उत्तराखंड से लेकर हिमाचल प्रदेश में आसमानी आफत से परेशानी बढ़ गई है. हिमाचल और उत्तराखंड में भारी बारिश से तबाही का दौर जारी है. दोनों ही राज्यों के कई इलाकों में जीवन एक तरह से थम सा गया है. जान माल दोनों के नुकसान की ख़बरें लगातार आ रही हैं.
जो आसमानी आफत है, पूरे प्रक्रम को दो हिस्सों में बांटकर बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. पहली बात ये है कि पूरी दुनिया में ऐसा कोई भी देश नहीं बचा होगा, जहां आज ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज का असर नहीं हो रहा है. पिछले एक दशक से पूरी दुनिया में स्थिति और बिगड़ते ही गई है. जो कुछ भी हो रहा है, उसका एक बहुत बड़ा कारण पृथ्वी का तापक्रम का बढ़ना है.
तापमान वृद्धि का बड़ा असर पहाड़ों पर
अभी जुलाई को दुनिया भर में सबसे गर्म महीना माना गया था. ये भी माना गया है कि पृथ्वी का औसतन तापक्रम करीब 14 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए था., वो 17 तक पहुंच गया था. इसका न सिर्फ़ लैंड एरिया पर बल्कि समुद्र पर भी बहुत असर पड़ता है. इसे सरल तरीके से ऐसे समझा जा सकता है कि अगर पृथ्वी का तापमान एक डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ता है, तो 70 प्रतिशत एटमॉस्फियर की पानी को पकड़ने की क्षमता बढ़ जाती है. मतलब जो वायु प्रदूषण होगा, वो ज्यादा हो जाएगा. उससे अंतत: ये स्वीकारना ही पड़ेगा कि जरा सा भी तापमान कम हुआ तो ये बरसेगा ही और बारिश ज्यादा होगी.
रिपोर्ट हमेशा ये कहते रही है कि जब कभी भी इस तरह की घटनाएं होंगी, तो उसका पहला और बड़ा असर पहाड़ों पर पड़ेगा और हिमालय उसके लिए सबसे मुफीद जगह है. एक तो ये बात है जो हमारी समझ में आनी चाहिए.
स्थानीय स्तर पर कैसा विकास?
दूसरी बड़ी बात स्थानीय स्तर पर है. मैं कहता हूं कि हिमाचल प्रदेश में अंधाधुंध विकास के तरीके अपनाए हैं, ख़ास तौर से कंस्ट्रक्शन के दृष्टिकोण से कहना चाहूंगा कि उन्होंने अपने शहरों को इस तरह से बना लिया, गांव में भी इस तरह से ढांचागत विकास किया जिसमें वैज्ञानिक तकनीक था. वो समझ गायब हो चुकी है, जिसको प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ कर देखा जा सकता है.
यह समझ लीजिए कि जब बहुत ज्यादा बारिश होगी, तब किसी भी तरह की मिट्टी होगी, तो उस पर सीधा असर पड़ेगा. यही अबकी बार हिमाचल को झेलना पड़ा है. उत्तराखंड में भी इस तरह की बारिश का असर पड़ा हो. उत्तराखंड से भी तमाम तरह की ऐसी खबरें आई, लेकिन जहां विकास कार्य ज्यादा और गहरा था..यानी हिमाचल प्रदेश, जिसको हम आदर्श भी मानते रहे, वहां आज पूरी अर्थव्यवस्था तबाह हो गई.
समझ ये बनानी चाहिए कि ये प्रक्रिया अब रुकने वाली नहीं है. औसत तापमान में बढ़त होनी ही होनी है. दुनिया विकास के पीछे दौड़ रही है, छोटे-मोटे देश भी जो पहले पीछे थे, वो अब भी अपने विकास के लिए आगे बढ़ रहे हैं और उसका तापक्रम पर सीधा असर पड़ेगा.
समाधान अब सिर्फ़ सरकार के हाथ में नहीं
एक तरफ से मानसून तो डिस्टर्ब हो रहा है, अनावश्यक बारिश भी होगी और कहां पर असर पड़ेगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. हमारी जितनी भी मानसून को लेकर घोषणाएं होती हैं, मौसम विभाग भी कहता है कि उनके हाथ से चीजें बाहर जा चुकी हैं. ये एक तरह का संकेत है. ये ऐसी समस्या होती जाएगी, जिसका समाधान सरकार की सीमा से भी बाहर है.
