सबसे पहले मानहानि केस में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को दो साल की सज़ा और उसके अगले दिन ही लोकसभा सचिवालय से अयोग्य घोषित होने का नोटिफिकेशन जारी होना..ये दोनों घटनाएं इतनी तेजी से हुई कि हर कोई हैरान रह गया.


उसके अगले दिन यानी 25 मार्च को राहुल गांधी मीडिया के सामने आते हैं और बेबाकी से उन सारे सवालों का जवाब देते हैं, जो कहीं न कहीं जनता के जेहन में भी घूम रहे थे. इन दौरान राहुल गांधी एक नए तेवर में दिखे. जब उनसे माफी को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने पुरजोर तरीके से एक बात कही. उन्होंने कहा कि वे सावरकर नहीं हैं..गांधी हैं. ये एक तरह से मोदी सरकार और बीजेपी के ऊपर निशाना भी था कि वो चाहे जो कर लें, राहुल गांधी की बोलती बंद नहीं होने वाली. राहुल गांधी की यही आक्रामकता भविष्य में बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ा सकती है.


2024 के चुनाव में अब महज़ एक साल ही बचा है. ऐसे तो फिलहाल बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बेहद मजबूत नज़र आ रही है. अब तक कांग्रेस के साथ ही विपक्ष की ओर से बहुत ज्यादा चुनौती मिलते नहीं दिख रही थी. लेकिन राहुल गांधी के साथ पिछले दो दिनों जो भी हुआ, वो न सिर्फ कांग्रेस बल्कि बाकी विपक्षी दलों के लिए एक बड़ा हथियार साबित हो सकता है. राहुल गांधी ने भी इस बात का जिक्र करते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में मोदी सरकार को शुक्रिया कहा.


मीडिया से मुखातिब होते हुए राहुल गांधी ने विपक्ष के बाकी नेताओं को भी एक स्पष्ट संदेश दे दिया है कि बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा बनाने की जरूरत है और इसमें वे पीछे नहीं हटने वाले है. उससे भी बड़ी बात ये है कि उन्होंने अपने लहजे से ये भी इशारा कर दिया कि वे विपक्ष को साथ लेकर चलने के लिए तैयार हैं.


जिस तरह का देश में राजनीतिक माहौल है, उसमें नरेंद्र मोदी सरकार को कोई एक दल से ज्यादा खतरा नहीं है. अधिकांश लोग और राजनीतिक विश्लेषक इस बात पर जरूर सहमत होंगे कि अगर नरेंद्र मोदी को लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से रोकना है, तो इसके लिए देशव्यापी ऐसी विपक्षी एकता की जरूरत है, जिसमें दलों के हित से ज्यादा बीजेपी को हराने के समीकरण पर फोकस हो. अलग-अलग दलों या क्षेत्रीय क्षत्रपों की निजी महत्वाकांक्षाओं और मजबूरियों की वजह से अब तक विपक्षी एकता की बात बेमानी लग रही थी.


अब राहुल गांधी को मानहानि मामले में सज़ा और उसके परिणामस्वरूप लोकसभा की सदस्यता खत्म हो जाना, ये भविष्य में एक ऐसा हथियार बन सकता है, जिसकी वजह से सारे विपक्षी दल चुंबक की भांति एक-दूसरे से जुड़ जाएं. हालांकि ये इतना आसान नहीं है, लेकिन पहले इसके बारे में सोचना दिन में तारे देखने जैसा लग रहा था, वहीं अब इसकी संभावनाएं बन सकती हैं.


राहुल गांधी प्रकरण से हर विपक्षी दल में ये तो संदेश गया ही है कि उनके भी किसी सदस्य या नेता पर इस तरह की गाज कभी भी गिर सकती है क्योंकि ये वास्तविकता है कि हर पार्टी के नेता कुछ न कुछ ऐसा बयान देते ही रहते हैं, जिनसे कब कौन आहत हो जाए, ये कोई नहीं जानता. उसमें भी तब, जब मोदी सरकार और बीजेपी की कार्यशैली से सब भली-भांति परिचित हैं.


दरअसल विपक्षी दलों के नेताओं में अगर राहुल प्रकरण से एमपी या एमएलए की सदस्यता खोने का डर पैदा हुआ है या होगा तो उसके लिए एक बात समझनी होगी. ऐसे तो अतीत में जयललिता, लालू यादव, आजम खान जैसे कई सारे नेताओं को आपराधिक मामलों में सज़ा की वजह से विधायिका से जुड़ी सदस्यता से हाथ धोना पड़ा था. लेकिन राहुल गांधी का प्रकरण इन सबसे जुदा और कहें तो ऐतिहासिक भी है.


