श्रद्धांजलि: विद्रोही तबीयत की बेबाक शायरा फहमीदा रियाज नहीं रहीं. 21 नवंबर, 2018 को 73 वर्ष की अवस्था में उन्होंने लाहौर स्थित अपने आवास पर आखिरी सांस ली. दुनिया-ए-फानी को भले ही उन्होंने अलविदा कह दिया हो लेकिन उनकी शायरी लंबे अरसे तक अधिनायकवादी पतनशील समाज का खात्मा करने का अलम उठाने वालों का संबल बनी रहेगी और तानाशाहों को चुनौती देती रहेगी. उन्होंने अपनी शायरी के जरिए सत्ता की चूलें हिलाने की जुर्रत की और झूठी शान में ग़र्क़ पुरुषसत्तात्मक समाज को ललकारा. फहमीदा रियाज का ही एक शेर है-


'किससे अब आरजू-ए-वस्ल करें
इस खराबे में कोई मर्द कहां'.


फहमीदा रियाज के इस जहां से जाने को मैं महज एक मृत्युसूचना की तरह नहीं बल्कि एक शोकसूचना की तरह ले रहा हूँ. शोकसूचना इसलिए कि उनके निधन से दक्षिण एशिया ने नक्कारखाने की वह तूती खो दी है, जो बेबस और बेअसर नहीं बल्कि बेखौफ और पुरअसर हुआ करती थी. विद्रोह न सिर्फ उनके कलाम में था बल्कि उनकी जीवनशैली में भी पैवस्त था. जिन लोगों ने फहमीदा की 1973 के लाहौर मुशायरे में शेर पढ़ने के दरम्यान सिगरेट सुलगाती तस्वीर देखी है, वे मेरी इस राय से इत्तेफाक रखेंगे. पाकिस्तान जैसी थियोक्रैटिक सोसायटी (धर्मकेंद्रित समाज) में सार्वजनिक तौर पर किसी महिला का ऐसा कर गुजरना किसी फित्ने से कम नहीं था और इसकी प्रतिक्रिया में उठने वाले फसाद की आशंका से भी वह वाकिफ थीं. लेकिन वर्जनाओं की सरेआम धज्जियां न उड़ाए, तो काहे की फहमीदा यानी अक्लमंद!


शायर वह चराग होता है जिसका सरहदों से घिरा कोई मुख्तलिफ देश नहीं होता. वह जहां जलता है वहीं रोशनी फैलाता रहता है. लेकिन उसकी यह रोशनी अक्सर हुक्मरानों की आंखों में नेजे की तरह चुभा करती है. पाकिस्तान में फहमीदा के साथ ऐसे वाकए बारहा पेश आए. अपने आजाद खयालों की उड़ान के चलते यह शायरा अपने कलाम से महिलाओं को घुटन भरे माहौल से निकालने की मुसलसल प्रेरणा देती रही और अपने देश की कट्टरपंथी हुकूमत की जिल्लत झेलती रही. हालात-ए-हाजिरा पेश करते हुए उन्होंने शेर कहा-


'चारसू है बड़ी वहशत का समां
किसी आसेब का साया है यहां'.


जनरल अयूब खान ने जब पाकिस्तान में छात्र-राजनीति पर ताला जड़ा, तो फहमीदा रियाज ने इस हरकत के खिलाफ आवाज बुलंद की. इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा. उन्हें मुशायरों में बुलाना बंद कर दिया गया और उन पर पहरे लगा दिए गए. लेकिन नागरिकों की आजादी के हक में पाकिस्तानी तानाशाहों से टकराने में वह कभी पीछे नहीं हटीं. फहमीदा ने कभी यह नहीं छिपाया कि वह धर्मनिरपेक्षता की हामी हैं. नतीजतन उनको पाक में भारत का एजेंट करार दे दिया गया था. 1977 में फौजी हुकूमत आने के बाद जिया-उल-हक से टकराने का अंजाम यह हुआ कि उनकी नौकरी छीन ली गई और उन्हें देशनिकाला दे दिया गया.


जाहिर है फहमीदा ने अपने पति के साथ शरण लेने और निवास के लिए भारत ही को चुना और जनरल जिया की 1988 में मौत होने तक वह यहीं रहीं. मेरठ में उनकी और उनके पुरखों की नाल भी गड़ी थी. भारत विभाजन के बाद वे पाकिस्तान जा बसे थे. इस तारीखी आवाजाही की व्यर्थता का अहसास भी उन्हें बखूबी था, जिसे उन्होंने अपने इस शेर में जाहिर किया है-


'मुझे मआल-ए-सफर का मलाल क्योंकर हो
के जब सफर ही मेरा फासलों का धोका था'.


और इसकी निशानदेही भी की है-


'नुकूश पांव के लिखते हैं मंजिल-ए-नायाफ्त
मेरा सफर तो है तहरीर मेरी राहों में'.



जब भारत में हुकूत की तर्ज-हुकमरानी उन्हें रास नहीं आई. उन्होंने देखा कि यहां भी यथास्थितिवादी ताकतें सर उठा रही हैं और फिरकापरस्ती के मामले में धर्मनिरपेक्ष भारत भी पाकिस्तान से उन्नीस नहीं ठहरता, तो व्यथित होकर उन्होंने यह तंजिया नज्म लिखी. चंद पंक्तियां देखें-


'तुम बिलकुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छिपे थे भाई


वो मूरखता वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गवांई


आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई!'


भारतीय उप-महाद्वीप में फहमीदा रियाज की उपस्थिति आश्वतिकारक थी. लेकिन शायद उन्हें कोई अज्ञात पुकार अपनी ओर खींच रही थी. उन्होंने उसकी सुन ली और हमें तन्हा कर गईं-


'मैं तेज गाम चली जा रही थी उसकी सिम्त
कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में.'


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