पंजाब: सिमरनजीत सिंह मान की जीत से क्या फिर गूंजेगी 'खालिस्तान' की आवाज़?

महाराष्ट्र में मची सियासी महाभारत के बीच लोकसभा के उप चुनावों ने चौंका दिया है.उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी का गढ़ माने जाने वाली रामपुर और आज़मगढ़ सीट पर जहां बीजेपी ने कब्ज़ा कर लिया है तो वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी की एकमात्र संगरुर सीट उसके हाथ से खिसक गई है. यही नतीजा कुछ ज्यादा चौंकाने वाला और थोड़ी चिंता भी पैदा करने वाला है.
इसलिए कि इस सीट से चुनाव जीते सिमरनजीत सिंह मान को खालिस्तान आंदोलन का सबसे बड़ा समर्थक समझा जाता है. वे 33 साल पहले 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह सरकार के दौरान भी पंजाब की तरनतारन सीट से पहली बार सांसद चुने गए थे और तब जेल में रहते हुए ही उन्होंने वो चुनाव जीता था. लेकिन तब वे इस बात पर अड़ गए थे कि अपनी तीन फुट लंबी कृपाण (तलवार) के साथ ही वे संसद में प्रवेश करेंगे. लंबी जद्दोजहद के बाद भी उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली. इसका विरोध जताते हुए उन्होंने सदन की किसी बैठक में हिस्सा लिए बगैर ही अपनी सांसदी से इस्तीफा दे दिया था.
इस बार फिर वे लोकसभा के सदस्य चुन लिए गए हैं, इसलिए सवाल उठ रहा है कि वे अपनी पुरानी जिद को दोहराने की गलती करेंगे या फिर कानून में मिली इजाज़त के मुताबिक छह इंची कृपाण के साथ ही संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए तैयार होंगे? अलग खालिस्तान की मांग के समर्थन के सबसे बड़े पैरोकार रहे मान 1967 बैच के आईपीएस अधिकारी रहे हैं. लेकिन जून 1984 में जरनैल सिंह भिंडरावाले और उसके आतंकी साथियों का सफाया करने के लिए इंदिरा गांधी सरकार द्वारा स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के विरोध में इन्हीं मान ने आईपीएस की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और बाद में, राजनीति में कूद पड़े.
सिमरनजीत सिंह मान की ये जीत पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ा झटका है क्योंकि संगरुर को भगवंत मान का सबसे मजबूत गढ़ माना जाता है.वे यहीं से 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव जीते थे.इसलिए सवाल उठ रहा है कि एक झटके में पूर्ण बहुमत के साथ आम आदमी पार्टी को सूबे की सत्ता सौंप देने वाली संगरुर की जनता को आखिर ऐसा क्या हुआ कि महज सौ दिनों में ही उन्हें इतने करारे सियासी तमाचे का दर्द झेलने पर मजबूर होना पड़ा?
हालांकि ये झटका अपनी जगह है लेकिन चिंता इस बात की है कि साढ़े तीन दशक बाद चरमपंथी ताकतें क्या फिर से पंजाब में अपना सिर उठाने लगेंगी? विदेशों में बैठे अलगावादी संगठन इन ताकतों को पनपने के लिए क्या फिर से अपना खाद-पानी देने में तेजी ले आएंगे? और,बड़ा सवाल ये भी कि चूंकि पंजाब देश का सीमावर्ती राज्य है, लिहाज़ा, आतंक फैलाने में माहिर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए ये अदद चुनावी जीत क्या उसका हौंसला औऱ ज्यादा नहीं बढायेगी?
