त्योहारों के उल्लास के बीच निकलकर अब देश का बड़ा हिस्सा चुनावी खुमारी में डूबने जा रहा है. बड़ा हिस्सा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जिन 5 राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें से उत्तर प्रदेश जैसा विशाल और 403 सीटों वाला सूबा शामिल है. साथ ही साथ पंजाब भी है जो कृषि कानून के विरोध का बड़ा केंद्र और प्रतीक बीते कई महीनों से बना हुआ है. बाकी के 3 राज्य भले ही छोटे हैं लेकिन उनमें मौजूद प्रतिनिधित्व का आंकड़ा सियासी सपनों को परवान चढ़ाने या उन्हें ध्वस्त कर देने की ताकत रखता है. तो जाहिर है कि केंद्र सरकार के फैसलों पर इन चुनावो का भी फर्क है और आर्थिक सुधारों की रफ्तार को ये चुनावी खुमारी रोक रही है.


सियासत के इन्हीं समीकरणों के बीच से एक राज की बात निकलकर सामने  रही है. कृषि कानूनों को लेकर जारी गतिरोध और बेमियादी किसान आंदोलन पर तो सभी की निगाहें हैं. माना जा रहा है कि इससे भारतीय जनता पार्टी को पंजाब और पश्चिमी उत्तर में नुकसान भी झेलना पड़ा सकता है. इस बात को लेकर बीजेपी आलाकमान चिंतित भी है और हालात को सियासी तौर पर साधने की कोशिश भी चल रही है. लेकिन राज की बात ये है कि सरकार की टेंशन केवल कृषि कानूनों तक ही सीमित नहीं है. एक और कानून है जिसके साइडइफेक्ट का डर बीजेपी को सता रहा है बस गनीमत ये है कि उसके खिलाफ कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ और अब कोशिश की यही है कि चुनाव के मद्देनजर इस धुंए को उठने भी न दिया जाए. 


तो चलिए आपको बताते हैं वो राज की बात जिसपर सियासी या सामाजिक बवाल भले ही क्षणिक रहा था, लेकिन उसे लेकर भी भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सजग है और सियासत के माहौल के हिसाब से ही काम हो रहा है. राज की बात ये है कि जिस बवाल को होने से रोकने पर बीजेपी ने बीते दिनों मंथन किया है उसका ताल्लुक नए श्रम कानून से है. श्रम कानून संशोधन 2020 को कोरोना के बाद बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए लाया गया लेकिन प्रावधानों के आधार पर सरकार पर जबर्दस्त प्रहार हुए.


इस संशोधन में काम के घंटो में वृद्धि से लेकर अनुबंध तक की शर्तों पर हुए फेरबदल से जबर्दस्त नाराजगी देखने के मिली. हालांकि, कोरोना की मारक विभीषिका के बीच ये मामला जल्दी चलता हो गया क्योंकि जिस वक्त जान के साथ ही साथ रोजगार पर भी आफत बनी हो....उस दौर में ऐसी चीज का विरोध ज्यादा टिक भी नहीं सकता था. लेकिन अब चुनाव मुहाने पर हैं तो संगठन को डर है कि इसकी हवा कहीं कोई विपक्षी दल या संगठन गलत तरीके से न उठा दे. 


हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रिफॉर्म की राह पर ही चलते हैं भले ही कदम सख्त हो या फिर थोड़ा नुकसान उठाना पड़ा जाए लेकिन वो नुकसान सियासी हो ऐसा कोई भी दल नहीं चाहेगा. प्रधानमंत्री मोदी की इसी रिफॉर्म पॉलिसी को तेजी देने के लिए श्रम मंत्री भूपेंद्र यादव भी लगे हुए थे. संगठन में रहकर शीर्ष नेतृत्व का भरोसा जीतने के बाद भूपेंद्र यादव अब मंत्री के तौर पर भी बड़ी लकीर खींचने की जल्दबाजी में हैं. इस कड़ी में यादव की कोशिश है कि ये संशोधन पूरे देश में जल्द से जल्द लागू हो. लेकिन राज की बात ये है कि अभी फिलहाल य़े मामला ठंडे बस्ते में जाएगा. इसके पीछे की वजह क्या है वो भी हम आपको बताते हैं. 


राज की बात ये है कि अभी कुछ दिन पहले हुई एक महत्वपूर्ण बैठक में शीर्ष नेतृत्व श्रम मंत्री को इस कानून को लेकर दिखाई जा रही तेजी पर टोका है. ऐसा नहीं है कि नेतृत्व कानून के खिलाफ हैं, लेकिन चिंता इस बात की है कि जब चुनावी माहौल गरम है, किसान आंदोलन भी खिंचता जा रहा है, ऐसे में श्रम कानुनों को लेकर  कहीं सियासी परिस्थितियां न खिलाफ हो जाएं, ये चिंता तो बीजेपी आलाकमान को हो ही रही है.


चिंता गैरवाजिब भी नहीं, कृषि कानून के मसले पर किसान संगठन सक्रिय हो उठे हैं और विपक्षी लामबंदी को भी बल मिल गया. ऐसे में पार्टी को डर है कि कहीं श्रम कानून के मामला ज्यादा उठा तो नेपथ्य में पड़ा लेफ्ट भी इस मसले को लेकर न मुखर हो जाए. क्योंकि अगर ऐसा होता है लेफ्ट के लिए संजीवनी हो जाएगी और किसान संगठनों से हलकान सरकार के सामने श्रमिक संगठनों की चुनौती भी आकर खड़ी हो जाएगी. तेजी दिखा रहे श्रम मंत्री से कहा भी गया कि किसान कानून पर कांग्रेस सड़कों पर है और क्या आप चाह रहे हैं कि चुनावी मौसम में वामपंथी भी जिंदा हो जाएं.


जगजाहिर ही है कि श्रमिक मुद्दों पर वामपंथी दल ज्यादा मुखर और सक्रिय होते रहे हैं. फिलहाल वामपंथ हाशिये पर है. ऐसे में जबकि किसानों का मुद्दा सरगर्म है, ऐसे में सरकार कोई सियासी खतरा लेकर लाल झंडे वालों को मौका नहीं देना नहीं चाहती. राज की बात ये है कि श्रम कानून मे जो संशोधन हुए हैं उन्हें देश में लागू तो कराया जाएगा, लेकिन फिलहाल इस कवायद पर यूपी चुनाव तक ब्रेक लगी रहेगी. वजह साफ है कि रिफॉर्म देश के विकास के लिए जरूरी हैं लेकिन वो पार्टी की नुकसान की शर्त पर हों ऐसा हो नहीं सकता और यूपी का चुनाव तो ऐसा है जिसका सीधा असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी देखने को मिलेगा.


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