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राजस्थान: अशोक गहलोत-सचिन पायलट के झगड़े का हल गुप्त मतदान?

दिल्ली के एक बड़े कांग्रेस नेता का फोन आया. कहने लगे कि राजस्थान में आप तीन दश्कों से पत्रकारिता कर रहे हैं. आप बताइए कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच के झगड़े का निपटारा कैसे हो सकता है? दो तीन विकल्पों पर चर्चा हुई. अंत में समाधान का फार्मूला खोजा गया. फार्मूला यह है कि कांग्रेस के विधायकों का गुप्त मतदान करवाया जाए इसमें अशोक गहलोत सरकार का समर्थन कर रहे निर्दलीय विधायक भी शामिल किए जाएं. पर्ची डलवा कर पूछा जाए कि उनकी नजर में मुख्यमंत्री कौन होना चाहिए? एक- अशोक गहलोत. दो- सचिन पायलट. तीन- कोई अन्य. 

गुप्त मतदान से पहले गहलोत और पायलट से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे लिखित में शपथनामा लें. इसमें कहा गया हो कि यह अंतिम गुप्त मतदान है. इसका जो नतीजा निकलेगा उसे दोनों पक्षों को मानना पड़ेगा. जीतने वाला हारने वाले और उनके साथियों के साथ दुराग्रह नहीं रखेगा. मतदान का नतीजा सार्वजनिक नहीं किया जाएगा. यानि यह नहीं बताया जाएगा कि किसे कितने विधायकों ने समर्थन किया. सिर्फ यह बताया जाएगा कि बहुमत किस नेता के साथ है. 

इसके साथ ही यह भी साफ कर दिया जाए कि हारने वाला फिर कोई सवाल मतदान को लेकर नहीं उठाएगा और वो चाहे तो पार्टी छोड़ दे लेकिन अंदर रह कर बयानबाजी नहीं करे. सवाल उठता है कि क्या ऐसे किसी फार्मूले पर कांग्रेस आलाकमान क्या वास्तव में विचार कर रहा है? क्या खरगे ऐसा कुछ चाहते हैं? क्या आलाकमान अपनी हनक छोड़ने और सारा मामला गुप्त मतदान पर छोड़ने को तैयार है या वो एक लाइन का प्रस्ताव पारित करने और अंतिम फैसला अपने पास सुरक्षित रखने को ही प्राथमिकता देगा. 

सवाल यह भी उठता है कि क्या गहलोत और पायलट इसके लिए राजी हो जाएंगे? क्या आलाकमान कहेगा कि जो राजी नहीं वो मुख्यमंत्री पद की दावेदारी छोड़ दे. जाहिर है कि गहलोत हर बार कभी 90 तो कभी 102 विधायकों के साथ होने का दावा करते रहे हैं लिहाजा वो तो इस के लिए राजी हो जायेंगे. लेकिन क्या सचिन तैयार होंगे जो कहते रहे हैं या समर्थकों के जरिए कहलवाते रहे हैं कि आलाकमान को चार साल पुराना वायदा निभाना चाहिए यानि उन्हें मुख्यमंत्री बना देना चाहिए. बड़ा सवाल है. लेकिन जिस तरह से आरोप लग रहे हैं, जिस तरह की रह-रह कर बयानबाजी हो रही है, जिस तरह से दोनों खेमे आमने-सामने हैं उसे देखते हुए दोनों नेताओं से गले छोड़ हाथ मिलवाना भी असंभव है. ऐसे में बहुमत के आधार पर फैसला एक सही फैसला हो सकता है, जिसके साथ विधायक वो मुख्यमंत्री.

