प्रकाश सिंह बादल पंजाब की राजनीति के ऐसे ध्रुव जहां होता था विरोधों का समन्वय
प्रकाश सिंह बादल. पंजाब की राजनीति के भीष्म पितामह. एक अनोखा रिकॉर्ड भी है इनके नाम. 1970 में जब यह पंजाब के मुख्यमंत्री बने थे, तो 43 वर्ष के बादल सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री थे. उसी तरह जब 2017 में उन्होंने एक बार फिर पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल समाप्त किया तो वह सबसे उम्रदराज मुख्यमंत्री थे. उस वक्त उनकी उम्र 90 वर्ष थी. बादल पंजाब की राजनीति के 'पैट्रियार्क' थे, 'भीष्म पितामह' थे. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके पांव छूकर आशीर्वाद लेते थे. 2019 में भी वाराणसी में नामांकन करते समय यह नजारा सार्वजनिक तौर पर देखने को मिला था, जब बादल के पैर पीएम मोदी ने छुए थे. मोदी उनको भारत का 'नेल्सन मंडेला' भी बताते थे, क्योंकि प्रकाश सिंह बादल भी अलग-अलग कारणों से भारत की जेलों में दो दशक से अधिक का समय गुजार चुके थे.
कभी कांग्रेस से चुनाव लड़े थे
आजीवन कांग्रेस का विरोध करनेवाले और पंजाब से उसका सूपड़ा साफ करने में अहम योगदान देनेवाले प्रकाश सिंह बादल ने पहला चुनाव कांग्रेस के चुनाव चिह्न पर ही लड़ा था. यह आजादी के एक दशक के भीतर की बात है. तब अकाली दल एक अलग 'पंजाबी सूबे' की मांग कर रहा था और कांग्रेस इसका भीषण विरोध. इसी क्रम में 1955 में स्वर्ण मंदिर में सेना तक को घुसना पड़ा था. हालांकि, बाद में दोनों खेमों ने जब अपना रुख नरम किया, तो प्रकाश सिंह बादल कांग्रेस के चुनाव चिह्न पर ही 1957 का चुनाव भी लड़े और जीते भी. यहां तक कि अकाली दल ने तो राजनीति को कांग्रेस के लिए छोड़ देने तक की वकालत की. वैसे, बादल की राजनीति का सफर शुरू हुआ था गांव की राजनीति से. वह अपने पिता की तरह ही सरपंच का चुनाव जीतकर राजनीति में आए थे. पहला चुनाव भले ही उन्होंने कांग्रेस के सिंबल पर लड़ा और जीता हो, लेकिन बाद की सारी जिंदगी उन्होंने कांग्रेस का विरोध ही किया. वह कई बार कहते भी थे कि उन्हें कांग्रेस पर कभी भी भरोसा नहीं रहा. यही वजह रही कि जब उन्होंने अकाली दल का दामन थामा तो अपनी राजनीतिक धाक ऐसी जमाई कि कांग्रेस को पंजाब में अक्सर ही नाकों चने चबाने पड़े. प्रकाश सिंह बादल अपना आखिरी चुनाव 2022 में आम आदमी पार्टी के कैंडिडेट से हार गए थे, लेकिन 1969 से लेकर 2017 तक वह लगातार चुनाव जीत कर विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री बनते रहे थे. केंद्र की राजनीति में एक बार भले उन्होंने चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में दखल दी हो, लेकिन उसके बाद वह लगातार पंजाब की राजनीति पर ही केंद्रित रहे.
बादल की राजनीति संघर्ष और समन्वय की
प्रकाश सिंह बादल मास्टर तारा सिंह, संत फतेह सिंह जैसे बड़े नेताओं के नेतृत्व में अकाली दल में सक्रिय रहे. अकाली दल अपनी शुरुआत से ही संघर्ष में यकीन रखता है, चाहे भारत का स्वतंत्रता संग्राम हो, गुरुद्वारा सुधार आंदोलन हो या स्वतंत्रता के बाद पंजाब के मुद्दों और सिख धर्म को लेकर संघर्ष की बात हो, प्रकाश सिंह बादल पार्टी के समर्पित कैडर की तरह संघर्ष को समर्पित रहे. उन्होंने पंजाबी सूबा मोर्चा, कपूरी मोर्चा और धर्मयुद्ध मोर्चा में सक्रिय रूप से भाग लिया. उनकी ज़िंदगी के कई साल जेल की सलाखों के पीछे भी गुज़रे. प्रकाश सिंह बादल ने एक बार खुद मीडिया में दावा किया था कि उन्होंने 17 साल जेल में काटे हैं. 2015 में खुद प्रधानमंत्री मोदी ने सार्वजनिक तौर पर बादल को भारत का नेल्सन मंडेला बताया था. दरअसल, दिल्ली के विज्ञान भवन में एक कार्यक्रम में आपातकाल की यादें साझा की जा रही थीं, उसी दौरान मोदी ने यह कमेंट किया था. बादल की सरकार में मंत्री रहे एक भाजपा नेता तीक्ष्ण सूद ने तो बादल को नोबल शांति पुरस्कार देने की ही मांग कर डाली थी.
