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इस संकट से आखिर कैसे पार पाएंगे नवजोत सिंह सिद्धू ?

Punjab Political Crisis blog: क्रिकेट के मैदान से लेकर  फिल्मों व टीवी शो की जगमगाती दुनिया के सितारों का राजनीति में कूदना और फिर उस लोकप्रियता के दम पर अपना पहला चुनाव जीतकर ही संसद में पहुंचना अब कोई नई बात नहीं रही. लेकिन सियासत का असली इम्तिहान तब होता है, जब पार्टी की कमान आपके हाथ में हो और फिर चुनावी जंग जीतने की मुश्किलों भरी चुनौती भी सामने हो. कुछ ऐसा ही नज़ारा पंजाब कांग्रेस की कमान संभालने वाले नवजोत सिंह सिद्धू के सामने है जहां उनका पाला सियासत रूपी शतरंज की उस बिसात से पड़ने वाला है जहां हर पल शह-मात देने की ऐसी चालें चली जाती हैं,जो खेल ख़त्म होने के बाद ही पता लगती हैं.इसलिये अहम सवाल ये है कि मैदान में सिक्सर लगाने और कॉमेडी शो में हंसी के गुब्बारे फोड़ने वाले सिद्धू राजनीति की इस कुटिलता में किस हद तक कामयाब हो पायेंगे?

राजनीति में अक्सर ऐसी जिम्मेदारी ऊपर से थोपी जाती है, खासकर उन प्रदेशों में जहां आलाकमान को लगता है कि चुनाव सिर पर हैं और पार्टी की हालत पतली है, लिहाज़ा किसी एक को तो बलि का बकरा बनाना ही पड़ेगा. लेकिन पंजाब का मामला तो बिल्कुल उल्टा है. यहां तो सिद्धू ने इस चुनौती को लड़-झगड़कर लिया है या कह सकते हैं कि तमाम विरोध के बावजूद इसे हथियाया है. तो इसे क्या समझा जाये कि सिद्धू को अपनी सियासी काबिलियत पर इतना भरोसा है या मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का बिना शर्त के पूरा साथ मिलने का यकीन है या फिर ये उनका ओवर कॉन्फिडेंस है? इसका सही जवाब तो अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनावी-नतीजे ही देंगे. लेकिन इस सच को मानने से किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि पंजाब की सियासत की नब्ज़ समझने वाले कैप्टन के मुकाबले सिद्धू की हैसियत फिलहाल एक नए खिलाड़ी की ही है.

पंजाबी में कहते हैं कि अगर दोनों के बीच इतने मक्खन-मिश्री वाले रिश्ते होते, तो फिर चुनाव से पहले इतना 'स्यापा' करने की जरूरत ही भला क्यों पड़ती. लिहाजा इतनी समझ तो पंजाब के लोगों में भी है कि भले ही मजबूरीवश कैप्टन ने लड़ाई के इस पहले राउंड में अपनी हार मान ली हो लेकिन वे पूरी बाज़ी अपने हाथ से यों ही नहीं जाने देने वाले हैं. इसलिये कहते हैं सियासत ऐसा खेल है जहां आख़री राउंड ही आपकी तक़दीर का फैसला करता है. सिद्धू के सामने असली संकट तो अब आने वाला है. अगले कुछ महीने में विधानसभा के उम्मीदवारों के नाम पर फैसला होना है, जिसे लेकर दोनों खेमों की कड़वाहट एक बार फिर उजागर होगी.

सिद्धू की इस सारी लड़ाई का एकमात्र लक्ष्य ही यही था कि प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद वे अपने अधिकतम समर्थकों को विधानसभा का टिकट दिलवाने में कामयाब होंगे क्योंकि उनकी निगाह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी हुई है. लेकिन ये कामयाबी मिलना उतना आसान इसलिये नहीं लगता कि कैप्टन पूरी ताकत लगा देंगे कि सिद्धू समर्थकों को एक तय संख्या से ज्यादा उम्मीदवार न बनाया जाये. क्योंकि वे इतने मासूम तो हैं नहीं, जो सिद्धू के अगले सीएम बनने के सपने से वाकिफ़ न हों. लिहाजा पटियाला के महल से शुरू होने वाली वर्चस्व की ये लड़ाई एक बार फिर दिल्ली पहुंचेगी. देखना होगा कि तब गांधी परिवार इसे सुलझा पायेगा या फिर भितरघात के चलते पंजाब का किला ही खो देगा? इतना तय है कि जो भी खेमा टिकट-बंटवारे से नाराज होगा, वो भितरघात करने से चुकेगा नहीं. इसलिये ये सिद्धू के साथ पार्टी के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती होगी. 

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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