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Punjab Election 2022: फिल्म और क्रिकेट सितारों के दम पर कांग्रेस बचा लेगी अपना किला?

कहते हैं कि राजनीति में जब तक फिल्मी ग्लैमर का तड़का न लगे,तब तक उसका रंग भी चोखा नहीं हो पाता.हालांकि दक्षिण भारत की राजनीति में तो ये नुस्खा काफी पहले से ही आजमाया जा रहा है लेकिन पिछले चार दशकों में हमारे बॉलीवुड के फिल्मी सितारों को भी सियासत में आने या फिर उन्हें लाने का चस्का कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. शायद इसलिए कि वे जिस भी पार्टी को ज्वाइन करते हैं, वे उसके लिए चुनाव में वोट जुटाने का सबसे कारगर औजार बनते हैं.

लेकिन इतिहास पर गौर करें,तो पता लगता है कि अपने जमाने के सुपर स्टार रह चुके अमिताभ बच्चन से लेकर राजेश खन्ना और सुनील दत्त और बाद के सालों में शत्रुघ्न सिन्हा,विनोद खन्ना से लेकर गोविंदा तक ने अपनी पार्टी को सत्ता की चौखट तक पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी लेकिन उसके बाद अपना हश्र देखकर इन लोगों ने राजनीति से तौबा करने में ही अपनी भलाई समझी.हालांकि यूपीए सरकार के दौरान कहने को तो सुनील दत्त को युवा व खेल विभाग का मंत्री बना दिया गया था लेकिन सब जानते हैं कि उनके पास अपना फैसले लेने की हैसियत कितनी थी. दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान कुछ वैसा ही हाल शत्रुघ्न सिन्हा का भी था,जब उन्हें जहाजरानी मंत्रालय का जिम्मा देते हुए मंत्री बनाया गया था.

हालांकि इस लिस्ट में स्मृति ईरानी को एकमात्र अपवाद माना जा सकता है,जो 2004 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की चांदनी चौक सीट से कांग्रेस के कपिल सिब्बल से चुनाव हार गई थीं.उसके बावजूद पार्टी ने उन्हें किनारे नहीं किया,बल्कि राज्यसभा सदस्य बनाया और 2014 में सीधे कैबिनेट मंत्री बनाकर उनकी बहुमुखी प्रतिभा का पुरुस्कार भी दिया.उन्होंने भी कसौटी पर खरे उतरते हुए 2019 के चुनाव में अमेठी से राहुल गांधी को हराकर ये साबित कर दिखाया कि वे सिर्फ छोटे पर्दे की नहीं,बल्कि राजनीति के बड़े पर्दे की भी एक अहम किरदार हैं.

पुरानी कहावत है कि सियासत कभी किसी की न सगी हुई है और न ही होती है क्योंकि उसका एकमात्र मकसद राज करना होता है और इसके लिए चाहे कितने ही नामी-गिरामी चेहरों को इस्तेमाल करना पड़े, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता.मजे की बात है कि इस सियासी उसूल को अपनाने में कमोबेश सारी पार्टियों की सोच एक ही है.इसीलिए विश्लेषक कहते हैं कि ये जरुरी नहीं कि राजनीति के बहुरंगी रंगमंच पर आने वाला हर फ़िल्मी सितारा स्मृति ईरानी की तरह ही एक कामयाब किरदार का रोल निभाने के गुणों से भरपूर हो.

बात हो रही थी कि रुपहले पर्दे से अपने लाखों फैन्स बनाने वाले ये सितारे जब राजनीति में कूदते हैं,तो क्या सिर्फ उस पार्टी को ही फायदा मिलता है या फिर इनके अपने निजी स्वार्थ भी पूरे होते हैं.इसका कड़वा जवाब यही है कि दोनों के मकसद पूरे हुए बगैर ये गाड़ी पटरी पर आगे दौड़ ही नहीं सकती.अगर पार्टी को एक बड़े चेहरे के दम पर वोट नहीं मिलेंगे, तो वह उससे छुटकारा पाने में जरा भी देर नही लगाती.और यदि उस सितारे के अपने निजी मकसद पूरे न हो रहें हों,तो वह भी पार्टी को अलविदा करने में ज्यादा सोच-विचार नहीं करता.शत्रुघ्न सिन्हा और बाबुल सुप्रियो इसके ताजा उदाहरण हैं.एक ने बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस का हाथ थामा, तो दूसरे ने ममता बनर्जी के साथ जाने में ही अपनी भलाई समझी.

