गुजरात के चुनावी-रण में कूदने में राहुल गांधी ने आखिर क्यों कर दी इतनी देर?
गुजरात विधानसभा का चुनाव प्रचार पूरे उफ़ान पर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले से ही वहां तीन दिनी दौरे पर हैं और तूफ़ानी जनसभाओं को संबोधित करते हुए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी पर निशाना साध रहे हैं. वहीं सोमवार 21 नवंबर को राहुल गांधी भी इस प्रचार में एंट्री मार रहे हैं,जहां वे कांग्रेस का गढ़ समझे जाने वाले दक्षिण गुजरात और सौराष्ट्र में दो जन सभाओं को संबोधित करेंगे. लेकिन सवाल ये उठ रहा है कि कांग्रेस ने अपने स्टार प्रचारक को मैदान में उतारने में इतनी देरी क्यों कर दी और ये भी कि पार्टी को इसका कोई फायदा मिलेगा भी या फ़िर नुकसान उठाना पड़ेगा?
बेशक राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हुए हैं और ऐसे में यात्रा को बीच में रोककर बार-बार चुनाव-प्रचार के लिए वक़्त निकालना उतना भी आसान नहीं होता. लेकिन सोचने वाली बात ये है कि इस यात्रा का मकसद भी तो 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता से बाहर करना ही है. तो फिर कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश का चुनाव इतना अनमना होकर क्यों लड़ा, मानो उसने बीजेपी और आप को वॉक ओवर दे दिया हो.
वह इसलिये कि हिमाचल के पूरे चुनाव में राहुल गांधी एक बार भी प्रचार करने वहां नहीं गये. जाहिर है कि पार्टी के बड़े नेता की गैर मौजूदगी से कार्यकर्ताओं का मनोबल भी कमजोर हुआ, जिसका असर चुनावी-नतीजों में देखने को मिल सकता है.
गुजरात चुनाव में भी राहुल गांधी को एंट्री करने पर इसलिये मजबूर होना पड़ा क्योंकि ये सवाल उठ रहा था कि क्या कांग्रेस ने ये मान लिया है कि इस बार बीजेपी और आप के बीच ही सीधा मुकाबला है और उसकी हैसियत तीसरे नंबर की हो गई है? ऐसे सवालों और आरोपों का जवाब देने के लिए ही पार्टी के रणनीतिकारों को राहुल को इसके लिये मनाना पड़ा कि वे यात्रा रोककर कुछ वक्त गुजरात के प्रचार को भी दें.
राहुल गांधी 21 नवंबर को राजकोट और सूरत के महुवा में दो जनसभाओं को संबोधित करेंगे. पार्टी नेताओं के मुताबिक इसके बाद भी वे दूसरे चरण में कुछ रैलियां करेंगे,जिसकी तारीख अभी तय नहीं हुई है. हालांकि राहुल गांधी के इस गुजरात दौरे से कांग्रेस को उम्मीद है कि उसे इसका चुनावी फायदा मिलेगा लेकिन जमीनी स्तर पर राज्य की जनता क्या सोचती है, इसी सवाल को लेकर एबीपी न्यूज के लिए सी-वोटर ने शनिवार को साप्ताहिक सर्वे किया था. इसमें 42 फीसदी लोगों का मानना है कि कांग्रेस को इससे फायदा होगा.
जबकि 58 प्रतिशत लोगों ने कहा कि इससे पार्टी को कोई फायदा नहीं होने वाला है.अगर इसका विश्लेषण करें,तो इसके दो मतलब निकलते हैं. पहला तो ये कि ग्रामीण क्षेत्रों में पार्टी को अपने परम्परागत वोट के अलावा इस बार उन पाटीदारों का कोई खास समर्थन मिलता नहीं दिखता, जिन्होंने साल 2017 के चुनाव में आरक्षण आंदोलन के अगुआ हार्दिक पटेल की अपील पर कांग्रेस का साथ दिया था. चूंकि हार्दिक पटेल इस बार बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिये उस वर्ग के एक बड़े तबके का झुकाव बीजेपी की तरफ़ नजर आ रहा है.
दूसरा,ऐसा भी कोई कमाल होता नहीं दिखता कि राहुल गांधी अपनी रैलियों से युवा वर्ग को कांग्रेस की तरफ खींचने का कोई करिश्मा नहीं कर पायेंगे. इसकी एक बड़ी वजह ये भी कह सकते हैं कि बेरोजगार युवाओं को हर महीने 3 हजार रुपये का बेरोजगारी भत्ता देने का वादा करके अरविंद केजरीवाल ने उनको आप की तरफ खींचने का जो दांव खेला है, उसका काफी हद तक पार्टी को फायदा मिल सकता है.
दरअसल,इस बार कांग्रेस की परेशानी बढ़ने का एक बड़ा कारण ये भी है कि पिछले विधानसभा चुनावों में, हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी की जिस 'तिकड़ी' ने बीजेपी को मुश्किल में डाल दिया था,वह अब टूट चुकी है. पाटीदारों के लिए आरक्षण आंदोलन की अगुवाई करने वाले हार्दिक पटेल के अलावा अल्पेश ठाकोर ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया है. अल्पेश ने उस समय अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) को एकजुट करने का काम किया था. जाहिर है कि इस वर्ग में उनकी ठीकठाक घुसपैठ है. लिहाजा,बीजेपी को उसका भी फायदा मिलने की उम्मीद है.
जिग्नेश मेवाणी की बात करें तो वे दलित समुदाय के युवा नेता हैं. पिछली बार वह निर्दलीय चुनाव लड़कर विधायक बने थे लेकिन इस बार मेवाणी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. देखना होगा कि वे कांग्रेस को दलितों का कितना अतिरिक्त वोट दिलवाने में कामयाब हो पाते हैं?
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