पंजाब की सियासत जिस तरह से हर दिन एक नया रंग दिखा रही है,वह कांग्रेस को इसलिये मुश्किलों का पहाड़ बनता दिख रहा है कि अगले पांच साल के लिए वो अपने इस किले को आखिर कैसे बचा पायेगी.पार्टी के प्रदेश मुखिया और अपने बड़बोले बोलों के लिए मशहूर नेता नवजोत सिंह सिद्धू की पत्नी नवजोत कौर ने कल जिस अंदाज में अपनी बातें मीडिया के सामने रखी हैं,उससे ये अंदाजा लग चुका है कि सिद्धू मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की रेस से बाहर हो चुके हैं.इसलिये पंजाब के सियासी गलियारों में अब बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि सिद्धू राजनीति को 'गुड बॉय' करने से पहले कांग्रेस को फतह दिलाएंगे या फिर चमकौर साहिब की लड़ाई के खलनायक बन जाएंगे?
हालांकि कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि वो 6 तारीख को पंजाब में अपने सीएम के चेहरे का एलान करेगी.लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को दो सीटों से लड़ाने का फैसला करते ही लगभग ये तय हो गया था कि कांग्रेस इस बार चन्नी पर ही अपना दांव खेलने के मूड में है.रही-सही कसर सिद्धू की पत्नी नवजोत कौर ने ये कहकर पूरी कर दी कि "नवजोत सिंह सिद्धू एक हीरो हैं और वह हमेशा हीरो रहेंगे. इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन सीएम होगा. सिर्फ एक चीज मायने रखती है कि जो भी सीएम बने, वह मंत्रियों की जरूर सुने, उनकी फाइल साइन करे और काम करने दे." सियासी हलकों में इस बयान को बेहद महत्वपूर्ण व गंभीरता से इसलिये लिया जाएगा क्योंकि इसमें शिकायत होने के साथ ही अपनी दावेदारी की लिए घुटने टेकने का दर्द भी साफ झलक रहा है.उनके इस बयान से कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि चूंकि गांधी परिवार ने सिद्धू को अपना फैसला बता दिया है,लिहाज़ा खुद मीडिया को इसका इशारा देने की बजाय उन्होंने अपनी पत्नी को आगे कर दिया.
हालांकि वे भी एक मंझी हुई राजनीतिज्ञ हैं और पति की तरह वे भी कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार में सूबे की पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री रह चुकी हैं. लेकिन नवजोत कौर ने एक न्यूज चैनल को दिये इंटरव्यू में एक और बड़ी बात कहकर कांग्रेस में खलबली मचा दी है, जिसे लेकर सवाल उठ रहा है कि चुनाव ख़त्म होने के बाद नवजोत सिद्धू राजनीति में ही रहेंगे या फिर पार्टी को अलविदा कह जाएंगे.वह इसलिये कि उन्होंने अपनी दिल की बात जुबान पर लाते हुए साफ कह दिया है कि "इस बार हमें यानी दोनों पति -पत्नी को अगर यदि पंजाब की सियासत में मौका नहीं मिलता है तो हम दोनों ही मूल व्यवसाय में लौटने पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं."
मौजूदा राजनीति के माहौल में नवजोत कौर के इस बयान को इसलिये भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए क्योंकि आम धारणा ये बन चुकी है कि राजनीति में आने का मतलब ही है कि ताकत पाने के साथ ही बेशुमार दौलत इकट्ठी करना.लेकिन नवजोत कौर ने कल कहा कि " मैं हर महीने 5 से 10 लाख रुपये कमाती थी, जबकि नवजोत सिद्धू को एक घंटे के लिए 25 लाख रुपये मिलते थे.लिहाज़ा ऐसे आर्थिक फायदे छोड़ना इतना आसान नहीं है. इसलिए अगर इस बार हमें मौका नहीं मिला तो हम गंभीरता से अपने प्रोफेशन में वापस जाने पर विचार कर रहे हैं. हम अपने व्यवसायों में कड़ी मेहनत करते हैं और दुनिया में कहीं भी जा सकते हैं. नवजोत कौर कहती हैं कि निजी तौर पर हमें लोगों की सद्भावना के अलावा राजनीति से कुछ भी हासिल नहीं होता है और हम देश के लोगों के लिए कुछ करना चाहते हैं."
