भारत जोड़ो यात्रा: अखिलेश यादव के इनकार ने विपक्ष की ताकत को आखिर क्यों किया कमजोर?
अपनी भारत जोड़ो यात्रा के जरिये विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश में जुटे राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश में प्रवेश करते ही बड़ा झटका लगा है. मंगलवार को यात्रा ने यूपी में प्रवेश कर लिया है, लेकिन अखिलेश यादव और मायावती ने इससे दूरी बनाए रखने का फैसला लेकर कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. सवाल उठता है कि प्रियंका और राहुल गांधी के साथ व्यक्तिगत संबंधों की अच्छी केमिस्ट्री साझा करने वाले अखिलेश यादव को यह फैसला आखिर क्यों लेना पड़ा?
चूंकि 80 लोकसभा सीटों वाला यूपी देश की राजनीति में सबसे ज्यादा अहम है, लेकिन वहां के सियासी गणित में फिलहाल कांग्रेस की हैसियत न के बराबर ही है और आगे भी ऐसी कोई संभावना बनती नहीं दिखती कि पार्टी वहां कोई बड़ा कमाल कर सकती है.
कांग्रेस चाहती थी कि यूपी के तीन क्षत्रप-अखिलेश यादव, मायावती और रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी अगर इस यात्रा में शामिल होते हैं तो पार्टी की सियासी जमीन मजबूत होने के साथ ही इससे देश में विपक्ष की एकजुटता का संदेश भी जाएगा लेकिन इन तीनों की "ना" से एक बड़ा संदेश ये निकला है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भी ये क्षेत्रीय दल कांग्रेस से दूरी बनाए रखने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं.
दरअसल, यूपी में कांग्रेस की जितनी पतली सियासी हालत है, उसे देखते हुए अखिलेश ने ये फ़ैसला लेने में चतुराई तो दिखाई है, लेकिन अगर इसे 2024 के लिहाज से राष्ट्रीय परिपेक्ष्य के नजरिये से देखें तो ये विपक्ष की एकता को कमजोर करने के साथ ही कहीं न कहीं बीजेपी को फायदा अवश्य पहुंचाएगा.
यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव में बीएसपी के प्रदर्शन पर गौर करें तो मायावती अब एक अलग तरह की राजनीति करने पर मजबूर हो चुकी हैं और शायद इसीलिए कई अहम मसलों पर भी उनकी जुबान पर ताला ही लगा रहता है, लेकिन जहां तक अखिलेश-जयंत की जोड़ी की बात है तो उन्हें सबसे बड़ा डर यही है कि भारत जोड़ो यात्रा में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने से उनके वोट बैंक पर डाका डल सकता है.
यूपी में यादवों के अलावा मुस्लिमों को ही सपा का सबसे मजबूत वोट बैंक माना जाता है. अखिलेश नहीं चाहते कि यात्रा में शामिल होकर ये संदेश दें कि वे कांग्रेस की विचारधारा के साथ हैं क्योंकि इसका सबसे बड़ा खतरा ये होगा कि 2024 में यादव बेशक न सही लेकिन मुस्लिम वोट बैंक बंट जाएगा, जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को ही मिलेगा. कांग्रेस भी इस रणनीति पर काम कर रही है कि 90 के दशक तक मुस्लिम और दलितों का जो मजबूत वोट बैंक उसके साथ था, उसे पार्टी की तरफ वापस कैसे लाया जाए.
शायद इसी रणनीति को ध्यान में रखकर ही पार्टी ने राहुल गांधी की यात्रा का रुट तय किया है. पश्चिमी यूपी जिसे जाटलैंड कहा जाता है, उसके शामली, कैराना और बागपत जैसे इलाकों में खासी मुस्लिम आबादी है और इन्हीं इलाकों से यात्रा गुजरेगी.
हालांकि वेस्ट यूपी में जाटों के साथ ही दलितों की भी अच्छी आबादी है लेकिन पिछले कई चुनावी नतीजे बताते हैं कि इस वोट बैंक में कांग्रेस अपना कोई वजूद नहीं बना पाई है. इस पर सपा, रालोद और बीएसपी, तीनों ही अपना दावा करते हैं. हालांकि ये अलग बात है कि पिछले दो चुनावों में बीजेपी ने इन तीनों ही दलों के परंपरागत वोट बैंक में जबरदस्त सेंध लगाई है.
दरअसल, कांग्रेस नेताओं का फीड बैक ये है कि पिछले चुनाव के बाद से ही यूपी के मुस्लिम सपा से नाराज हो गए हैं और उनके पास कांग्रेस से बेहतर विकल्प और कोई नहीं बचता है, जो कि 90 के दशक तक पार्टी के साथ थे लेकिन बाबरी मस्जिद गिरने के बाद से वे कांग्रेस से छिटककर सपा में चले गए. अब उन्हें वापस लाने का इससे बेहतर मौका और नहीं मिल सकता.
इसी तरह एक जमाने में बीएसपी का सबसे मजबूत वोट बैंक माना जाने वाला दलित भी मायावती से छिटककर अब बीजेपी में शिफ्ट हो गया है. लिहाजा,कांग्रेस मुस्लिम-दलित को अपने पाले में लाने की रणनीति पर काम कर रही है और उसी लिहाज से यूपी में राहुल की यात्रा का रूट भी तय किया गया है.
ये सच है कि चुनावी राजनीति में हर पार्टी का एकमात्र मकसद सत्ता हासिल करना ही होता है लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से देखें, तो कांग्रेस के साथ ही सपा, रालोद और बीएसपी का भी मकसद एक ही है कि बीजेपी को सत्ता से कैसे हटाया जाए.
ऐसे में, अखिलेश यादव को अपनी आंखों से यूपी का चश्मा उतारकर सियासी बदलाव की इस मुहिम का साथ देने के लिए यात्रा में कुछ देर के लिए ही सही, शामिल जरूर होना चाहिए था. उनके इनकार से विपक्ष की ताकत कमजोर ही हुई है और कमजोर विपक्ष लोकतंत्र की राजनीति में कभी बदलाव नहीं लाता.
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