार और मनरेगा के जरिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जान डालने के प्रयास हुए. मनरेगा को ग्रामीण इलाकों में गरीबी उन्मूलन की दुनिया की सबसे बड़ी योजना बताया गया. 27 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से निकाला गया.
उधर प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल को नरम बनाने की पहल के साथ अपने कार्यकाल की शुरुआत की और इसमें वो असफल रहे. इसी दौरान उनपर सूट-बूट की सरकार के आरोप लगे. खैर, डीबीटी, हवाला कानून में सख्ती, भ्रष्टाचार निरोधक कानून को मजबूत बनाना जैसे आर्थिक सुधार किये गये. योजना आयोग की जगह नीति आयोग बनाया गया. पहले सात सालों में ही नोटबंदी से लेकर जीएसटी को हमने देखा. श्रम कानूनों में बदलाव की पहल की गयी लेकिन फिर भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच के विरोध के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. रक्षा ले कर अन्य क्षेत्रों को एफडीआई के लिए खोल दिया गया. इस बीच सात सालों में उज्जवला, आवास योजना, शौचालय बनाना, उजाला योजना आदि योजनाएं चलाई गयी जिसका लाभ भी चुनावों में मिला. सातवें साल में कृषि से जुड़े तीन कानून बनाए गये लेकिन छह महीनों से किसान आंदोलन के चलते इन कानूनों को लागू नहीं किया जा सका. जानकारों का कहना है कि भारी बहुमत, सरकार और संगठन का साथ, संघ का समर्थन, बिखरा विपक्ष यानि सारे फैक्टर मोदी सरकार के साथ थे लेकिन जिस तेजी से आर्थिक सुधार करने की जरुरत थी वैसी रफ्तार पकड़ी नहीं जा सकी.
लेकिन सात सालों में मोदी सरकार ने हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. मुसलमानों में लगातार तीन बार तीन तलाक बोलने के खिलाफ कानून लाया गया. कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाई गयी. यहां तक कि जम्मू कश्मीर को एक झटके में केन्द्र शासित राज्य बना दिया गया. नागरिकता संशोधन कानून लाया गया. नागरिकों की पहचान के लिए नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन यानि एनआरसी देश भर में लागू करने की बात बार बार की गयी. इस बीच राम मंदिर के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मोदी सरकार को बड़ी राहत दी. बहुत से राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून को लाया गया या पहले से मौजूद कानून को और ज्यादा सख्त बनाया गया. गोकसी के खिलाफ कानून लाए गये. अब समान नागरिक संहिता यानि यूनिफार्म सिविल कोड की बात हो रही है.
मनमोहन सिंह ने सत्ता से जाते जाते कहा था कि समकालीन मीडिया और विपक्ष के मुकाबले इतिहास उनके प्रति ज्यादा नरम रुख अपनाएगा. विपक्ष से उनका आशय शायद बीजेपी या यूं कहिए उस समय प्रधानमंत्री पद के दावेदार मोदी से रहा होगा. अब यही मोदी मनमोहन सिंह की कुर्सी पर हैं. पता नहीं कि मोदी जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो गुजर चुके सात सालों के बारे में क्या सोचते हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)