आपातकाल के दौरान भी पहले जत्थे में ही प्रकाश सिंह बादल ने गिरफ्तारी दी थी और लगभग 19 महीनों तक जेल में रहे थे. वह पार्टी के एक समर्पित काडर थे तो विरोधों के समन्वय भी. यही वजह रही कि सिख धर्म औऱ पंजाबियत की राजनीति करनेवाले बादल ने हिंदुत्व की राजनीति करनेवाले जनसंघ से पहले और बाद में भारतीय जनता पार्टी के साथ भी अपनी सरकार बनाई। वह पंजाब की बात करते हुए भी फेडरल स्ट्रक्चर के घनघोर समर्थक थे और उन्होंने कई बार कहा भी था कि उनके रहते अलगाववाद की बात न कोई कर सकता है, न सोच सकता है. हालांकि, कांग्रेस को उन्होंने ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए कभी माफ भी नहीं किया और 1984 के सिख विरोधी दंगों को भी नहीं भूले. यही वजह थी कि उन्हें सिख सैनिकों को विद्रोह के लिए उकसाने के आरोप में जेल भी भेजा गया. जेल से बाहर निकलकर उन्होंने भिंडरावाले औऱ अन्य सिख अलगाववादी नेताओं के लिए लगाए 'भोग' में भी हिस्सा लिया, लेकिन सेपरेट सिख होमलैंड की वकालत उनके मुंह से कभी सुनने को नहीं मिली.
अलगाववाद से अलग रहे प्रकाश सिंह बादल
समय-समय पर बादल ने थोड़े बहुत शब्दों में खालिस्तान की चर्चा भले की हो, लेकिन उनकी राजनीति अलगाववाद की तरफ कभी नहीं बढ़ी. यही वजह रही कि 1997 और 1999 में राज्य की राजनीति के साथ ही एसजीपीसी पर पूरा कब्जा करनेवाले बादल ने उन समहूों की बात पर कान नहीं दिया, जो 1984 के दंगों के दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते रहे. बादल की इस अनदेखी ने ही राज्य में अमरिंदर सिंह को पनपने का मौका दिया, भले ही वह कांग्रेस से थे और कांग्रेस के दामन पर 1984 दंगों के दाग थे. बादल तब भी सुर्खियों में आए, जब 2012 में उनकी सत्ता में वापसी के बाद एसजीपीसी ने भिंडरावाले और उस जैसे दूसरों का स्मारक बनाने की इजाजत दी. तभी बादल पर सिख अलगाववादियों पर नरमी बरतने का भी आरोप लगा. हालांकि, 2015 में पंजाब में जो बेअदबी की घटनाएं हुईं, उसके बाद से बादल की पकड़ और ढीली ही पड़ती चली गई. इस बीच 1997 से लगातार एक साथ रहनेवाली भाजपा के साथ भी 2020 में शिरोमणि अकाली दल ने किनारा कर लिया. बहाना किसान कानूनों का था. बादल ने स्वर्णमंदिर में सेवा कर बेअदबी का प्रायश्चित करने का भी प्रस्ताव दिया, लेकिन 2022 में उनको अब तक की सबसे शर्मनाक हार झेलनी पड़ी.
फिलहाल, अकाली दल को अपने भीष्म पितामह की कमी तो खूब खलेगी, खासकर जब राज्य में वह अपने सबसे शर्मनाक प्रदर्शन से गुजर रही है. प्रकाश सिंह बादल को अगर अटल बिहारी वाजपेयी के शब्द उधार लेकर कहें तो वह विरोधों का समन्वय थे. वह जनसंघ के साथ रहे, पंजाब में विभिन्न ताकतों के बीच संतुलन बनाकर रहे, खालिस्तानी आंदोलन को सिर नहीं उठाने दिया और आज जब वह गए हैं तो सारे दलों के नेता एक सुर में इस बुजुर्ग अभिभावक को नम आंखों से याद कर रहे हैं. यही बादल की थाती भी थी और खासियत भी.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)