यह सब कब होगा जब होगा. तब होगा तब क्या होगा. यह सवाल भविष्य के गर्भ में हैं लेकिन हकीकत आज की तारीख में यह है कि तलवारे खिची हुई हैं. पहले पायलट आर-पार चाहते थे. उनका कहना था कि आलाकमान को जो फैसला करना है करे लेकिन जल्दी करे. तब गहलोत बीच का रास्ता लेते रहे थे लेकिन अब गहलोत ने भी साफ कर दिया है कि आलाकमान रोज-रोज की किच किच को खत्म करे और उन्हें शासन चलाने दे. (या फिर हटाना है तो उनका साथ दे रहे 102 विधायकों में से ही किसी को मुख्यमंत्री बनाया जाए. 

गहलोत ने पहली बार खुलकर आलाकमान को एक तरह से चेतावनी दे दी है कि उन्हें सचिन पायलट स्वीकार नहीं है. पहली बार खुल कर स्वीकारा है कि वो विधायक दल के बहिष्कार को जायज ठहराते हैं. पहली बार कहा है कि ऐसे कैसे आलाकमान सचिन को मुख्यमंत्री बना देगा. इससे ज्यादा साफ शब्दों में अपनी बात नहीं कही जा सकती थी. इस बात को क्या आलाकमान सुन रहा है. जयराम रमेश महसूस कर रहे हैं और बीच का रास्ता निकाल रहे हैं. कह रहे हैं कि गहलोत वरिष्ठ नेता हैं. ऐसा कुछ गलत नहीं करेंगे और मामला सुलझ जाएगा लेकिन बीच का रास्ता हमेशा नहीं होता है. होता भी है तो दूर तक नहीं ले जाता है. 

पहली बार खुल कर गहलोत ने कह दिया है कि बीजेपी से सचिन ने बगावत पर उतरे विधायकों को दस दस करोड़ रुपये दिलवाए. सवाल उठता है कि क्या आलाकमान ने गहलोत से सबूत मांगे हैं. अगर उन्हें दिए गये हैं तो क्या आलाकमान ने सबूतों की जांच करवाई है. अगर करवाई है तो उसका नतीजा क्या निकला है. अगर गहलोत के आरोप फिजूल हैं तो उनके खिलाफ आलाकमान कार्यवाही क्यों नहीं करता. अगर सचिन पायलट ने उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस तोड़ने की कोशिश करते हुए गद्दारी की तो क्या झूठे आरोप (अगर ऐसा है तो) लगाकर गहलोत कांग्रेस के साथ धोखेबाजी नहीं कर रहे हैं .

सवाल तो बहुत है लेकिन अंतिम समाधान क्या गुप्त मतदान ही रह गया है. क्या बातचीत का रास्ता खत्म हो चुका है. क्या आमने सामने बिठा कर विवाद सुलझाने की संभावना का अंत हो गया है. बिल्कुल हो गया है. मतभेद होते तो सुलझते यहां तो मनभेद हैं जिन्हें किसी भी सूरत में दूर नहीं किया जा सकता. अब तो दोनों तलवारें निकाले आमने सामने हैं. यहां आलाकमान की भूमिका भी कठघरे में आती है. पायलट के लोग कहते हैं कि प्रियंका सोनिया उनके साथ हैं, राहुल गांधी वादा भूले नहीं है. इस पर पायलट चुपी साधे हैं लेकिन गहलोत ने साफ कर दिया है कि उन्हें आलाकमान की तरफ से ऐसा कोई इशारा नहीं किया है उन्हें हटाया जा रहा है या हटाया जा सकता है या हटाने पर विचार हो रहा है. लेकिन कांग्रेस सूत्रों ने साफ कर दिया है कि आलाकमान की नजर में मामला निपटा नहीं है यानि गहलोत पर तलवार लटक रही है और सचिन मुख्यमंत्री बनने का सपना एक रात और त्रदेख सकते हैं.

