राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के "मन की बात" सुनकर क्या सुप्रीम कोर्ट देगा गरीबों को इंसाफ?
भारत समेत दुनिया के दर्जनों देशों में विवादास्पद दार्शनिक रहे ओशो रजनीश ने बरसों पहले कहा था, "अगर आपको किसी देश के चरित्र का पता लगाना है तो वहां बनी जेलों की गिनती कर लीजिए. जितनी ज्यादा जेलों की संख्या होगी, उतना ही ज्यादा वहां के लोगों का चरित्र गिरा हुआ होगा और वहां अपराधों का बोलबाला होगा." अगर इसी पैमाने को मान लें तो आज भारत भी दुनिया के टॉप 10 देशों में शुमार है.
कुछेक अपवाद छोड़ दें तो अक्सर यही देखा गया है कि देश के सर्वोच्चतम संवैधानिक पद पर बैठे राष्ट्रपति लिखित,औपचारिक भाषण देने के अलावा अपने मन की भावना प्रकट करने से परहेज़ करते हैं लेकिन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नक्शे कदम पर चलते हुए सरकारी परंपरा को निभाने के साथ ही अपने दिल की बात को सार्वजनिक रूप से कहने का जो हौसला जुटाया है, वह हमारे लोकतंत्र की ऐसी नायाब मिसाल है, जो काबिले तारीफ है.
राष्ट्रपति मुर्मू ने देश की एक ऐसी महत्वपूर्ण समस्या को सुलझाने के लिए सुझाव दिए हैं, जिसकी तरफ न तो हमारी सरकार ध्यान दे पा रही है और न ही न्यायपालिका. उन्होंने बेहद भावुक होकर ऐसे मजलूमों का मसला उठाया है, जो मामूली जुर्म में पिछले कई सालों से जेलों में बंद हैं और जिन्हें न तो अपने मौलिक अधिकारों का पता है और न ही मुकदमा लड़ने के लिए इतना पैसा है कि वे जमानत पर भी छूट सकें.
लिहाजा, राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय के मंच से ही सरकार और न्यायपालिका को नसीहत दी है कि देश को और नई जेलों की जरूरत नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी संख्या में सालों से सलाखों के पीछे बंद ऐसे गरीब कैदियों की संख्या कम करने की जरूरत है.
दरअसल उच्चतम न्यायालय ने संविधान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के समापन समारोह को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति मुर्मू ने अंग्रेजी में लिखा अपना औपचारिक भाषण खत्म करने के बाद हिंदी में जिस भावुकता के साथ अपने अंतर्मन की भावनाओं को प्रकट किया है, वह न सिर्फ अभूतपूर्व है बल्कि हमारे कानून निर्माताओं और समूची न्यायिक-व्यवस्था के लिए भी एक बड़ा सबक है.
आमतौर पर राष्ट्रपति के किसी औपचारिक सरकारी भाषण में इतनी तीखी भाषा का इस्तेमाल नहीं होता है लेकिन चूंकि ये उनके मन की बात थी, जिसके लिए भाषा की बाउंड्री की जरूरत नहीं होती, इसलिए राष्ट्रपति की जुबान से बड़ी लेकिन सच बात ही बाहर निकली. उन्होंने कहा, "जिंदगी खत्म करने वाले तो बाहर घूमते हैं, लेकिन आम आदमी मामूली जुर्म में वर्षों तक जेल में पड़ा रहता है. कौन हैं ये लोग, इनकी जानकारी लीजिए, इनके बारे में पता कीजिए."
वैसे दुनिया के तमाम मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि एक इंसान जब अपने मन की पीड़ा को किसी के सामने व्यक्त करता है तो लाख चाहने के बावजूद वह अपनी भावुकता पर कंट्रोल नहीं कर पाता और तब उसकी जुबान से निकले शब्द बता देते हैं कि वह सौ फीसदी सच बोल रहा है. उस समारोह में कुछ ऐसा ही राष्ट्रपति मुर्मू के साथ भी हुआ.
उन्होंने बेहद भावुक अंदाज में कहा," जेल में बंद उन लोगों के बारे में सोचें, जो कि थप्पड़ मारने के जुर्म में जेल में कई सालों से बंद हैं, उनके लिए सोचिए. उनको न तो अपने अधिकार पता है, न ही संविधान की प्रस्तावना, न ही मौलिक अधिकार या मौलिक कर्तव्य. उनके बारे में कोई नहीं सोच रहा है. उनके घर वालों में उन्हें छुड़ाने की हिम्मत नहीं रहती क्योंकि मुकदमा लड़ने में ही उनके घर के बर्तन तक बिक जाते हैं."
उनका ये बयान ऐसा कड़वा सच है जिसकी हकीकत को देश का हर नेता, वकील और जज जानता है लेकिन कुछ कर इसलिए नहीं सकता कि कानून बनाना या उसमें बदलाव करने का अधिकार सिर्फ संसद के ही पास है.
अक्सर राज्यों की सरकारों द्वारा दी जाने वाली दलीलों का जवाब भी राष्ट्रपति ने बेहद सधे अंदाज में देते हुए कहा, ‘‘कहा जाता है कि जेलों में कैदियों की भीड़ बढ़ती जा रही है इसलिए नई जेलों की स्थापना की जरूरत है. क्या हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं? फिर और जेल बनाने की क्या जरूरत है? हमें उनकी संख्या कम करने की जरूरत है.’’
मुर्मू ने कहा कि जेलों में बंद इन गरीब लोगों के लिए अब कुछ करने की जरूरत है. जानने की कोशिश कीजिए कि आखिर कौन हैं ये. दरअसल,उन्होंने देश की सर्वोच्च न्यायपालिका को ये संदेश दिया है कि मामूली जुर्म में सालों से बंद इन गरीब कैदियों की रिहाई के लिए वह अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सरकारों को ऐसा सख्त निर्देश दे, जिस पर अमल करने के लिए उसे बाध्य होना पड़े.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हिंदी में जिस मुखर लेकिन भावुक अंदाज में अपनी भावनाएं साझा कीं, उसने सबका मन मोह लिया. यह ही वजह थी कि राष्ट्रपति की बात खत्म होते ही सुप्रीम कोर्ट का पूरा सभागार उनके सम्मान में खड़ा होकर तालियां बजाने लगा. शायद इसलिए कि सबको ये अहसास हो गया कि जो बात राष्ट्रपति ने बेहद सहज व सरल अंदाज में कहीं हैं, वही सब तो हमारे दिल में भी हैं.
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