बड़ी समझ इस बात की बनानी चाहिए कि हमारी जान है, हमारा जीवन है, हमें ही बड़ा कदम उठाते हुए सूझबूझ बनानी पड़ेगी कि आने वाली परिस्थितियों को हम कैसे झेलेंगे. दोनों नजरिए से देखें, स्थानीय तौर से कंस्ट्रक्शन और ग्लोबली जो कुछ हो रहा है, उसका ये मिला जुला असर है.
इस तरह के हालात से बचने की जहां तक बात है, तो पिछली बार जोशीमठ में जो हुआ था, इमारतों में दरारें आई थी, मैंने उस वक्त कहा था कि टिहरी शहर है, इनकी छोटी मोटी धारण क्षमता होनी चाहिए. वहां की सरकार ने बाद में इस ओर पहल की. ख़ास तौर से मुख्यमंत्री ने समझ बनाई है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इसको नोटिस में लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिमालय के क्षेत्रों की संवेदनशीलता के हिसाब से कार्य हों. उनकी धारण क्षमता का पता करके ही विकास कार्य पर आगे बढ़ना चाहिए. अगर उस इलाके में आपको पानी कहीं और से लाना पड़े, मसूरी के लिए भी आपको पानी यमुना से सप्लाई करना पड़े, तो ये कन्वेंशन पैटर्न है.
पर्यटकों को संवेदनशीलता दिखानी होगी
पर्यटकों को कुछ चीजें समझनी चाहिए. हिमालय को जानना चाहिए. जब हिमालय इस तरह की परिस्थितियों से गुजरता हो, तो पर्यटकों को चाहिए कि वे धैर्य रखें. जो कुछ भी गो रहा है, वो एक ही प्रवृत्ति का दुष्परिणाम है. विलासिता की तरफ, सैर सपाटे की तरफ, बिना प्रकृति को समझे हुए हम आगे बढ़ रहे हैं. प्रकृति के नुकसान में विलासिता की वजह से हम जो योगदान दे रहे हैं, उसे भी समझना चाहिए. यही कारण है कि जान के नुकसान की जो घटनाएं घटी हैं, तो सैलानियों मे भी कुछ सबक ज़रूर सीखा होगा.
शायद मुझे लगता है कि हिमालय को बचाने के लिए लोगों को भी समझ बनानी पड़ेगी. देश को समझ बनानी पड़ेगी कि हिमालय की मिट्टी, हवा, पानी पूरा देश ढूंढ़ता है, पूरी दुनिया ढूंढती है. इसलिए हिमालय के संरक्षण के लिए सामूहिक सोच होनी चाहिए. सैलानियों के लिए सबसे बड़ा सवाल यही होना चाहिए कि जिस पर्वत से वो घूमने का लाभ लेना चाहते हैं, उसे बचाने के लिए भी प्रतिबद्ध होना चाहिए, ताकि उनकी आने वाली पीढ़ी भी उसको देखे.
हिमालय का संरक्षण सामूहिक दायित्व
अगर ऐसा ही होता रहा और हिमालय टूट-टूट कर नदियों से नीचे जाता रहा, तो फिर हिमालय या तो उत्तर प्रदेश में दिखेगा या फिर बिहार में दिखेगा. हिमालय, हिमालय नहीं रह जाएगा. पहाड़ इतने कमज़ोर नहीं होते हैं, लेकिन जब परिस्थितियां बदलती हैं, तो असर होता है. हिमालय अभी बनने की ही स्थिति में है और उसकी धारण क्षमता का ही सवाल है. आप उस पर उतना ही बोझ डालिए. बोझ अगर दो तरफ से हो जाए, प्राकृतिक और मानवकृत तो ये पहाड़ के लिए असहनीय हो जाते हैं. अभी ही वो समय है, जब हमे इसको लेकर समझ बनाने की ज़रूरत है.
पर्यावरण खिलवाड़ के मुद्दे पर सरकार या किसी संगठन से कुछ नहीं होने वाला है क्योंकि हम ही सरकार को बनाते हैं, संगठनों का बनाते हैं. सवाल ये है कि सब लोग एक साथ एक सुर में जुटें. इसका राजनीतिक समाधान भी निकालें कि कैसे हालात बिगड़ने नहीं दें, कैसे अपनी विलासिताओं पर अंकुश लगाएं, इन सब पर काम करना होगा. अपनी जीवन शैली को बिल्कुल ही बदलने के लिए जिद में हैं, तो ये लगातार होता रहेगा. अब किसी एक का दायित्व नहीं रह गया है. अब सामूहिक दायित्व का समय आ गया है.
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