कोरोना संकट के बीच ऑस्ट्रेलिया और भारत: नस्लवाद, उपनिवेशवाद और भू-राजनीति
एक समय था जब ब्रिटेन और अमेरिका के निर्धन श्वेत-बंधु ऑस्ट्रेलिया को लेकर भारतीयों के दिमाग में क्रिकेट के अलावा कभी खयाल नहीं आता था. तब तमाम खेलों में अपने प्रतिद्वंद्वियों को जबर्दस्त आक्रामक टक्कर देने के मामले में ऑस्ट्रेलिया की खूब प्रतिष्ठा थी. मुझे याद है कि 1970 के दशक में भारतीय कॉमेन्टेटर अपने खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर विलाप करते थे कि उनमें ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों जैसी ‘मारक प्रवृत्ति’ नहीं है. ऑस्ट्रेलिया को उसकी धरती पर हराने का लक्ष्य भारतीय टीम 30 साल में हासिल कर पाई, जबकि 1947-48 में पहली टेस्ट सीरीज के बाद तीस साल का लंबा अर्सा गुजर चुका था.
भारत ने ऑस्ट्रेलियाई जमीन पर भले ही 1977 में पहली टेस्ट विजय हासिल की परंतु ऑस्ट्रेलिया में सीरीज जीतने में उन्हें सत्तर बरस से अधिक का समय लग गया. भारत की यह सबसे शानदार विजय कुछ महीने पहले इसी साल जनवरी में हुई, जब ऑस्ट्रेलिया, भारत और लगभग पूरे विश्व को समान रूप से चौंकाते हुए ब्रिस्बेन के गाबा स्टेडियम में हमारी टीम ने तीन विकेट शेष रहते यह टेस्ट और श्रृंखला जीत ली. ऑस्ट्रेलिया इस मैदान पर 32 साल से किसी भी विदेशी टीम से नहीं हारा था.
ऑस्ट्रेलिया के लिए यह हार निश्चित ही चुभने वाली थी क्योंकि खास तौर पर पहले टेस्ट में भारत को बुरी तरह पराजित करने के बाद, उसने हर किसी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि भारत श्रृंखला के शेष मैचों में भी धूल-धूसरित नजर आएगा. लेकिन यह चुभन इतनी भी तीखी नहीं थी कि दोनों देशों के बीच भविष्य में घटनाएं बदसूरत मोड़ ले लें, मगर हाल के दिनों में ऐसा साफ नजर आया. इसकी शुरुआत हुई जब द ऑस्ट्रेलियन ने 26 अप्रैल को हेडिंग लगाई ‘मोदी ने भारत को लॉकडाउन से बाहर निकाला... और वायरस से पैदा कयामत में झोंक दिया’.
इसके एशियाई संवाददाता फिलिप शेरवेल ने तेजाबी लहजे में मोदी पर हमला करते हुए लिखा, ‘आलोचक कह रहे हैं कि अति-अहंकार, अति-राष्ट्रवाद और नौकरशाही के निकम्मेपन ने मिल-जुलकर यह हालात पैदा किए हैं. भीड़ को पसंद करने वाले प्रधानमंत्री आनंद में हैं और जनता का दम सचमुच घुट रहा है.’ शेरवेल की यह आवाज भारत समेत विश्व के अन्य देशों में सुनी गईः मोदी और उनके मंत्रियों ने न केवल जानबूझकर स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कोरोना की दूसरी लहर और नए वेरिएंट्स की चेतावनी को नजरअंदाज किया बल्कि अखबारों में फुल-पेज विज्ञापन दे-दे कर लोगों को कुंभ मेले में जाने के लिए यह कहते हुए प्रोत्साहित किया कि वहां पूरी स्वच्छता-सुरक्षा रहेगी, कोरोना का कोई खतरा नहीं है. मोदी और गृहमंत्री अमित शाह, दोनों ने पश्चिम बंगाल में चुनावी रैलियां की, जहां हजारों लोग मास्क पहने बगैर पहुंचे. रिपोर्ट में इस बात की तीखी आलोचना है कि कैसे भारत में टीकाकरण की धीमी रफ्तार, केंद्र सरकार के ‘घमंड’, राष्ट्रवादी राजनीति के जहर और स्वास्थ्य सिस्टम के भीषण विध्वंस ने देश को ‘कोविड के नर्क’ में बदल दिया.
मोदी की तीखी आलोचना करने वाला द ऑस्ट्रेलियन अकेला नहीं था. महामारी में मोदी के कुप्रबंध और सत्ता की संवेदनहीनता पर ऐसी तीखी टिप्पणियां दुनिया में हर तरफ नजर आईं. शेरविल का यह आलेख पहले द टाइम्स में प्रकाशित हुआ और उसके बाद द ऑस्ट्रेलियन में. लेकिन ऑस्ट्रेलियाई अखबार में यह लेख प्रकाशित होने के बाद कैनबरा में भारतीय हाई कमीशन ने आग उगलता हुआ प्रत्युत्तर तैयार किया.
