देश में बीते कुछ समय से सियासत का मिजाज बदला हुआ है. 2014 में और 2019 में बीजेपी ने जितनी प्रचंड जीत दर्ज की, उतनी ही प्रचंड जीत के लिए अब विपक्ष लामबंद है. हालांकि हुकूमत किसके हाथ में आएगी इस पर शह-मात का खेल जारी है. लेकिन इतना तो तय हो गया है कि विपक्ष के हर सूरमा ने अपना फोकस 2024 के लोकसभा चुनाव पर बना रखा है. बीजेपी को हराने के लिए एकजुटता अनिवार्य शर्त है, लेकिन रायसीना हिल्स की खुद की दावेदारी को मजबूत करने के पीछे बिछाई जा रही बिसात ही राज है, इसी पर करते हैं बात.


ये तय है कि अगर विपक्षी एकता रंग लाती है तो पीएम पद पाने की लालसा बहुतों में बलवती है. हालांकि, सीट जिसके पास सबसे ज्यादा होगी, सरकार चलाने की संभावनाएं भी उसके साथ ही सबसे ज्यादा होंगी. लिहाजा अपने-अपने हिसाब से सभी दलों ने बुलंदी का सपना बुनना शुरु कर दिया है. जहां तक संख्या बल की बात है तो बीजेपी के मुकाबले राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ कांग्रेस ही है, जिसका पूरे देश में नेटवर्क है. विपक्ष में सबसे ज्यादा सीट उसके लड़ने और जीतने के लिहाज से कांग्रेस अपने आप गैर-बीजेपी मोर्चे के केंद्र में खड़ी दिखाई देती है. मगर राज की बात कांग्रेस के साथ रहते हुए भी कैसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय स्तर पर तृणमूल कांग्रेस की दो हरी पत्तियों को कैसे बरगद बनाने का काम शुरू कर दिया है, वह खासा दिलचस्प है.


सियासत में अंकगणित सच्चाई है और इसे समझते हुए एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार से लेकर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर यानी पीके कह चुके हैं कि जिसकी सीट ज्यादा आएंगी, उसी का पीएम चेहरा सामने आ सकता है. आज राज की बात में हम आपको बताने जा रहे हैं कि कैसे विपक्ष के संयुक्त बीजेपी हराओ अभियान में ममता बनर्जी बड़े सधे और फूंक फूंक कर कदम रख रही है. विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद के तमाम दावेदारों में से एक ममता भी हैं लेकिन वो अच्छे से समझती हैं कि सीटों का गेम भारी होगा तभी इस पद तक पहुंचने का सपना पूरा होगा. ममता बनर्जी को ये भी पता है कि क्षेत्रीय दलों में उन्हीं की पार्टी एक बड़ राज्य में सत्ता चला रही है ऐसे में उन्के लिए नंबर गेम को हासिल करन या उसे बड़ा करने औरों के मुकाबले आसान है. यही वजह है कि अब ममता बनर्जी की तैयारियां पीएम पद के लिहाज से शुरू हो गई है.


आज राज की बात में हम आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर क्या है ममता बनर्जी का सियासी प्लान और कैसे इस प्लान के चलते कांग्रेस और एनसीपी जैसे दलों के नेताओं की नींद उड़ सकती है.


राज की बात ये है कि दरअसल 2024 के महासमर के लिए ममता बनर्जी ने बड़े सधे अंदाज में अपने सपनों की बिसात मजबूत करनी शुरु कर दी है. नंबर गेम पर जाएं तो पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीट है. अगर विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री का चेहरा बनना है तो ममता को इन 42 सीट से आगे बढ़ना होगा लेकिन उनके अपने राज्य में यह सीट 42 ही रहेंगी. ऐसे में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए और नंबर की इस चुनौती से पार पाने के लिए उन्होंने छोटे राज्यों और इन राज्यों को छोटे दलों तक अपनी दस्तक देनी शुरु कर दी है.


दरअसल ममता बनर्जी यह अच्छे से जानती हैं कि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तमिलनाडु, मध्य प्रदेश या राजस्थान जैसे राज्यो में एकदम से पैर जमा लेना आसान नहीं लिहाजा उन्होंने छोटे राज्यों पर फोकस शुर कर दिया है. एक तरफ जहां ममता बनर्जी पूर्वोत्तर के राज्यों में सक्रिय हो रही हैं, वहीं गोवा में तो उन्होने इतना व्यापक अभियान छेड़ा है कि  तृणमूल कांग्रेस की उपस्थिति गोवा कि हर सड़क और मोहल्ला तक दिखाई दे रही है. इतना ही नहीं, ममता बनर्जी ने गोवा को जीतने के लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री फलेरो को ही तोड़ लिया है. ऐसे में विधानसभा चुनाव के लिए तैयार की गई जमीन लोकसभा चुनाव में एक बेहतर परिणाम देने वाली हो सकती है.


वहीं पूर्वोत्तर के राज्यों की अगर 25 सीटें सध जाती हैं तो बंगाल को मिलाकर ये आंकड़ा 65 सीटों तक पहुंच जाता है. विपक्ष के नेता के तौर पर ये संख्या एक मजबूत दावेदारी बनाने के लिए काफी है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चेबंदी के लिए सीटें, सहयोगी और अन्य राज्यों में भी पैर पसारना जरूरी है.


