राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पंजाब को पार करके अब जम्मू-कश्मीर की सीमा में चली गई है, लेकिन कांग्रेस समेत अन्य दलों के सियासी गलियारों में भी एक सवाल मंडरा रहा है कि आम आदमी पार्टी वाली सरकार के पंजाब में उन्होंने जितनी भीड़ जुटाई है. आगामी लोकसभा चुनाव में क्या वो कांग्रेस के वोटों में तब्दील होगी? ये वही पंजाब है,जहां कांग्रेस ने 10 साल तक राज किया, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने के एक गलत सियासी फैसले ने कांग्रेस को वहां हाशिये पर ला खड़ा कर दिया है.
बता दें कि साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पंजाब में इतनी मजबूत स्थिति में थी कि देश में मोदी लहर होने के बावजूद उसने यहां की 13 में से 8 सीटों पर कब्जा जमाया था. उसमें कैप्टन सरकार की नीतियों और उनके जलवे का ही बड़ा योगदान था. तब अकाली दल और बीजेपी को दो-दो सीटें मिली थीं और एकमात्र सीट पर आम आदमी पार्टी के भगवंत मान जीते थे,जो अब सूबे के मुख्यमंत्री हैं.
पंजाब से गुजरते हुए राहुल गांधी शायद इसलिए भी ज्यादा उत्साहित थे क्योंकि उनकी यात्रा को वहां उम्मीद से ज्यादा समर्थन मिला, लेकिन वे शायद ये भूल गए होंगे कि ये पार्टी के उन आठ सांसदों की जुटाई हुई भीड़ का ही नतीजा था. जमीनी हकीकत तो ये है कि देश के सबसे समृद्ध प्रदेश पर 10 साल तक राज करने वाली कांग्रेस अब विधानसभा में महज 18 सीटों पर आकर सिमट गई है. ये सिर्फ राहुल गांधी के लिए नहीं बल्कि समूची कांग्रेस के लिए एक सबक है कि अपने अहंकार को दरकिनार रखते हुए अगर कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही पार्टी चुनाव लड़ती तो शायद उसकी इतनी बुरी गत तो न ही होती. सियासत में लिया गया एक भी गलत फैसला पार्टी को कई साल पीछे ले जाता है और पंजाब के मामले में तो उसने एक कमजोर विरोधी को सत्ता पर काबिज करके भी दिखा दिया.
बेशक राहुल अपनी इस यात्रा के जरिये कांग्रेस की जमीन को मजबूत करने के साथ ही विपक्षी एकता के सूत्रधार बनने की कोशिश में लगे हुए हैं, लेकिन उन्हें बुधवार को तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर की बुलाई गई बैठक में और उनमें शामिल हुए नेताओं की रणनीति पर भी गौर करना होगा. वहां अरविंद केजरीवाल भी मौजूद थे और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान भी. लिहाजा, विपक्षी एकता का गठबंधन हुए बगैर वे कभी नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस अब उनके सूबे में पिछला प्रदर्शन दोहराते हुए लोकसभा की 8 सीटें भी ले जाये. राहुल को पंजाब में जुटी भीड़ देखकर इसलिये अति आत्मविश्वास का गुमान नहीं पालना होगा कि अब ये तो कांग्रेस के साथ ही रहने वाला है.
वहां की सियासत पर गौर करें तो अकाली और बीजेपी वाले ही अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने के लिए इतने परेशान हैं कि कांग्रेस तो चौथे नंबर आ खड़ी हुई है. दरअसल, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दक्षिण भारत से अपनी यात्रा शुरु करने का आईडिया राहुल को करीब डेढ़-दो साल पहले ममता बनर्जी से ही मिला था. तब ममता ने कहा था कि देश में लगभग सवा दो सौ सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है और वहां कोई क्षेत्रीय दल बीच में नहीं है. लिहाजा,कांग्रेस अगर उन सीटों को जीतने पर पूरी गंभीरता से ध्यान दे, तभी मोदी सरकार को हटाने के लिए विपक्षी एकता के कुछ मायने होंगे, वरना सारी कवायद बेकार चली जायेगी.
बेशक राहुल उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन पंजाब ही अब उनके लिये सबसे बड़ा रोड़ा बनकर सामने आ खड़ा हुआ है. केजरीवाल से लेकर ममता,अखिलेश यादव और केसीआर तक राहुल को पीएम पद का उम्मीदवार बनाने के लिए राजी नहीं हैं. पंजाब की राजनीति के जानकार मानते हैं कि वह इस प्रदेश में अपने किये की ही सजा भुगत रही है और आगे कोई उम्मीद नहीं दिखती कि उसकी सियासी हैसियत कोई बहुत मजबूत होने वाली है. साल 2019 के चुनाव के दौरान प्रदेश की 13 सीटों पर कांग्रेस से तय किए गए प्रत्याशियों में से ज्यादातर का चयन कैप्टन अमरिंदर सिंह के सुझाये नामों पर ही हुआ था.
खास बात यह भी है कि साल 2014 में देशभर में मोदी लहर वाले हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पंजाब में सिर्फ 3 सीटें मिली थीं. लिहाजा, कैप्टन के उस फैसले ने पार्टी को सीधे 5 सीटों का फायदा दिलाया था, लेकिन पंजाब में कांग्रेस के पास अब न तो कैप्टन जैसा कोई कद्दावर चेहरा है और न ही जमीनी स्तर पर उसका कोई मजबूत का डर है. जो 2019 के प्रदर्शन को दोहराने की ताकत रखता हो. इसलिए राहुल गांधी को पंजाब में जुटी भीड़ देखकर बहुत ज्यादा खुशफहमी इसलिए भी नहीं पालनी चाहिये कि हर दिखावा,वोटों में तब्दील नहीं हुआ करता.
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