भारतीय उपायुक्त ने अखबार के मुख्य संपादक को लिखा कि ‘यह पूरी तरह से आधारहीन, बदनाम करने वाला और निंदनीय आलेख है. जिसे तथ्यों की पड़ताल किए बगैर लिखा गया.’ उन्होंने कहा कि यह रिपोर्ट वैश्विक महामारी से निपटने के लिए पूरे संसार में सराहे गए भारत सरकार के प्रयासों को कमतर साबित करने के एकमात्र उद्देश्य से इस महत्वपूर्ण समय में लिखी गई है. इसके मात्र दो दिन बाद विदेश मंत्री एस.जयंशकर ने पूरे विश्व में भारतीय राजदूतों और उच्चायुक्तों के साथ वर्चुअल बैठक की और निर्देश दिए कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कहीं भी वर्तमान सरकार की अक्षमता और मोदी के अहंकार की बात पर होने वाले ‘एकतरफा’ कवरेज का आक्रामक जवाब दिया जाए.
मुद्दा यह है कि बीते वर्षों में भारतीय कूटनीति बदली है. यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि लंबे समय तक ‘नरम’ समझा जाने वाला भारत अब बदल गया है. मगर फिलहाल उसे परे रख कर बात करते हैं. द ऑस्ट्रेलियन में मोदी के खिलाफ लगाए गए आरोप पूरी तरह औचित्यहीन नहीं हैं और इसी तरह से भारतीय उच्चायोग का यह दावा कि भारत के महामारी से लड़ने के प्रयासों को ‘वैश्विक प्रशंसा’ मिली है, वर्तमान हालात में हास्यास्पद नहीं तो कुछ मसखरी जैसा लगता है. भारत संभवतः आखिरी देश होगा जिसके प्रयासों का कोई अनुकरण करना चाहेगा. यही नहीं, मार्च 2020 में मात्र चार घंटे के नोटिस पर देश में लगाए गए लॉकडाउन को कोई भी अमानवीय ही मानेगा. खैर, ऑस्ट्रेलिया ने भारत को अपने अंदाज में जवाब दिया.
सोमवार को उसने भारत से ऑस्ट्रेलिया की यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया और इसके नियम कठोर कर दिए. भारत में बढ़ते कोविड मामलों, नए वेरिएंट के फैलने और भारत सरकार को कोविड पर नियंत्रण पाने में अक्षम बताते हुए यह कहा कि किसी को भी भारत से ऑस्ट्रेलिया आने की इजाजत नहीं होगी, भले ही वे उसके अपने नागरिक क्यों न हों. किसी ने भी इस यात्रा प्रतिबंध का उल्लंघ किया तो पांच साल जेल और 60 हजार ऑस्ट्रेलियन डॉलर यानी करीब 35 लाख रुपये जुर्माने की सजा हो सकती है. वहां की विदेश मंत्री ने इस मुद्दे पर हुई आलोचना का जवाब देते हुए यह तथ्य रेखांकित किया कि ऑस्ट्रेलिया में पॉजिटिव पाए जाने पर क्वारंटीन किए गए लोगों में 57 फीसदी भारत से लौटे हैं. उन्होंने कहा कि इन हालात में हमारे यहां स्वास्थ्य और मेडिकल सेवाओं पर बहुत-बहुत बोझ पड़ा है.
यह यात्रा प्रतिबंध इस लिहाज से अभूतपूर्व हैं कि पहली बार ऑस्ट्रेलिया ने इसके उल्लंघन को आपराधिक श्रेणी में रखा और अपने नागरिकों तथा स्थाई निवासियों पर देश लौटने की रोक लगाई. हालांकि ऑस्ट्रेलियाई सरकार ऐसा नहीं स्वीकारेगी या कहेगी, मगर बड़े पैमाने पर भारत में फंसे ऑस्ट्रेलियाई लोगों में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के ही हैं. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के पास इस प्रतिबंध के हक में यह मजबूत सुरक्षा-कवच-तर्क है कि इसमें किसी तरह का नस्लीय भेद-भाव नहीं किया जा रहा क्योंकि ऐसा ही प्रतिबंध वहां चीन से आने/लौटने वाले लोगों पर भी लगाया गया है. यद्यपि यह पूर्ण सत्य नहीं है. ऑस्ट्रेलिया ने चीन से लौटने वाले अपने नागरिकों और स्थाई निवासियों की वापसी को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा.
