दिन एक जैसे नहीं रहते. कभी नरम तो कभी गरम. कभी हल्के तो कभी भारी. कभी अच्छे तो कभी बुरे. अब सियासत भी तो है दिनों की ही मोहताज. सियासत में भी सब कुछ एक जैसा नहीं रहता. वैसे भी एक ही चेहरे या मुद्दे को सियासत में लगातार तो नहीं चलाते रह सकते. ब्रांड मोदी पर दिल्ली से लेकर राज्यों ही नहीं बल्कि स्थानीय निकायों तक के चुनावों में बीजेपी ने अपना परचम फहराया. मगर जैसे शुरू में कहा कि सब हमेशा एक जैसा तो नहीं रहता. ब्रांड मोदी तो अपनी जगह मजबूत दिख रहा है, लेकिन हिंदी भाषी राज्यों की स्थानीय परिस्थितियां बदल गई हैं. मोदी नाम के सहारे चुनाव में टिके तो रह सकते हैं, लेकिन कई राज्यों में अब स्थानीय समीकरण बदल गए हैं. राज की बात इसी बदलती बयार और बीजेपी नेतृत्व के सामने धर्मसंकट और बदलती रणनीति पर.


उत्तर प्रदेश से चूंकि प्रधानमंत्री मोदी खुद सांसद हैं. यह राज्य भी औरों से बड़ा और मिजाज में भी सबसे अलग है. 2017 और 2019 में तो यहां पर मोदी के नाम पर बीजेपी चुनाव जीती. काशी से सांसद मोदी के पीएम रहते ही अयोध्या में राम मंदिर भी बन रहा है. विश्वनाथ कारीडोर से लेकर विंध्याचल के विकास जैसी तमाम परियोजनाएं हैं. साथ ही उत्तर प्रदेश में अपने आप में एक बड़ा फैक्टर आज की तारीख में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी हैं. सख्त प्रशासक और हिंदुत्व में पगी उनकी छवि भी बीजेपी आलाकमान ने बनवाई और अब उसके भुगतान की भी तैयारी है. यूपी के पड़ोसी राज्य जो यहीं से निकला उत्तराखंड में तीसरे मुख्यमंत्री अभी ही बनाए गए हैं. सबसे बड़ी बात चुनाव भी अब तीन माह बाद ही हैं,  लिहाजा यूपी और उत्तराखंड में चुनाव से पहले सीएम को लेकर अब कोई उधेड़बुन नहीं है.


फिलहाल तमाम राज्यों में बीजेपी को अपने ही नारे –वोकल फार लोकल- से जूझना पड़ रहा है. आप सोच रहे होंगे ये तो कि घरेलू उत्पाद की बिक्री के लिए लोकल फार वोकल का नारा पीएम मोदी और भारत सरकार ने बुलंद किया हुआ है. बीजेपी भी इस नारे को बढ़ा रही है. तो राज्यों की सियासत से इसका क्या मतलब.. तो राज की बात ये है कि मोदी का फैक्टर अपनी जगह है, लेकिन अब सत्ता में इतने दिन रहने के बाद स्थानीय समीकरणों की अनदेखी कर बीजेपी नेतृत्व के लिए राज्यों में फैसले लागू करा देना चुनावी लिहाज से मुफीद नहीं रह गया है. कैसे..ये समझने के लिए राज्यवार समझते हैं.


हिमाचल प्रदेश


यूपी और उत्तराखंड...के अलावा अन्य हिंदी राज्यों की तरफ यदि रुख करें तो बात करते हैं पहले उन दो राज्यों की जहां वो सत्ता में है. इनमें पहला है हिमाचल प्रदेश और दूसरा मध्य प्रदेश। राज की बात ये है कि इन दोनों ही राज्यों में विधानसभा चुनाव से पहले केंद्रीय नेतृत्व व्यापक परिवर्तन का मन बना चुका है. पहले बात 2022 की नवंबर-दिसंबर में चुनाव वाले राज्य हिमाचल प्रदेश की. प्रेम कुमार धूमल के अपनी सीट हारने की वजह से किस्मत से मुख्यमंत्री बने जयराम ठाकुर चार साल से प्रदेश की कमान संभाले हुए हैं. जयराम ठाकुर फिलहाल खासे चर्चा में हैं. वैसे तो उनकी प्रशासनिक कार्यप्रणाली और उनके करीबी लोगों का आचरण बीजेपी आलाकमान को पहले ही रास नहीं आ रहा था.


