Punjab Assembly Election 2022: सीएम चन्नी को दो सीटों से लड़ाकर क्या कांग्रेस बचा लेगी अपना किला?
उत्तर प्रदेश के साथ ही पंजाब का विधानसभा चुनाव भी दिलचस्प होता जा रहा है.वहां की सियासत के तमाम दिग्गज़ नेता आज अपना पर्चा दाखिल कर रहे हैं लेकिन ऐन वक्त पर कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्री चरण जीत सिंह चन्नी को दो सीटों से मैदान में उतारने का फैसला लेकर सबको चौंका दिया है.इसका सियासी मतलब तो यही निकाला जा रहा है कि कांग्रेस चन्नी को लेकर कोई रिस्क नहीं लेना चाहती क्योंकि दो सीटों से चुनाव लड़वा कर पार्टी ने ये संदेश दे दिया है कि अगले सीएम पद के उम्मीदवार वही होंगे.हालांकि पंजाब का ये चुनाव एक नया इतिहास भी रचने जा रहा है.चार बार सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके प्रकाश सिंह बादल 94 बरस की उम्र में इस बार फिर से मैदान में उतरने के बाद देश के चुनावी-इतिहास के ऐसे पहले व इकलौते शख्स बन जाएंगे,जो इस उम्र में विधानसभा का चुनाव लड़कर सियासत की एक नई इबारत भी लिखेंगे.वे अपनी परंपरागत लंबी सीट से आज अपना नामांकन भर रहे हैं.
दरअसल, पंजाब की सियासत में मालवा क्षेत्र बहुत अहमियत रखता है और कहते हैं कि जिसने मालवा जीत लिया,समझो कि उस पार्टी ने सूबे में अपनी सरकार बना ली.पंजाब की 117 विधानसभा सीटों में से 69 सीटें मालवा में ही हैं.साल 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने इस क्षेत्र की 40 सीटें जीतकर ही सरकार बनाई थी. दूसरे अहम क्षेत्र माझा और दोआबा को माना जाता है. माझा में 25 तो दोआबा में 23 विधानसभा सीटें आती हैं। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने माझा में भी बेहतर प्रदर्शन करते हुए 22 सीट जीती थीं और दोआबा में उसे 15 सीटें मिली थीं.
वैसे कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को एन वक़्त पर सूबे की भदौर (आरक्षित) सीट से उतारकर न सिर्फ दलित सिख वोट बैंक को अपने पक्ष में करने का दांव खेला है,बल्कि उसने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के मजबूत किले को ढहाने की सियासी चाल भी चली है. फिलहाल भदौर सीट पर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का कब्ज़ा है.चन्नी का नाम उनकी परंपरागत सीट चमकौर साहिब से पहले ही घोषित कर दिया गया था लेकिन रविवार को जारी उम्मीदवारों की अंतिम सूची में उन्हें भदौर सीट से उतारकर कांग्रेस ने मास्टरस्ट्रोक खेला है,ताकि वह यहां से आप को शिकस्त दे सके.दूसरी वजह ये भी है कि ये दोनों सीटें पंजाब के मालवा इलाके में हैं,जहाँ अभी तक कांग्रेस का खासा जनाधार है.
दरअसल, पंजाब ऐसा सूबा है जहां चुनाव के वक़्त उत्तरप्रदेश से भी ज्यादा दलित राजनीति की भूमिका बेहद अहम होती है और उसमें भी दलित सिख कई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. विधानसभा की 117 सीटों में से 30 सीटें तो अनुसूचित जाति के लिए ही आरक्षित हैं. लेकिन मोटे अनुमान के मुताबिक तकरीबन 50 सीटों पर सिख दलितों का असर रहता है और वही हार-जीत का फैसला भी करते हैं.सिख दलित वोटरों के गणित को इस तरह से समझ सकते हैं कि मालवा क्षेत्र में लोकसभा की 7 सीटें आती हैं,जिनमें फिरोजपुर, फरीदकोट, बठिंडा, लुधियाना, संगरूर,फतेहगढ़ साहिब और पटियाला शामिल हैं.
लेकिन इसी क्षेत्र में विभिन्न गुरुओं के कई डेरे हैं,इसलिये कहते हैं यहां एक तरह से डेरों की राजनीति हावी रहती है.मोटे अनुमान के मुताबिक मालवा क्षेत्र के 13 जिलों में 35 लाख से भी ज्यादा डेरा प्रेमी हैं लेकिन खास बात यह है कि दलित सिख ही इनमें ज्यादा जाते हैं.मतदान से पहले अपने शिष्यों के लिए डेरा प्रमुख से निकला एक फरमान ही किसी भी राजनीतिक दल की किस्मत बदल देने के लिए काफी है.राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि डेरा प्रेमी अक्सर किसी भी पार्टी को एकमुश्त ही वोट देते आये हैं.यही कारण है कि कोई भी पार्टी इन डेरों की अहमियत को अनदेखा नहीं करती और चुनाव के वक़्त कमोबेश हर उम्मीदवार इनके द्वार पर अपने लिए वोटों का आशीर्वाद मांगने जरुर जाता है. उस लिहाज से देखें,तो फिलहाल डेरा राजनीति में कांग्रेस को इसलिये थोड़ा आगे माना जा सकता है क्योंकि सीएम चन्नी का नाता भी इसी दलित समुदाय है.
चूंकि सत्ता पाने का फैसला मालवा से ही होना है,इसलिये सारी पार्टियां यहां अपनी पूरी ताकत झोंकने में कोई कसर बाकी नहीं रखतीं.पिछली बार केजरीवाल की आप ने इस क्षेत्र में इतनी ताकत लगाई थी कि 2017 के चुनाव में उसने अकेले यहीं से 18 सीटें जीत ली थीं. इस बार भी उसका सारा जोर यहीं पर है,ताकि वह कांग्रेस का गणित बिगाड़कर यहां से अधिकतम सीटें हासिल कर सके.हालांकि सुखबीर सिंह बादल की अगुवाई वाला शिरोमणि अकाली दल (SAD) भी यहां अपनी मौजूदगी को दोबारा मजबूत करने की ताकत लगा रहा है. साल 2012 के चुनाव में उसने 33 सीटें जीती थीं लेकिन पांच साल में ही लोगों का उससे ऐसा मोहभंग हुआ कि 2017 में उसकी सीटें घटकर महज़ 8 रह गई थीं.वैसे 23 सीटों वाले दोआबा क्षेत्र में पारंपरिक तौर पर अकाली दल की पकड़ रही है लेकिन सिर्फ इस एक इलाके के दम पर सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता.
वैसे, पंजाब की सियासी नब्ज़ समझने वाले मानते हैं कि सीएम चन्नी के लिए इस बार भी सबसे सेफ सीट चमकौर साहिब ही होगी लेकिन अगर वे दोनों जगह से चुनाव जीत जाते हैं,तो फ़िर इसे पंजाब की सियासत में किसी चमत्कार से कम नहीं समझा जायेगा.इसमें कोई शक नहीं कि जिन चन्नी को सीएम का पद संभालते ही प्रदेश कांग्रेस के मुखिया नवजोत सिंह सिद्धू का रबर स्टैम्प समझा जा रहा था,उन्हीं चन्नी ने तीन महीने के कार्यकाल में अपने कामकाज के तौर तरीकों से लोगों के बीच खुद को एक लोकप्रिय नेता बनाने में कामयाबी हासिल की है.लेकिन देखना ये है कि अपने तुरुप के इस इक्के के दम पर क्या कांग्रेस पंजाब का किला बचा पाएगी?
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