इन सारे सवालों का जवाब तलाशने के लिए हमें सिमरनजीत सिंह के दिये उस बयान पर थोड़ा बारीकी से गौर करना पड़ेगा,जो उन्होंने अपनी जीत के बाद मीडिया के आगे दिया है. शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के सर्वेसर्वा सिमरनजीत सिंह मान ने संगरूर लोकसभा सीट जीतने के बाद अपनी जीत का श्रेय अपने कार्यकर्ताओं और जरनैल सिंह भिंडरांवाले की तालीम की जीत को देते हुए कहा है कि "जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने शांतिपूर्ण संघर्ष के ज़रिए जीने का जो रास्ता बताया था, यह उसी की जीत है." हालांकि उन्होंने ये भी दावा किया कि, ''हमने कांग्रेस, अकाली दल और आप जैसी सभी प्रमुख पार्टियों की कमर तोड़ दी है. और इस जीत का असर विश्व राजनीति पर भी पड़ेगा. लंबे अरसे के बाद उनकी पार्टी की जीत हुई है. लोगों का साहस ऊंचा है और वे चुप नहीं बैठेंगे.''
उनके इस बयान को जरा दोबारा पढ़ने की ज़हमत उठाइये और उससे पहले मैंने ऊपर जो तीन सवाल उठाये हैं,उन सबका जवाब मान के सिर्फ एक बयान में छुपा हुआ है.मीडिया के सामने बेखौफ होकर कही उनकी इन बातों के बाद कोई और नया कयास लगाने या फिर किन्तु-परंतु करने की कोई गुंजाइश बचती है क्या? बेशक हमारा लोकतंत्र बहुत उदार है लेकिन सोचने वाली बात ये भी है कि पिछले दो दशकों से जो शख्स सियासत के हाशिये पर रहा हो,और अचानक वही 'माननीय' बन जाये, तो इसका मतलब है कि एक खास जिले की जनता कट्टरवादी विचारधारा को आज भी मानती है और आने वाले दिनों में इसका असर आसपास के जिलों में भी देखने को मिले, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए.
हम इसका सच नहीं जानते लेकिन पंजाब के इस उप चुनाव में ये चर्चा आम थी कि पंजाबी के मशहूर गायक सिद्धू मूसेवाला अगर जिंदा होते,तो वे सिमरनजीत सिंह मान के लिए लोगों से वोट मांग रहे होते. शायद इसीलिए मान अपनी इस जीत के बाद पंजाब की जवानी की धड़कन समझे जाने वाले उन दो कलाकारों को भी याद करना नहीं भूले. मान ने बीती फरवरी में हुए एक सड़क हादसे में जान गंवाने वाले अभिनेता दीप सिंह सिद्धू और पिछले महीने गोली मारकर बेरहमी से हत्या किए गए पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला को भी याद किया. उन्होंने कहा, ''दीप सिंह सिद्धू और सिद्धू मूसेवाला ने अपनी जो गवाही दी, जिससे पूरी दुनिया में सिख समुदाय को फायदा हुआ है. भारत में अब सिख समुदाय के साथ वैसा बर्ताव नहीं हो सकता जैसा कि मुसलमानों के साथ होता है.''
बीते मार्च में हुए पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान वहां के एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र से मैंने पूछा था कि ,इस चुनाव में ऐसा क्या अलग दिख रहा है,जो आपने पहले कभी न देखा हो? उनका जवाब था कि "पूरे पंजाब में शहीद भगत सिंह की इतनी तस्वीरें बिक चुकी हैं,जो आजादी के इन 75 सालों में पूरे देश में कभी नहीं बिकी होंगी.तकरीबन हर शहर की प्रिंटिंग प्रेस में वो कई बार री प्रिंट हो रही है और सारे मालिक इसलिए खुश हैं कि 'आप' इस मुकाबले में उतर आई है.यही उनकी सबसे बड़ी टीआरपी बन गई है लेकिन अगर 'आप' सत्ता में आती है,तो ये भगवंत मान और अरविंद केजरीवाल की नहीं बल्कि शहीद भगत सिंह को फिर से जिंदा करने की जीत होगी."
देखिये, हुआ भी ऐसा ही. लेकिन अब डर ये है कि सिमरनजीत सिंह मान के आने के बाद जरनैल सिंह भिंडरावाले की तस्वीरें भी उसी तरह न बिकने लगें! इसे अरदास कहो,प्रार्थना या फिर दुआ लेकिन सबका मकसद एक ही है कि ये डर ही गलत साबित हो जाये.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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