साल 2024 के लोकसभा चुनावों का सेमी फाइनल माने जाने वाले पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने एक नया सियासी इतिहास रचा है. दो राज्यों के मौजूदा मुख्यमंत्री और कई पूर्व मुख्यमंत्री समेत पार्टियों के दिग्गज नेता ही अगर अपना चुनाव हार जायें, तो इसका संदेश साफ है कि देश में एक नई तरह की राजनीति ने अपनी जगह बना ली है,जहां वोटर पार्टियों के लुभावने वादों से ज्यादा उसके किये काम पर भरोसा करता है. उत्तरप्रदेश की चर्चा अलग से करेंगे लेकिन पंजाब में आम आदमी पार्टी की सुनामी ने साबित कर दिखाया कि वहां की जनता ने केजरीवाल सरकार के 'दिल्ली मॉडल' को सिर्फ पसंद ही नहीं किया बल्कि पिछले कई दशकों से बारी-बारी से राज करने वाली कांग्रेस और अकाली दल को उनकी हैसियत का आईना दिखाने में ज़रा भी कंजूसी नहीं बरती. पंजाब के नतीजों ने एक तरह से साल 2015 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों को से दोहराया है,जब आप को 70 में से 67 सीटों पर ऐतिहासिक जीत मिली थी.


महज सात साल के भीतर अरविन्द केजरीवाल का इतनी तेजी से उभरता हुए ग्राफ को देश की राजनीति में एक नए प्रयोग के रुप में देखा जाना चाहिए. दिल्ली के बाद पंजाब की जनता ने जिस दरियादिली से केजरीवाल के वादों पर भरोसा जताया है,वह दोनों बड़ी पार्टियों के मुंह पर तमाचा तो है ही लेकिन साथ ही वो ये भी जताता है कि लोग ईमानदार राजनीति करने वालों को नेताओं की भीड़ से हटकर एक अलग पहचान देने से परहेज नहीं करते.


उसमें कोई शक नहीं कि पंजाब में मिली ऐतिहासिक जीत के बाद केजरीवाल देश की राजनीति में एक बड़ा चेहरा बन गए हैं और साल 2024 के लोकसभा चुनावों में संयुक्त विपक्ष में उनकी भूमिका भी बेहद अहम होगी.अभी तक संयुक्त विपक्ष की धुरी ममता बनर्जी के इर्द गिर्द ही घूम रही थी लेकिन अब एक केजरीवाल इसमें एक बड़े प्लेयर बन जाएंगे.अगले महीने होने वाले राज्यसभा के चुनावों में पंजाब से पांच सीटें खाली हो रही हैं.लिहाज़ा इनमें से चार सीटें तो आप के लिये तय हैं एयर कांग्रेस को अपनी एक सीट निकालने के लिए भी आप की बैसाखी की जरुरत पड़ेगी.फिलहाल राज्यसभा में आप के तीन सदस्य हैं लेकिन अब वहां भी उसकी संख्या बढ़ने से उच्च सदन में विपक्ष की आवाज़ और मुखरता से सुनाई देगी.


दरअसल,पंजाब में सालों तक तक राज करने वाली कांग्रेस और अकाली दल केजरीवाल के जमीनी राजनीति के गणित को समझने में नाकामयाब रहे.चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस ने चरनजीत सिंह चन्नी को सूबे के मुख्यमंत्री बनाकर जो दलित कार्ड खेला था,वह भी पूरी तरह से फ्लॉप रहा.परंपरागत रुप से कांग्रेस का साथ देते रहे दलितों ने इस बार आप पर एक तरह से आंख मूंदकर भरोसा किया.मालवा और दोआबा में आप को मिली ऐतिहासिक जीत ने अकालियों व कांग्रेस के मजबूत गढ़ों को कुछ ऎसा ध्वस्त किया,जिसकी इतनी उम्मीद शायद केजरीवाल को भी नहीं थी.आप को मिली इस ऐतिहासिक जीत में वहां की महिलाओं का सबसे बड़ा योगदान रहा.18 साल से ज्यादा उम्र की हर महिला को हर महीने एक हजार रुपये देने का वादा केजरीवाल के लिए सबसे बड़ा गेम चेंजर साबित हुआ.लेकिन बड़ी बात ये है कि  केजरीवाल महिलाओं को ये भरोसा दिलाने में कामयाब रहे.


लेकिन केजरीवाल की तारीफ इसलिये भी की जानी सियासी चक्रव्यूह को भेदने के लिए जो चुनांवी रणनीति उन्होंने दिल्ली में बनाई थी,ठीक उसे ही पंजाब में भी अंजाम दिया.यानी तमाम दिग्गज़ नेताओं के खिलाफ उन्होंने अपने ऐसे चेहरों को मैदान में उतारा,जिनकी कोई सियासी पहचान  नहीं थी और बमुश्किल ही लोग उन्हें पहचानते थे.यही वजह रही कि कई दिग्गज उम्मीदवार चारों खाने चित हो गए. जिनमें सबसे बड़ा नाम सीएम चरणजीत सिंह चन्नी का है, जो अपनी दोनों सीटों से चुनाव हार गए. लेकिन मुख्यमंत्री को भदौर सीट से हराने वाले आप उम्मीदवार लाभ सिंह उगोके पंजाब की एक मोबाइल रिपेयर की दुकान में काम करते हैं. इतना ही नहीं उनकी माता जी एक सरकारी स्कूल में बतौर सफाई कर्मचारी काम करती हैं. वहीं पिता खेतों में मजदूरी करते हैं. यही जानकारी आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने जीत के बाद दी और कहा कि, एक आम आदमी सोचता है कि वो क्या कर सकता है, लेकिन अगर चाहे तो आम आदमी कुछ भी कर सकता है. 


आम आदमी पर भरोसा करके उस पर अपना दांव लगाने की केजरीवाल की राजनीति की यही खूबी उन्हें बाकी बड़ी पार्टियों से अलग करके एक नए मुकाम की तरफ ले जाती है.लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में भी क्या केजरीवाल यही प्रयोग दोहराएंगे?



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