अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बन रहे मंदिर में कल यानी 22 जनवरी को रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाएगी. इसको लेकर केंद्र सरकार ने आधे दिन की छुट्टी घोषित की है, उसके साथ ही कई राज्य सरकारों ने भी आधे दिन की छुट्टी घोषित की है. कई विश्वविद्यालयों में भी छुट्टी है, मांस-मदिरा की दुकानें भी बंद रहेंगी. दिल्ली में चार केंद्रीय अस्पतालों ने भी आधे दिन की छुट्टी घोषित की है. इसको लेकर कई तरह के सवाल भी उठ रहे हैं. 


छुट्टी तो ठीक, पर तरीका ठीक नहीं


यह सवाल बहुत गंभीर है और उसमें चिंता भी है. रामराज्य तो प्रजा की भलाई के लिए होता है और आज के प्रजातांत्रिक युग में तो जनता ही प्रजा है, जिनके अधिकार हैं, कर्तव्य हैं. उस नजरिए से देखें तो एक आयोजन तो धार्मिक, राजनीतिक है ही, उसे राष्ट्रीय भी बना दिया गया है. चूंकि 80 फीसदी आबादी हिंदू है, तो इसलिए इसे राष्ट्रीय बना देने में भी कोई आपत्ति नहीं आ रही है. संवैधानिक रूप से अगर देखें तो जो भी सरकारी पद पर होते हैं, उनके लिए सभी धर्मों के प्रति व्यवहार एक सा होना चाहिए. सारे धर्म उनके लिए समान हैं, अब उसी मूल बात का उल्लंघन होता दिखता है.


अब राजनीतिक रूप से देखें, तो असम में हिमंत बिस्वा शर्मा ने कहा कि वह ट्रैफिक जाम बर्दाश्त नहीं करेंगे और भारत न्याय यात्रा को नहीं घुसने देंगे. वह केस दर्ज करेंगे. यह भी एक रवैया है, जबकि न तो कोई ट्रैफिक जाम की स्थिति थी, न तो कोई ऐसे विरोध प्रदर्शन का डर है. दूसरी ओर छुट्टियां घोषित की जा रही हैं. छात्रों को छुट्टी दी गयी है, सरकारी दफ्तर आधे दिनों तक बंद रहेंगे, कई राज्यों में तो पूरे दिन की छु्टटी है. इस आलोक में देखें तो पूरी तरह से इसको एक ऐसे यादगार उत्सव के तौर पर दर्ज करने की कोशिश की जा रही है, जिसमें आयोजक के अपने हित और मंसूबे छिपे हुए हैं, अन्यथा इस तरह से छुट्टी देने का कोई तर्क नहीं बनता है. 



कोई पीछे नहीं रहना चाहता होड़ में


जब कोई धार्मिक आयोजन होता है और उससे जब वोट पाने या फिर वोट बिगड़ने की जब चिंता होती है, तो ऐसा होता है. बीजेपी जो कर रही है, वो वोट पाने के मकसद से कर रही हैं, जबकि आम आदमी पार्टी या वैसी दूसरी पार्टियां जो हैं, वो इस डर से कर रही हैं कि वोट बिगड़ न जाए. हालांकि, दोनों का मकसद वोट ही है. सच तो यह है कि धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता इस देश के स्वभाव में है और वह कभी नहीं बिगड़ती.



हमने इस देश में अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान रखे और उसको भी हिंदू बहुत जनता ने ही स्वीकार किया. सर्वधर्म समभाव या किसी को संरक्षण या किसी को विशेष छूट जैसी बातों पर जनता नहीं बिगड़ती. दरअसल, आज के राजनेताओं को खुद पर विश्वास नहीं है, इसलिए वे अपने कार्यक्रमों या बातों पर राजनीति नहीं कर पाते. वे श्रीराम के नाम पर या धर्म के नाम पर छिपने-छिपाने का प्रयास कर रहे हैं. जहां तक दिल्ली में चार बड़े अस्पतालों में छुट्टी का सवाल है, तो वह प्रशासनिक मजबूरी का मामला अधिक है.


यह मैनेजेरियल डिसिजन है और विवशता है. जब कर्मचारी छुट्टी पर रहेंगे, स्टाफ नहीं रहेंगे, तो अस्पताल चलेंगे कैसे? तो, इसके लिए प्रबंधन को दोष नहीं दे सकते. हालांकि, दोष किसी को भी दें, यह मसला बहुत गंभीर है औऱ प्रश्न बहुत ही वाजिब है. सरकारें जो कुछ भी करते हैं, वह आम जनता की सुख-सुविधा के लिए ही तो करते हैं. अब जिसका ऑपरेशन का डेट पड़ा होगा या फिर और कोई महत्वपूर्ण तारीख होगी, उसको तो दिक्कत होगी. आधे दिन की छुट्टी तो बढ़ ही सकती है. कई मरीजों को इलाज नहीं मिलेगा, कई को बहुत दिक्कत होगी, कुछ हो सकता है कि मृत भी हो जाएँ. यह हमारे सामूहिक विवेक पर प्रश्नचिह्न है. हमारे देश से बाहर जो भी देख रहे होंगे, वह हंस रहे होंगे कि हम आखिर कर क्या रहे हैं?


धर्मनिरपेक्षता ही बचाएगी हमें 


जब भी प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्ति किसी एक धर्म का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं, तो अक्सर ही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का उदाहरण दिया जाता है कि वह भी सोमनाथ गए थे. वहीं, नेहरूजी का भी उदाहरण आता है कि वह इस बात के पैरोकार थे कि संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को ऐसा दिखना भी नहीं चाहिए. सरकारी अधिकारियों के साथ भी बहुत सारी इस तरह की नैतिकताएं हैं. अब उन नैतिकताओं के टूटने का डर बन गया है. जब प्रधानमंत्री खुद ऐसा कुछ करेंगे, तो वह एक तरह का नॉर्म बन जाएगा. व्यवस्था जो धर्मनिरपेक्ष है, उसको तोड़ने का और अलग चलने का एक तरह का यह प्रयास दिखता है. वह हिंदू वर्चस्व यानी बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने जैसा लगता है. 


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