राहुल गांधी को आपराधिक मानहानि से जुड़े मामले में सूरत की अदालत से आईपीसी के सेक्शन 499 के तहत दोषी माना गया और उन्हें आईपीसी के सेक्शन 500 के तहत दो साल की सज़ा सुनाई गई है. आपराधिक मानहानि से जुड़े मामले में जब किसी को सेक्शन 499 के तहत दोषी ठहराया जाता है तो उसके लिए सज़ा और दण्ड का प्रावधान आईपीसी के सेक्शन 500 में किया गया है. इस सेक्शन के तहत अधिकतम यानी मैक्सिमम सज़ा दो साल दी जा सकती है. उससे कम भी सज़ा मिल सकती है ..ये जज के ऊपर निर्भर करता है. अब गौर करने वाली बात है कि राहुल गांधी के मामले में उन्हें मैक्सिमम सज़ा दी गई है.


इस मैक्सिमम सज़ा की वजह से ही राहुल गांधी जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 के दायरे में आ गए और उनकी लोकसभा सदस्यता खत्म हो गई. अगर राहुल गांधी को सेक्शन 499 के तहत दोषी ठहराते हुए अधिकतम से कम सज़ा मिलती तो वे मानहानि केस में दोषी होते हुए भी लोकसभा सदस्य बने रहते क्योंकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 (3) के आधार पर संसद या विधानमंडल की सदस्यता से अयोग्य होने के लिए कम से कम दो साल की सज़ा जरूरी है.


अब सवाल उठता है कि जब राहुल गांधी से पहले कई सारे नेताओं की सदस्यता इस कानून के तहत खत्म हो गई है, तो फिर राहुल गांधी का मामला अलग कैसे है. ये ऐसा पहला मामला है जहां 2013 में लिली थॉमस केस में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद मानहानि से जुड़े अपराध में सज़ा होने पर किसी संसद सदस्य की सदस्यता चली गई है.


इससे पहले जिन भी नेताओं की सदस्यता गई है, वे ज्यादातर मामले भ्रष्टाचार या मर्डर-रेप या हेट स्पीच केस में सज़ा मिलने से जुड़े रहे हैं. लेकिन राहुल गांधी का प्रकरण भ्रष्टाचार या बाकी अपराध से जुड़ा नहीं है.


इससे पहले किसी ने नहीं सोचा था कि मानहानि केस में भी सज़ा पाकर किसी की सदस्यता जा सकती है. इस लिहाज से राहुल गांधी का प्रकरण अलग भी है और ऐतिहासिक भी. यही वो वजह है जो विपक्ष के किसी भी दल या नेता की चिंता बढ़ाने के लिए काफी है.


नरेंद्र मोदी सरकार के रवैये और बीजेपी की राजनीति को देखते हुए विपक्षी दलों को ये महसूस हो रहा है कि भविष्य में मानहानि का मामला एक तरह से सबसे आसान तरीका हो सकता है किसी की भी सदस्यता पर खतरे की घंटी लटकाने के लिए.


नरेंद्र मोदी सरकार के रवैये की इसलिए बात हो रही है कि 23 मार्च को सूरत की अदालत से फैसला आता है. ये फैसला 168 पन्नों का होता है और गुजराती में होता है. इस फैसले की पूरी कॉपी अभी मीडिया में उपलब्ध भी नहीं हो पाती है, उससे पहले ही 24 मार्च को दोपहर तक में ही लोकसभा सचिवालय से राहुल गांधी की सदस्यता खत्म होने से जुड़ा नोटिफिकेशन जारी हो जाता है. जबकि सूरत की अदालत ने ही राहुल गांधी को जमानत देते हुए उनकी सज़ा पर 30 दिन की रोक लगा दी थी, ताकि उन्हें ऊपरी अदालत अपील करने का मौका मिल जाए.


हालांकि 2013 के लिली थॉमस केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ये साफ हो गया था कि जैसे ही किसी सांसद या विधायक को दो साल की सज़ा सुनाई जाती है, उसकी सदस्यता स्वत: ही तत्काल प्रभाव से खत्म हो जाती है. जुलाई 2013 में  सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 8(4) को निरस्त कर दिया था. शीर्ष अदालत के ऐतिहासिक फैसले से ये सुनिश्चित हो गया था कि दोषी निर्वाचित प्रतिनिधि की अपील लंबित होने कर उसे पद पर बने रहने की अनुमति नहीं होगी. मतलब दोषी पाए जाने और सज़ा सुनाए जाने के बाद ही तत्काल सदस्यता खत्म होने की राह खुल गई.


फिर भी 24 घंटे से भी कम समय में लोकसभा सचिवालय से राहुल गांधी की सदस्यता खत्म होने से जुड़ा आदेश जारी हो जाता है. इतनी ज्यादा जल्दबाजी पहले कभी देखने को नहीं मिली थी. ये एक तरह से विपक्षी दलों के लिए संदेश भी है कि आने वाले वक्त में उनके भी किसी नेता को इन परिस्थितियों में सदस्यता खोनी पड़ सकती है.