आलोचकों ने इस तरफ ध्यान दिलाया है कि अमेरिका और ब्रिटेन भी मारक वायरस के संक्रमण से जूझ रहे हैं, परंतु ऑस्ट्रेलिया ने इन देशों को लेकर अपने यहां ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं लगाया. विधि विशेषज्ञों ने ऑस्ट्रेलियाई सरकार के इस कदम की संवैधानिक वैधता पर भी सवाल उठाए. ऑस्ट्रेलियाई मानवाधिकार आयोग ने बायोसिक्योरिटी एक्ट के तहत यात्रा प्रतिबंधों के उल्लंघन को आपराधिक श्रेणी में रखने पर कहा कि यह मानवाधिकारों के लिए गंभीर चिंता का सबब है. इस बीच ऑस्ट्रेलियाई सरकार और उसके प्रवक्ता अड़े हुए हैं कि ये यात्रा प्रतिबंध और संयम के निर्देश किसी प्रकार से नस्लीय नहीं हैं.
निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नस्लवाद ‘ऑस्ट्रेलियाई जीवनशैली’ में गहराई तक घुला-मिला है. यह उस ऑस्ट्रेलियाई समाज की धमनियों और रोम-रोम में है, जो उसे नरसंहार के दौर में बने इस उपनिवेश की करीब एक शताब्दी पहले तैयार ‘व्हाइट ऑस्ट्रेलिया’ नीति से मिला है. यहां के मूल निवासियों/आदिवासियों का शिकार करने वाले और तस्मानिया जैसे मामले में तो उन्हें विलुप्त होने के कगार पर पहुंचा देने वाले ऑस्ट्रेलियाई लोगों का आप्रवासियों और अब शरणार्थियों के साथ भी बर्ताव कम दुर्भावनापूर्ण नहीं रहा है.
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय आप्रवासी समूह कुछ देर से पहुंचे, परंतु बीते पांच वर्षों में उनकी संख्या अन्य आप्रवासियों की तुलना में तेजी से बढ़ी है. इसमें सिर्फ ब्रिटेन ही अपवाद है, जो यहां चार लाख 49 हजार से सात लाख 21 हजार पहुंच गए हैं. वे यहां की आबादी का अब 2.6 फीसदी हैं. 2009-10 में मेलबर्न की काफी बदनामी हुई थी कि जब वहां भारतीय छात्रों पर सिलसिलेवार गंभीर-जानलेवा हमले हुए. इन विशुद्ध नस्लीय हमलों को भारतीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खूब जगह मिली. दोनों देशों के बीच संबंधों का ग्राफ भी नीचे आया और इस मामले पर तत्कालीन ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री केविन रुड का बयान उस वक्त आया, जब ऑस्ट्रेलिया के उच्च शिक्षा सेक्टर में भारतीय छात्रों के पंजीयन की संख्या में तेजी से गिरावट देखने को मिली.
एक बात सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रेलिया अपने रास्ते को बदलने वाला नहीं है. कई बार अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने शरणार्थियों के साथ वहां होने वाले दुर्व्यवहार पर फोकस करते हुए, ऑस्ट्रेलिया की आलोचना की है लेकिन नस्लवादी प्रपंच उसकी संरचना और दैनिक जीवन में रचा-बसा है. यह इतना सशक्त है कि इसे बहुसांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था, विविधता के पक्ष में जनादेश अथवा उदारवादी विचारों की घुट्टी पिला कर खत्म नहीं किया जा सकता. ऑस्ट्रेलिया को गहरी जिद से अपनी आत्मा में झांक कर निर्ममता से आकलन करना होगा और ऐसा हुआ तो यह पूरे देश के केंद्रीय ढांचे को हिला देगा. ऑस्ट्रेलिया को ऐसा घृणित बर्ताव करने के लिए किसी भी बहाने की आड़ निश्चित रूप से नहीं लेने दी जा सकती. इससे यह भी साफ है कि भारत अपनी विशाल आबादी और महान विश्व शक्ति के रूप में उभरने की महत्वाकांक्षा के बावजूद कमजोर स्थिति में है.
ऑस्ट्रेलिया के इस प्रतिबंध का अगर भारत सरकार ने अप्रत्याशित रूप से मुंह तोड़ जवाब नहीं दिया, तो इसलिए नहीं कि कोविड की आग धधक रही है और देश ऑक्सीजन की हताश कर देने वाली किल्लत से जूझ रहा है. निर्मम तथ्य यह है कि जो देश ‘भारत माता’ कहलाने वाली अपनी धरती पर अपने नागरिकों की जिंदगियां नहीं बचा सका, वह उन अन्य देशों से भी कोई बराबरी या संतुलन नहीं बना सका, जहां भारतीय मूल के लोग रहते हैं. जिस देश के लिए अपने नागरिकों के प्रति सम्मान न हो तो निश्चित तौर पर तमाम गणित करके भी वह विश्व मंच पर कोई छाप नहीं छोड़ सकता. जब तक सरकार इस जगजाहिर तथ्य से अनजान बनी रहेगी, संभावना यही है कि दुनिया भारत के साथ तीसरे दर्जे का बर्ताव करती रहे.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)