बहरहाल, कोरोना की दूसरी लहर जब देश में अपना कहर बरपा रही थी,तब जरुरतमंदों खासकर प्रवासी मजदूरों की मदद करते हुए एक तस्वीर आपने जरुर देखी होगी.वह फ़िल्म अभिनेता सोनू सूद थे,जिनकी उस मदद को लेकर तब ये सवाल भी उठे थे कि आखिर ये सब करने के लिए उनके पास इतना पैसा कहां से आ रहा है.उस दौरान अटकलों व कयास लगाने वालों का बाज़ार गरम था.किसी ने कहा कि बीजेपी उन्हें ये पैसा उपलब्ध करा रही है तो कइयों ने कहा कि इसके पीछे अरविंद केजरीवाल का दिमाग है क्योंकि वे आगे की यानी पंजाब के विधानसभा चुनाव की सोच रहे हैं क्योंकि सोनू सूद को एक बड़े चेहरे के तौर पर आम आदमी पार्टी चुनांवी-मैदान में उतारने की तैयारी में है.

हालांकि सोनू सूद ने ऐसे आरोपों पर कभी कोई सफाई नहीं दी बल्कि सोमवार को उन्होंने किसी भी पार्टी का दामन थामने वाले कयासों को एक तरह से झुठला दिया.अलबत्ता,उनकी बहन मालविका सूद जरुर कांग्रेस में शामिल हो गईं.वैसे पिछले महीने ही वे मीडिया को ये इशारा दे चुके थे कि उनकी बहन चुनाव लड़ सकती हैं लेकिन इसका खुलासा नहीं किया था कि वे किस पार्टी से उम्मीदवार बनेंगी.

पंजाब के सियासी इतिहास में शायद ये पहला मौका था,जब एक फिल्मी सितारे की बहन को अपनी पार्टी में शामिल करने के लिए सूबे के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवतोज सिंह सिद्धू  मालविका सूद के घर पहुंचे और उन्हें कांग्रेस की सदस्यता दिलाई. इस दौरान सोनू सूद भी घर पर ही मौजूद रहे. हालांकि वह सीएम चन्नी और नवजोत सिद्धू के साथ डायस पर नहीं गए लेकिन बाद में,उन्होंने इन दोनों नेताओं के साथ सामूहिक तस्वीर खिंचवाने में कोई परहेज नहीं किया.इससे संदेश साफ है कि भाई की रजामंदी से ही बहन ने कांग्रेस का हाथ थामा है.

पंजाब में अगले महीने 14 फरवरी को चुनाव हैं और ऐसी चर्चा  हैं.कि पार्टी मालविका सूद को मोगा शहर से चुनाव लड़वा सकती है.इसकी वजह भी है क्योंकि हर राजनीतिक दल किसी भी नए चेहरे पर अपना दांव लगाने से पहले अपना नफा तो देखता ही है लेकिन साथ ही ये भी नाप तौल कर लेता है कि उसका नाता अगर चर्चित परिवार से है,तो आसपास की कितनी सीटों पर पार्टी को उसका फायदा मिल सकता है. दरअसल, 38 बरस की मालविका, सोनू सूद की सबसे छोटी बहन हैं.मोगा शहर में उनकी लोकप्रियता सिर्फ इसलिए नहीं है कि वे अंग्रेजी का कोचिंग सेंटर चलाती हैं,बल्कि लोग उनकी तारीफ इसलिये करते हैं कि उन्होंने उस शहर में शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समाज सेवा करके अपनी एक अलग पहचान बनाई है. चूंकि सोनू सूद के माता-पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. लिहाज़ा, भाई-बहन ने मिलकर अपने माता-पिता की याद में  सूद चैरिटी फाउंडेशन बना रखा है,जिसके जरिये वे जरूरतमंदों की मदद करती हैं.पार्टी की सदस्यता दिलाते वक़्त सिद्धू ने तो ये दावा तक कर दिया कि वे खुद तो चुनाव जीतेंगी ही लेकिन आसपास की कई सीटों पर पर भी इसका असर होगा,इसलिये वे कांग्रेस के लिए गेम चेंजर साबित होंगी.

इससे पहले सिद्धू ने क्रिकेट के सितारे हरभजन सिंह को भी कांग्रेस में शामिल होने और जालंधर की किसी सीट से चुनाव लड़ने के लिए राजी कर लिया है.इसलिये देखना ये है कि इन सितारों के दम पर कांग्रेस क्या अपना किला बचा पायेगी?

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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