गौरतलब है कि 2012 में राजनीति में कूदने से पहले नवजोत कौर पेशे से डॉक्टर रही हैं.इसलिये उनके इस बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता. वैसे कांग्रेसी सूत्रों की मानें, तो पार्टी अपने शक्ति ऐप के जरिए कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया ले रही है कि अगले सीएम का चेहरा किसे बनाया जाये. हालांकि पार्टी ने इस मुद्दे पर आम लोगों की राय भी मांगी है और यह प्रक्रिया पिछले तीन दिन से चल रही है लेकिन इसे आईवाश करने की कवायद ही बताया जा रहा है.
उसकी वजह भी है.दरअसल,पंजाब ऐसा सूबा है जहां चुनाव के वक़्त उत्तरप्रदेश से भी ज्यादा दलित राजनीति की भूमिका बेहद अहम होती है और उसमें भी दलित सिख कई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. विधानसभा की 117 सीटों में से 30 सीटें तो अनुसूचित जाति के लिए ही आरक्षित हैं.लेकिन मोटे अनुमान के मुताबिक तकरीबन 50 सीटों पर सिख दलितों का असर रहता है और वही हार-जीत का फैसला भी करते हैं.हमेशा से पंजाब का मालवा क्षेत्र ही ये तय करता आया है कि सूबे की सत्ता किसे सौंपनी है क्योंकि इस इलाके में सबसे ज्यादा यानी 69 सीटें हैं. साल 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने इसी क्षेत्र की 40 सीटें जीतकर अपनी सरकार बनाई थी.
लेकिन एक और खास बात ये भी है कि इसी क्षेत्र में विभिन्न गुरुओं के कई डेरे हैं, इसलिये कहते हैं कि यहां एक तरह से डेरों की राजनीति हावी रहती है.मोटे अनुमान के मुताबिक मालवा क्षेत्र के 13 जिलों में 35 लाख से भी ज्यादा डेरा प्रेमी हैं लेकिन खास बात यह है कि दलित सिख ही इनमें ज्यादा जाते हैं.मतदान से पहले अपने शिष्यों के लिए डेरा प्रमुख से निकला एक फरमान ही किसी भी राजनीतिक दल की किस्मत बदल देने के लिए काफी है.राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि डेरा प्रेमी अक्सर किसी भी पार्टी को एकमुश्त ही वोट देते आये हैं.यही कारण है कि कोई भी पार्टी इन डेरों की अहमियत को अनदेखा नहीं करती और चुनाव के वक़्त कमोबेश हर उम्मीदवार इनके द्वार पर अपने लिए वोटों का आशीर्वाद मांगने जरुर जाता है. उस लिहाज से देखें,तो फिलहाल डेरा राजनीति में कांग्रेस को इसलिये थोड़ा आगे माना जा सकता है क्योंकि सीएम चन्नी का नाता भी इसी दलित समुदाय है.
पंजाब की कुल आबादी में दलितों की हिस्सेदारी एक तिहाई से भी कुछ ज्यादा ही है और इसे कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक माना जाता है.यही वजह थी कि चुनाव से ऐन पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर पार्टी ने एक दलित चेहरे को सीएम बनाकर भविष्य के लिए ही अपना सियासी दांव खेला था.अब उन्हें दो विधानसभा सीटों चमकौर साहिब और भदौड़ से मैदान में उतारकर पार्टी ने सिद्धू समेत सारे नेताओं को ये संदेश दे दिया है कि अगले सीएम का चेहरा भी चन्नी ही होंगे. पर,बड़ा सवाल ये है कि प्रियंका-राहुल गांधी की जोड़ी सिद्धू पाजी को आखिर कैसे मनाएगी? मान लीजिए कि अगर पार्टी को दोबारा सत्ता मिल भी गई तो क्या चन्नी के जूनियर बनने के लिये सिद्धू राजी हो जाएंगे या फिर अपनी पुरानी ग्लैमर की दुनिया में लौट जाएंगे?
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