साल 1998 में नरेंद्र मोदी जब बीजेपी के संगठन महामंत्री हुआ करते थे, तब बीजेपी के एक बड़े नेता ने कहा था कि "संघ ने हमें एक ऐसा प्रचारक दिया है, जिसके भीतर प्रत्येक कसौटी पर स्वयं को खरा साबित करने की पूरी योग्यता है. जिस दिन पार्टी इन्हें सीधे सत्ता की राजनीति में ले आयेगी,तब किसी एक राज्य का नहीं बल्कि समूचे देश का कायाकल्प करने की इनमें वह क्षमता है,जिसकी कल्पना फिलहाल हम नहीं कर सकते." तब उनकी इस बात को पांच-सात पत्रकारों के समूह ने हंसते हुए हवा में उड़ा दिया था, मानो वे भरी दोपहरी में तारे गिना रहे हों.


लेकिन दुनिया के सियासी इतिहास पर नजर डालेंगे,तो  पाएंगे कि जननायक बनने की सबसे बड़ी परिभाषा व उसे नापने का इकलौता पैमाना ही ये है कि उस शख्स से नफ़रत करने वालों की तादाद से ज्यादा उसे प्यार करने वालों की संख्या कितने गुना ज्यादा है. इसलिये कहते हैं कि फिल्मों की तरह राजनीति के अखाड़े में भी कभीकभार कोई ऐसा पहलवान उतर आता है,जिसे लोग पसंद करें या नापसंद करें लेकिन उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.


पिछले आठ सालों में पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए गए फैसलों का अगर आकलन किया जाए,तो उन्होंने विपक्षी दलों को ही नहीं बल्कि देश की जनता को कुछ इस तरह से चौंकाया है,जिसके बारे में किसी को कोई ख्वाबो-ख्याल ही नहीं आया. बेशक उनकी सरकार को तीन नए कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा हो लेकिन वो भी एक चौंकाने वाला ही फैसला था. इसलिए संघ के कुछ बड़े पदाधिकारी कहते हैं कि "आप उन्हें सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का ही संबोधन क्यों देते हैं.मीडिया को तो ये कहना चाहिये कि अपने फैसलों से देश-दुनिया को चौंकाने वाला इकलौता पीएम नरेंद्र मोदी! जिनके हर निर्णय में लोगों की भलाई के सिवा कुछ नहीं है." हालांकि किसी उपमा दिए जाने  को लेकर बहस की गुंजाइश हो सकती है और होना भी क्यों नही चाहिए?


लेकिन राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए श्रीमती द्रोपदी मुर्मू के नाम का ऐलान करके पीएम मोदी ने देश को सिर्फ चौंकाया ही नहीं है, बल्कि भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नई इबारत लिखने की शुरुआत की है.अगर द्रोपदी मुर्मू जीत जाती हैं, तब हमारे संविधान में एक नया इतिहास रचा जायेगा कि पहली बार कोई आदिवासी महिला सबसे सर्वोच्चतम संवैधानिक पद को शोभायमान करेंगी.


हालांकि इससे पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने भी प्रतिभा पाटिल को पहले राजस्थान का राज्यपाल और फिर देश का राष्ट्रपति बनाने का फैसला लिया था.लेकिन देश को आजादी मिलने के इतने सालों बाद तक किसी आदिवासी महिला को सर्वोच्च पद तक ले जाने की सोच किसी और राजनीतिक दल में भला क्यों नहीं आई?


बेशक, एनडीए के इस फैसले के गहरे राजनीतिक मायने भी हैं.इसलिये कि देश के चार राज्य ऐसे हैं,जहां आदिवासी आबादी की तादाद अच्छी-खासी है और किसी भी चुनाव में उनमें से कुछ सीटों पर उनकी भूमिका हमेशा से निर्णायक रही है. झारखंड,ओडिसा, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उनकी संख्या इतनी है कि वे सत्ता में उलटफेर करने की ताकत रखते हैं. हालांकि आंध्र प्रदेश व तेलंगाना में भी उनकी मौजूदगी को नकारा नहीं जा सकता.


अगले साल के अंत में छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और उसके बाद यानी 2024 में ओडिसा व झारखंड के चुनाव होंगे.पहले दो राज्यों में बीजेपी की सरकार है,जबकि बाकी दो राज्यों की सत्ता से वो बाहर है.इसलिए विश्लेषक मानते हैं कि ऐसे हालात में एक आदिवासी महिला के चेहरे का बहाने अगर बीजेपी दो और राज्यों की सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हो जाती है,तो ये उसके लिए सबसे नफे का सौदा ही साबित होगा. इसलिए कि सिर्फ देश की महिलाओं के बीच ही नहीं बल्कि तमाम आदिवासियों के बीच भी ये संदेश जाएगा कि अकेली बीजेपी ही है,जो उनकी सबसे बड़ी खैरख्वाह है. और,ये भी नहीं भूलना चाहिये कि अगले लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी को इसका भरपूर लाभ मिलेगा. उनके मुताबिक ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल यानी बीजेडी अभी तक एनडीए का हिस्सा नहीं है.लेकिन इस फैसले के बाद पटनायक के बयान से साफ है कि उनकी पार्टी न सिर्फ मुर्मू को समर्थन देगी बल्कि अब वे विधिवत तौर पर एनडीए का हिस्सा भी बन सकते हैं.


जिंदगी में हर तरह की गरीबी को झेलने और उससे लड़कर इस मुकाम तक पहुंचने वाली श्रीमती मुर्मू ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि अपने जन्मदिन के अगले ही दिन मोदी सरकार उन्हें इतना बड़ा तोहफा दे देगी.20 जून को उनका जन्मदिन था और अगले ही दिन एनडीए ने उन्हें अपना राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का ऐलान करके सियासत की पूरी बाजी पलट डाली.


ओडिशा के मयूरभंज जिले में पैदा हुईं और बेहद पिछड़े व दूरदराज के जिले से ताल्लुक रखने वालीं 64 बरस की मुर्मू का वास्ता सिर्फ गरीबी और अन्य बुनियादी समस्याओं से ही नहीं रहा, बल्कि उन्होंने अपनी निजी जिंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी को भी झेला है. उनके पति श्याम चरण मुर्मू और उनके दो बेटे अब इस दुनिया में नहीं हैं. खानदान के नाम पर उनकी इस सिर्फ एक बेटी इतिश्री है, जिनके पति का नाम  गणेश हेम्ब्रम है. एक ऐसा शख्स जिसके लिए गरीबी को गले लगाना ही मजबूरी थी, जिसने महिलाओं के साथ होने वाले शोषण को देखा-झेला हो और खुद अपनी जिंदगी में बहुत कुछ खो दिया हो,तो आम आदमी की तकलीफ़ को उससे ज्यादा महसूस भला और कौन कर सकता है? इसलिये गर्व होना चाहिए कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा ताज उनके सिर पर बंधे.



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