अब उपचुनावों में जिस तरह से बीजेपी को तीनों विधानसभा और एक लोकसभा सीटो पर करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है, उससे प्रदेश की जयराम ठाकुर सरकार के खिलाफ गुस्सा जगजाहिर ही हो गया है. मगर खास बात ये है कि जिस तरह से ठाकुर ने महंगाई पर हार का ठीकरा फोड़कर सीधे पीएम मोदी की केंद्र सरकार पर निशाना साध दिया है, उससे माहौल ज्यादा संगीन हो गया है. राज की बात ये है कि जयराम ठाकुर को न सिर्फ अपदस्थ करने की तैयारी है, बल्कि उन्होंने जो सियासी गलती की है, भविष्य में भी इसकी भरपाई मुश्किल होगी. बीजेपी के एक शीर्ष नेता ने साफ कहा कि –हार-जीत लगी रहती है, लेकिन कभी भी केंद्रीय नेतृत्व पर सवाल खड़ा करने का मौका विपक्ष को देकर ठाकुर ने सबसे बड़ी गलती की है. जबकि सच्चाई ये है कि हिमाचल में उनके –आंध्र प्रदेश कनेक्शन- पर सबसे ज्यादा नाराजगी है, जिसे वो महंगाई की आड़ में छिपाने की कोशिश कर रहे हैं.


मध्य प्रदेश


वहीं, मध्य प्रदेश में मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेकर समय-समय पर अफवाहों के बाजार गरम ही रहते हैं. राज की बात ये है कि चौहान की जगह किसी नए चेहरे के साथ बीजेपी नेतृत्व चुनाव में जाना चाहता है. इस कड़ी में कभी नरोत्तम मिश्र तो कभी नरेंद्र सिंह तोमर और कैलाश विजयवर्गीय समेत तमाम नाम हवा में चलते हैं. मगर नेतृत्व को फीडबैक ये भी है कि चौहान चौथे कार्यकाल में भी इन नेताओं से ज्यादा लोकप्रिय तो हैं ही साथ ही जातीय समीकरण भी उनसे सधते हैं. गुजरात फार्मूले की तरह हिमाचल के साथ-साथ मध्य प्रदेश में भी पूरी कैबिनेट बदलने  की तैयारी है, लेकिन ये अभी हो या फिर यूपी चुनाव के बाद, यही बस बाकी है. साथ ही मध्य प्रदेश में शिवराज जैसे कद्दावर नेता का विकल्प क्या हो, जिससे पार्टी का नुकसान न हो, इसकी भी तलाश थोड़ी जटिल है.


राजस्थान


राज की बात ये है कि बीजेपी सभी राज्यों में जहां पुराने नेता रहे हैं, उनका विकल्प खोजने में जुटी है। नई लीडरशिप तैयार करने की बात हो रही है. मगर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का विकल्प उस तरह से दिख नहीं रहा, लिहाजा देर हो रही है. मगर उससे भी ज्यादा समस्या है राजस्थान में. राजस्थान में वसुंधरा राजे को बीजेपी आलाकमान ने हाशिये पर रखा और गजेंद्र सिंह शेखावत को तैयार करने की कोशिश की. उनके साथ ही तमम पाकेट में भी कई नेताओं को खड़ा करने की कोशिश की गई, लेकिन बात नहीं बन पा रही है.


राज की बात ये है कि महारानी का जलवा अभी बीजेपी ही नही राजस्थान में भी कायम है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच रंजिश के बावजूद बीजेपी उपचुनावों में धड़ाम हुई. वजह बताई गई कि महारानी अपनी मांद से बाहर ही नहीं निकलीं. शेखावत जैसे नेता जोधपुर से आगे नहीं बढ़ पाए और पूरे राज्य में जनता और कार्यकर्ता जिसकी ठसक बर्दाश्त करें उस तरह का करिश्मा अभी महारानी के अलावा कोई बना नहीं सका. मतलब ये कि झटके में सब कुछ बदलने वाली बीजेपी को अब स्थानीय समीकरणो को भी साधने की जरूरत पड़ने लगी है.


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