हालांकि ऐसा नहीं है कि ममता केवल नंबर्स पर ही ध्यान दे रही हैं. राज की बात ये है कि  लोकसभा सीटों के ये ख्वाब हकीकत में कैसे बदलेंगे इस मास्टरप्लान पर भी काम शुरु हो चुका है. ममता बनर्जी ने स्थानीय स्तर के बड़े नेताओं को जोड़ने के साथ ही साथ एनडीए के कमजोर पहलुओं पर भी फोकस कर दिया है. उदाहरण के तौर पर भाजपा और जेडीयू के बीच चल रहे कोल्ड वार के बीच अपनी संभावनाओं को जगह देने की जुगत शुरु कर दी है.


दरअसल बिहार को लेकर ममता बनर्जी के दोनों हाथ में ही लड्डू नजर आते हैं. एक और जहां नीतीश कुमार से उनके बेहतर संबंध है. वहीं दूसरी ओर , राष्ट्रीय जनता दल भी उनका समर्थक है. पश्चिम बंगाल के चुनाव में राजद ने खुलकर तृणमूल कांग्रेस का समर्थन किया था. ऐसे में अगर जेडीयू तृणमूल कांग्रेस के साथ नहीं भी आता है तो उसके पास राष्ट्रीय जनता दल का विकल्प हमेशा बना हुआ है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो कांग्रेस के बड़े चेहरे ललितेशपति त्रिपाठी को तोड़कर ममता तृणमूल के खेमे में ले आईं.


इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस की मौजूदगी झारखंड में भी है और यहां पर बाग्ला बोलने वालों की अच्छी खासी तादात ममता के सियासी सपनों को बल दे रही है. इसके साथ ही ममता बनर्जी दक्षिण में टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस के साथ भी गठबंधन की संभावना तलाश कर रही हैं. लक्ष्य हर जगह उपस्थित दर्ज करा अपनी सीटें बढ़ाने और राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने का है. वहीं ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ भी ममता बनर्जी के रिश्ते काफी अच्छे हैं. अगर इन क्षेत्रीय दलों के साथ ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का किसी भी तरह का गठबंधन होता है तो ममता की सीटों की संख्या में भी इजाफा हो सकता है.


ये तो रही क्षेत्रीय दलों पर ममता के निशाने की. वहीं दूसरी तरफ एक और फैक्टर ममता बनर्जी की बुलंदी की संभावनाओं को बल दे रहा है। दरअसल में कांग्रेस जाने की हसरत पाले बैठे प्रशांत किशोर को सफलता नहीं मिली तो ऐसे में वो तृणमूल के साथ लगातार संपर्क में हैं ही. यह कोई छिपी बात नहीं कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तूफानी जीत में प्रशांत किशोर का भी हाथ था. एसे में प्रशांत किशोर जैसा रणनीतिकार साथ हो तो ममता की राह थोड़ी आसान हो सकती है.


राज की बात ये भी है कि इस पूरी कवायद के बीच ममता इस बात का पूरा ख्याल रख रही है कि न तो किसी कदम से उनकी कांग्रसे से बिगड़े और न ही किसी अन्य सहयोगी दल से. बल्कि ममता बनर्जी इस कोशिश में भी हैं कि अपनी पार्टी की जमीन मजबूत करने के साथ ही साथ जहां तक हो सहयोगी दलों को भी मजबूत करने में योगदान दिया जाए.


यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में ममता बनर्जी पहले ही समाजवादी पार्टी के समर्थन में रैली करने का ऐलान कर चुकी हैं. वहीं जब बंगाल में विधानसभा चुनाव हो रहे थे तब सपा सांसद जया बहादुरी ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के लिए प्रचार किया था. ऐसे में सपा के सहयोग और गठबंधन से अगर तृणमूल कांग्रेस अपने 1 या दो सांसद जिताने में कामयाब रहती है तो ये एक प्लस प्वाइंट बन जाएगा. यह चर्चा पहले से ही गर्म है कि किसान आंदोलन के नेता टिकैत तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ सकते हैं. अतीत में भी मथुरा से तृणमूल के प्रत्याशी विधायक बन चुके हैं.


मतलब साफ है कि छोटे राज्यो में छोटे एलाइस के साथ और बड़े राज्यों में येन केन प्रकारेण कुछ सीटों पर जीत दर्ज करके बुलंदी पाने के फॉर्मूले पर ममता बढ़ रही है. अब ये फॉर्मूला कितना सफल होता है ये वक्त बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि अगर ममता बुलंद होती हैं तो क्षेत्रीय दलों को ताकत मिलेगी लेकिन कांग्रेस और कमजोरी के जद में आ जाएगी क्य़ोकि फिलहाल तक की स्थित में यही माना जा रहा है कि विपक्षी लामबंदी सफल होती है तो पीएम का कोटा कांग्रेस के पास ही आएगा. लेकिन ममता की रणनीति कांग्रेस से आगे निकलकर खुद को पीएम पद तक पहुंचाने की हैं.



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