जब से प्रधानमंत्री सीजन-2 के प्रसारण की घोषणा हुई है तब से टेलीविजन की दुनिया के अंदर-बाहर एक अलग सी उत्सुकता देखी जा रही है. 'प्रधानमंत्री' के पहले सीजन को अभूतपूर्व सफलता मिली. न्यूज टेलीविजन इतिहास में प्रधानमंत्री -1 मिल का पत्थर बन गया. इस सीरीज से शेखर कपूर की टेलीविजन में वापसी हुई. शेखर कपूर, मासूम, मिस्टर इंडिया, बैंडिट क्यून जैसी हिट फिल्म बनाने के बाद हॉलीवुड की ओर मुड़े. उन्होंने एलिजाबेथ जैसी फिल्म बनाई जिसे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया. ग्लोडन ग्लोब , एवार्ड से सम्मानित हुए.


शेखर कई बार बातचीत के दौरान कहते हैं, "अरे ये क्या हुआ. ट्विटर हो या एयरपोर्ट हर जगह मुझसे प्रधानमंत्री सीरीज के बारे में पूछा जाता है." बॉलीवुड से जुड़े बहुत कम डायरेक्टरों को शेखर कपूर जैसी ख्याति मिली है. लेकिन शेखर कपूर कभी यह मानने से गुरेज नहीं करते कि 'प्रधानमंत्री' सीरीज ने उन्हें अलग तरह की पहचान दी है. शेखर , 'प्रधानमंत्री' के कैसे हुए या 'प्रधानमंत्री' शेखर का कैसे हुआ? इसके पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है.


2013 में जब हम प्रधानमंत्री सीरीज बना रहे थे तब बतौर एंकर बहुत सारे नामों पर चर्चा हो रही थी, लेकिन जिस तरह का व्यक्ति बतौर एंकर हमें चाहिए था हम तय नहीं कर पा रहे थे. बतौर एंकर हमें एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जिससे हर पीढ़ी के लोग अपने आप को जोड़ सके. जो किसी विचारधारा से जुड़ा न हो और जो भरोसेमंद दिखे.


हर कुछ दिनों में कभी मैं और कभी प्रधानमंत्री सीरीज की एक्सीक्यूटिव प्रोड्यूसर, अंजू जुनेजा, प्रस्तावित एंकरों की एक लिस्ट लेकर अपने संपादक के पास पहुंचते थे. संपादक लिस्ट देखते और फिर कहते और सोचो . महीना दो महीना यही चलता रहा.


इसी तरह एक रात तकरीबन 12 बजे हमारे संपादक का मैसेज आया कि बतौर एंकर शेखर कपूर के बारे में क्या सोचते हो. ठीक यही मेसेज अंजू जुनेजा के पास भी आया था. मैंने तभी जवाब दिया. हम लोग इसके बारे में सोच सकते हैं. यही बात अंजू ने भी कही. अंजू ने शेखर से आनन-फानन में संपर्क साधा. मुझे याद आता है कि रात के तकरीबन 1 बजे शेखर का मैसेज अंजू को मिला. शेखर ने कहा कि हम बात कर सकते हैं .


मुंबई के मशहूर सन एंड सैंड में मुलाकात तय हुई थी. मैं और अंजू, शेखर से मिलने पहुंचे थे. गोल्डन ग्लोब एवार्ड से सम्मानित शेखर कपूर से मुलाकात होने वाली थी. खुशी भी थी और कुछ तनाव भी. हम लोग सोच रहे थे तैयार होंगे या नहीं. कार्यक्रम की एक शो रील हमारे पास थी. इतने बड़े फिल्मकार को हम अपने काम की झलकियां दिखाने जा रहे थे.


शेखर, मुस्कुराते हुए कॉफी शॉप में दाखिल हुए. एएनएन नेटवर्क के बारे में बातचीत हुई. कार्यक्रम की रूपरेखा के बारे में बात हुई. फिर हमने कहा शो रील देखेंगे क्या. शेखर ने कहा कि है तो दिखा दीजिए. शो रील शुरू हुई. लेकिन उसकी आवाज में खराबी थी. शेखर ने अनमने ढंग से दो मिनट तक देखा. फिर अपने अंदाज में कहा ….Let’s do it.


हाल ही में मैं जब शेखर का इंटरव्यू कर रहा था तब मैंने उनसे पूछ ही लिया कि जब आप पहली बार मिले तब आपने क्या सोचा था? शेखर ने बहुत ही मासूमियत से जवाब दिया कि मुझे उस वक्त लगा कि मैं पैसे कमा लूंगा. कोई देखेगा तो नहीं. चुपचाप बात आई गई हो जायेगी लेकिन प्रधानमंत्री सीरीज के मामले में मैं बिल्कुल गलत साबित हुआ.


यहां से एबीपी न्यूज और हमारी टीम के साथ शेखर का एक गहरा रिश्ता शुरू हुआ. शेखर ने हमें समझा. शेखर को हम समझने की कोशिश करते रहे. शूट के बीच में उनसे लंबी बातचीत का मौका मिलता था. मैं हर बार चमत्कृत होता था. यह बात फिर कभी.


पहले दिन जब वो शूट पर आये तो मैं उनके पास पहुंचा. अंजू भी थीं. शेखर के हाथों में मेरी लिखी स्क्रिप्ट की कॉपी थी. ऐसा लग रहा था मेरी परीक्षा की कॉपी मेरे पिता जी ने हाथ में ले रखी हो! वो स्क्रिप्ट पर लिखे हर लफ्ज का मतलब समझना चाहते थे. हर शब्द के लिखने के पीछे की वजह पूछ रहे थे. कुछ देर में लगा कि मैं जवाब देते-देते पागल हो जाऊंगा. अंजू कभी मुझे देखती कभी शेखर को. फिर शेखर ने कहा ठीक है. थोड़ी देर में मिलते हैं. हमने उन्हें अकेला छोड़ दिया.


तकरीबन एक घंटे बाद शेखर कैमरे के सामने थे. इसके बाद वह हमारे पास कैमरा मॉनिटर के पीछे आ गये. जहां मैं, अंजू और पुनीत शर्मा बैठे थे. उन्होंने सवाल पूछा कि मैं किसको ये बातें कह रहा हूं? हम तीनों एक दूसरे का मुंह देखने लगे और शेखर हमें देख रहे थे. पुनीत ने कहा, “आप कैमरे से बात कर रहे हैं”


शेखर ने पूछा, “कैमरे के पीछे कौन है”? हम तीनों ने एक साथ कैमरे की तरफ देखा. वहां हमारे डायरेक्टर फोटोग्रॉफी, मनीष भट्ट थे. मनीष को लगा कि ये क्या हुआ. सभी मेरी तरफ क्यों देख रहे हैं. आखिर में शेखर ने कहा कि ये मैं कहानी किसे सुना रहा हूं? उसकी उम्र क्या होगी.


सोच विचार कर तय हुआ कि चलिए 12 साल के बच्चे को आज के भारत के बनने की कहानी यानी प्रधानमंत्री सुनाते हैं. सोच ये थी कि अगर 12-13 साल के बच्चे को कहानी समझ आ जायेगी तो सभी को आयेगी. अगले कुछ वर्षों में यही बच्चे वोट देंगे. इन्हीं के कंधों पर देश होगा. उन्हें तथ्यों की सही जानकारी होनी चाहिए. भारत की राजनीति का इतिहास पता होना चाहिए. इसी सोच को प्रधानमंत्री -II में भी प्रमुखता दी गई है.