ये सारे पहलू और विश्लेषण विपक्षी दलों के नेताओं के बीच हो रही होगी. पहले ही इन दलों के नेता ये कहते रहे हैं कि मोदी सरकार और बीजेपी मनमाने तरीके से सिर्फ विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर केंद्रीय जांच एजेंसियों के जरिए शिकंजा कसने का काम कर रही है. जिस तरह के बयान विपक्ष के सारे नेताओं की ओर से आ रहे हैं, चाहे वो ममता बनर्जी हों, शरद पवार हों, अरविंद केजरीवाल या अखिलेश यादव हों, या फिर के. चंद्रशेखर राव...वो विपक्षी एकता के लिहाज से नई आशा की किरण सरीखा है. इन नेताओं को राहुल प्रकरण से ये भली-भांति एहसास होने लगा होगा कि भविष्य में आपराधिक मानहानि मामले में दो साल की सज़ा ..विरोधी खेमा के नेताओं पर दबाव बनाने का एक तरह का नया टूल किट बन सकता है.


फिलहाल जो स्थिति है, उसके हिसाब से तो सदस्यता बचाने के लिए राहुल गांधी के पास अभी भी विकल्प बचें हैं.  अगर ऊपरी अदालत से अपील लंबित रहने तक राहुल गांधी के दोषसिद्धि यानी CONVICTION पर रोक लग जाती है, तो फिर उनकी सदस्यता तब तक बनी रहेगी. इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने भी 2018 में लोक प्रहरी केस में स्पष्ट कर दिया था. अपीलीय अदालत से किसी सांसद या विधायक के कनविक्शन पर रोक लगा दी जाती है तो  जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2, और 3 के तहत अयोग्य ठहराने का प्रावधान लागू नहीं हो सकता है. सितंबर 2018 में लोक प्रहरी केस में इस बात को खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट मे अपने आदेश में कहा था कि सीआरपीसी की धारा 389 के तहत अपीलीय अदालत को ये अधिकार है कि उसके सामने मामला लंबित होने तक वो किसी भी शख्स की सज़ा और कनविक्शन को निलंबित कर सकती है. अगर ऐसा अपीलीय अदालत से होता है तो RPA, 1951 के सेक्शन 8 से जुड़े अयोग्यता के प्रावधान मामला के ऊपरी अदालत में लंबित रहने तक लागू नहीं होते.


मानहानि केस को देखते हुए मामला लंबित रहने तक ऊपरी अदालत से राहुल गांधी के कनविक्शन पर रोक लगने की ज्यादा संभावना है. अगर ऐसा हुआ, तब तो कांग्रेस के लिए कोई बात ही नहीं है, लेकिन अगर ऊपरी अदालत से राहुल गांधी को कोई राहत नहीं मिलती है, तो उससे राहुल गांधी अगले 8 साल तक चुनावी राजनीति से बाहर हो जाएंगे. यानी वे अगले 8 साल तक चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. इसमें दो साल सज़ा की मियाद और उसके बाद  का 6 साल का वक्त शामिल है.


चुनाव लड़ने के लिहाज से राहुल गांधी को व्यक्तिगत तौर पर तो इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है, लेकिन मेरा मानना है कि इससे कांग्रेस एक बहुत बड़ी दुविधा से  अपने आप बाहर आ जाएगी. लंबे वक्त से राहुल गांधी कांग्रेस की कमान संभाल रहे हैं. पिछले दो लोकसभा चुनाव में वे ही कांग्रेस के चेहरे रहे हैं और दोनों में ही पार्टी को बुरी हार का सामना करना पड़ा था. जैसा कि अगले साल लोकसभा चुनाव होना है, इधर कुछ महीनों से आम लोगों के साथ ही कांग्रेस के भीतर भी राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी का चेहरा बनाने की मांग उठ रही है. अभी हाल ही में इस बात को पार्टी नेता प्रमोद कृष्णम ने मुखरता से कई जगहों पर उठाया है.


अब तक तो राहुल गांधी को ही पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सबसे बड़ा चेहरा बताते आया है. लगातार खराब प्रदर्शन के बावजूद भी शायद राहुल गांधी ही वो वजह रहे हैं कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व प्रियंका गांधी को लेकर जनमानस और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मांग पर हमेशा ही चुप्पी साध लेता है. ऐसे में मानहानि मामले से बने हालात की वजह राहुल गांधी के चुनावी राजनीति से खुद ही बाहर होने की वजह से कांग्रेस के लिए प्रियंका गांधी को आगे बढ़ाने से जुड़ी दुविधा भी खत्म हो जाएगी. राहुल गांधी को तो पार्टी ने कई बार आजमाया है और अगर बिना किसी मशक्कत के प्रियंका गांधी कांग्रेस का चेहरा बन जाती हैं, तो शायद अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी को अपने प्रदर्शन में सुधार करने का मौका भी मिल सकता है. प्रियंका गांधी के महिला होने के नाते विपक्षी दलों के ऊपर भी एक तरह का दबाव पड़ सकता है और विपक्षी मोर्चा की अगुवाई कांग्रेस करे, इसमें उनमें से ज्यादातर दलों को एतराज भी नहीं रह जाएगा. 


( ये लेखक के निजी विचार हैं)