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PV Narasimha Rao Birth Anniversary: नरसिम्हा राव ना होते तो भारत की हालत पाकिस्तान जैसी होती !

जन्म जयंती पर आज उस प्रधानमंत्री की कहानी जिसने असल मायने में हिंदुस्तान की तकदीर बदलकर रख दी. वो प्रधानमंत्री जिसके पास पूरी ताकत नहीं थी, जो आधा शेर था. फिर भी हिंदुस्तान के ख्वाबों की ताबीर बदल दी. वो जिनके व्यक्तित्व में नेहरू, इंदिरा, राजीव जैसा करिश्मा नहीं था, ना ही मोदी जैसा जादुई भाषण देना आता था,लेकिन फिर भी वो कर गए जिसकी ऋणी पीढ़ियां रहेंगी... हालांकि, उनके कार्यकाल के दौरान लोकतंत्र के माथे पर ऐसा धब्बा लगा जिसकी काली छाया से उनकी छवि कभी भी बाहर नहीं निकल पाई.  

संन्यासी से सम्राट...
अप्रैल 1991 में कांग्रेस के टिकट बांटे जा रहे थे, गांधी परिवार के नजदीकी संकेत दे रहे थे कि राजीव गांधी युवा मंत्रीमंडल की योजना बना रहे हैं. लगातार 8 बार सांसद रह चुके नरसिम्हा राव बूढ़े हो चुके थे, उनका पत्ता कट चुका था, वो भी ये समझ चुके थे और अपनी महाराष्ट्र की रमटेक सीट दूसरे को देने का आग्रह खुद से कर दिया. राव का बोरिया बिस्तर भारतीय राजनीति से लगभग सिमट चुका था, सामान पैक हो गया, 45 कार्टन में पैक उनकी हजारों किताबें एक बड़े से ट्रक में लदकर हैदराबाद के लिए रवाना हो चुकी थीं. मगर उनके एक नौकरशाह दोस्त, जो शौकिया ज्योतिषी थे, उन्होंने हौसला बढ़ाने के लिए कहा कि अपना सामान यहीं छोड़ दें, मेरी भविष्यवाणी है कि आप वापस आने वाले हैं. अब तक नरसिम्हा राव को एक हिंदू मठ कोर्टलम का मठाधीश बनने का प्रस्ताव मिल चुका था, एक राजनेता अब संन्यासी बनने की ओर बढ़ रहा था. फिर आती है 1991 की तारीख...21 मई

इतिहास बदल गया...
उस दिन नरसिम्हा राव नागपुर में थे और राजीव गांधी तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में चुनाव प्रचार कर रहे थे, एक धमाका हुआ और सबकुछ हमेशा के लिए बदल गया.
राव को रात होते-होते खबर मिली और सदमे में आ गए, उस रात वो सो नहीं पाए. उगते सूरज के साथ ही महात्मा गांधी के पोते और राष्ट्रपति वेकेंटरमन के संयुक्त सचिव गोपालकृष्ण गांधी की नींद एक ट्रंक कॉल से खुली, फोन पर नरसिम्हा राव थे.दुखभरी आवाज ने पूछा '' ये क्या हो गया गोपाल ? उत्तर आया...''इतिहास ने करवट बदल दी है''
और वाकई इतिहास बदल चुका था, राजीव गांधी की लाश के बरक्स उत्तराधिकारी की तलाश शुरू हो चुकी थी. उनकी पत्नी सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग जोर पकड़ चुकी थी, पार्टी अध्यक्ष मतलब अगला प्रधानमंत्री. लेकिन पति के संताप में सोनिया ने खुद को इस राजनीति से अलग कर लिया. नेता की भूमिका निभाने की जगह निजी शोक मनाना बेहतर समझा. अब तक कांग्रेस पार्टी में महत्वकांक्षियों की कतार लग चुकी थी. शरद पवार, प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी और नरसिम्हा राव.भला कौन नहीं था जो प्रधानमंत्री बनना ना चाहता हो. और ये सब तब हो रहा था जब स्व.राजीव गांधी की अंत्येष्टि तक ना हुई थी, शायद यही राजनीति है, बिलकुल निर्दयी.

अंत्येष्टि के अगले दिन सोनिया गांधी ने नटवर सिंह को बुलाकर पूछा कि अगला नेता कौन होना चाहिए, नटवर सिंह ने सलाह दी कि वो पी.एन. हक्सर जो इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव रहे थे, उनसे सलाह लें. हक्सर ने अगले दिन सलाह दी कि शंकर दयाल शर्मा को अध्यक्ष बनाया जाए, लेकिन तब के उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अपनी उम्र और सेहत का हवाला देते हुए घोषित तौर पर नेता बनने से इनकार कर दिया या कहें प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकरा दी. फिर हक्सर ने पामुलपर्ति वेंकट नरसिम्हा राव का नाम सुझाया.क्योंकि हक्सर को पता था कि शरद पवार, अर्जुन सिंह जैसे दूसरे दावेदार पार्टी को तोड़ सकते हैं, जैसा आगे हुआ भी.लेकिन राव ऐसे बुद्धजीवी थे, जिनका कोई दुश्मन नहीं था और पार्टी को एकजुट रख सकते थे.

10 भाषाओं के ज्ञानी नरसिम्हा राव, सोनिया गांधी के पसंदीदा व्यक्ति नहीं थे लेकिन उनके तर्क में दिया हक्सर का पक्ष उन्हें समझ आ गया. वो दक्षिण भारतीय ब्राह्मण जो संन्यास की ओर बढ़ चुका था,यहीं से उसके सम्राट बनने के द्वार खुल गए. लोगों को लगता था राव बूढ़े हो चुके हैं और उनके हिस्से ज्यादा दिन बचे नहीं, कुछ दिनों बाद सोनिया वो कुर्सी संभाल लेंगी.लेकिन इतिहास ने अपने पन्नों के लिए कुछ और ही मुकर्रर कर रखा था.

राष्ट्रनिर्माता पीवी नरसिम्हा राव

बाकी बचे दो चरणों के चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली और कुल 232 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. अर्जुन सिंह और शरद पवार अब भी प्रधानमंत्री की रेस में बने हुए थे. दांव-पेंच बहुत हुए लेकिन कुर्सी तो राव की किस्मत में लिखी थी. 21 जून 1991 को राव देश के 9वें प्रधानमंत्री बन गए. प्रधानमंत्री बनते ही नरसिम्हा राव ने सबसे पहले देश की उन तमाम बेड़ियों को तोड़कर फेंक दिया, जो भारतीय अर्थव्यवस्था को सोना गिरवी तक रखने को मजबूर कर चुकी थीं.जिसके पास सिर्फ 2 हफ्ते का ही विदेशी मुद्रा भंडार बचा था. लेकिन अल्पमत वाले प्रधानमंत्री राव ने ना सिर्फ बहुमत साबित किया बल्कि लाइसेंस राज, परमिट राज को खत्म कर,  उदारीकरण को जन्म दिया. और इस काम में उनका साथ देने वाले थे उनके वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह. राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने अर्थव्यवस्था की काया पलट कर रख दी थी. अल्पमत की सरकार में नरसिम्हा राव ने वो किया जो प्रचंड बहुमत के साथ चाहते हुए भी राजीव गांधी 1984 की सरकार में नहीं कर पाए थे. मगर वो सब कुछ करना आसान नहीं था. अर्थव्यवस्था खोलने की किसी भी कोशिश को नरसिम्हा राव को अभी अपनी ही उदासीन कांग्रेस पार्टी, बंटी हुई संसद, घबराए हुए उद्योगपतियों, विरोध करती बीजेपी, शोर मचाते कम्युनिस्ट बुद्धजीवियों पर काबू पाना था.


अभी आपके घर में विदेशी टीवी, फ्रीज, मोबाइल, लैपटॉप, देश में विदेशी निवेश आना बाकी था. 28 जून को प्रधानमंत्री राव के जन्मदिन पर उन सभी घटनाओं को याद करना जरूरी है, जिसने असल मायने में देश की अर्थव्यवस्था को आजादी दिलाई. इस लेख में बस इतना जानते चलिए कि 1978 के अंत में चीनी राष्ट्रपति डेंग जियाओपिंग ने चीन अर्थव्यवस्था को जिस तरह घरेलू और विदेशी उद्यमों के लिए खोला, वो काम भारत में करीब 13 साल बाद हुआ.  जो नरसिम्हा राव ने 1991 से 1994 में किया वो काम डेंग 1978 में कर चुके थे. यही 15 सालों का फासला भारत और चीन की अर्थव्यवस्था आज भी बरकरार है. अगले लेख में उदारीकरण की बारिकियों को समझा जाएगा. 

उससे पहले ये जान लीजिए कि 1991 में मिडिल क्लास का आकंड़ा 2 करोड़ था, जो 2013 तक बढ़कर 30 करोड़ हो गया, 1991 तक 23 लाख किलोमीटर सड़कें थी, 2012 तक बढ़कर दोगुनी हो गई. 1991 में हवाई यात्रा करने वाले 1 करोड़ थे, जो 2012 में 8 करोड़ और 2019 में करीब 16 करोड़ हो गए. ये सब पूर्व प्रधानमंत्री  नरसिम्हा राव की नीतियों की देन है. भारत को विकास की बुलंदियों तक पहुंचाने की उनकी सोच, दुनिया से प्रतियोगिता करने की उनकी प्रतिबद्धता ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नए आयाम दिए. सड़कों पर चलती महंगी गाड़ियां, गगनचुंबी इमारतें, भारत में निवेश करती बड़ी विदेशी कंपनियां, सुविधाएं देते प्राइवेट बैंक ये सब नरसिम्हा राव के सोच की देन है, लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से भारत और पाकिस्तान में जो अंतर पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू थे, अर्थतंत्र के लिहाज से वही अतंर पी.वी. नरसिम्हा राव थे.

वक्त के साथ खुद चलाना, विरोधियों को अपने अनुरूप ढलाना कोई नरसिम्हा राव से सीखे. 28 जून यानी आज उनकी जयंती है, 2011 में जब उनकी जयंती थी तब मुट्ठी भर कांग्रेसी ही समारोह में शामिल हुए, उनके सच्चे साथी डॉ मनमोहन सिंह जरूर पहुंचे थे. अब देखिएगा, उनकी जयंती आज कैसे मनाई जाती है और कौन-कौन पहुंचता है.


सोर्स- ये लेख अशोका यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञानी विनय सीतापति की किताब 'Half Lion' में लिखे तथ्यों पर आधारित है.

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