कुछ दिन पहले मेरी गहलोत से मुलाकात हुई. आत्मविश्वास से भरे नजर आए. कहने लगे कि बजट जल्दी लाना है ताकि ज्यादा घोषणाओं पर जल्द अमल किया जा सके. कहने लगे कि राइट टू हेल्थ लागू करने वाला राजस्थान पहला राज्य बनने वाला है. कहने लगे कि शहरी मनरेगा योजना पर गंभीरता से और काम करना है. बातों ही बातों में संकेत दिया कि वो कहीं जाने वाले नहीं है, आलाकमान उन्हें हटाने की सोच भी नहीं रहा है और उन्हीं के नेतृत्व में अगला विधानसभा चुनाव और उसके बाद लोकसभा चुनाव भी लड़ा जाएगा. उधर सचिन पायलट भी सीधे खड़े नजर आते हैं. कहते हैं कि सब कुछ आलाकमान पर छोड़ दिया है. उम्मीद है कि आलाकमान जल्दी फैसला करेगा. जब सचिन कहते हैं आलाकमान पर सब छोड़ दिया है तब वो दरअसल यह कहने की कोशिश कर रहे होते हैं कि आलाकमान ने मुख्यमंत्री बनाने का वायदा किया था और वायदा पूरा होने ही वाला है.

वैसे पिछले सवा डेढ़ साल से दोनों के बीच चल रहे विवाद को देखा जाए तो दिलचस्प रणनीति नजर आती है. गहलोत के खिलाफ बयानबाजी देने से पहले सचिन चूकते नहीं थे लेकिन फिर थोड़ा चुप रहने लगे. मौके का इंतजार करने लगे. इसी तरह गहलोत चुपचाप सचिन के दो तीन हमलों का इंतजार करते हैं और एक दिन हथौड़ा चला देते हैं. सौ सुनार की एक लोहार की जैसी शैली है. नहले पर दहला मारते हैं और मुशायरा लूट लेते हैं. सचिन पायलट ने इस चक्रव्यूह से निकलते हुए नई रणनीति बनाई है. वो अपने समर्थकों के जरिए सियासी हमले करवाते हैं. कुछ निष्पक्ष विधायकों से सवाल उठवाते हैं. यह विधायक अपील करते हैं कि आलाकमान झगड़ा सुलटाए नहीं तो कांग्रेस चुनावों में बुरी तरह से पिट जाएगी. रही सही कसर सचिन कभी गहलोत समर्थक किसी नेता या मंत्री के यहां चाय जाकर पूरी कर देते हैं. 

हाल ही में मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास के यहां सचिन चले गये थे. चाय पर दो घंटे पता नहीं क्या बतियाते रहे लेकिन मीडिया में मिर्च मसाला रिपोर्टिंग शुरू हो गई. आपको याद होगा कि मानगढ़ में प्रधानमंत्री मोदी ने गहलोत को वरिष्ठ मुख्यमंत्री बता दिया था. इस पर सचिन ने चुटकी ली कि मोदी जी ने गुलाम नबी आजाद की भी तारीफ की थी लिहाजा इसे गंभीरता से लिया जाए. साफ है कि सचिन इशारा कर रहे थे कि गहलोत भी आजाद की राह पकड़ेंगे या पकड़ सकते हैं. यह आहत करने वाला बयान था जिस पर गहलोत ने पलटवार भी किया था. वैसे वार पलटवार का सिलसिला इतना लंबा रहा है कि इस पर एक मोटी किताब लिखी जा सकती है. गहलोत कहते रहे हैं कि राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं है और जो होता है वह दिखता नहीं है. अब अगर राजनीति का जादूगर भी ऐसा सोच रखता है तो माना जाना चाहिए कि राजस्थान में झगड़ा निपटाना आलाकमान के लिए आसान नहीं होगा.

कुल मिलाकर निचोड़ यही है कि गुजरात चुनाव के कर्ताधर्ता गहलोत हैं यानि गुजरात चुनाव निपटने तक कुछ होने वाला नहीं है. भारत जोड़ो यात्रा राजस्थान में दिसंबर में आने वाली है. अगर यात्रा के दौरान गड़बड़ी हुई तो गाज सचिन पर ही गिरेगी. ऐसा इसलिए कि गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के विजय सिंह बैंसला सचिन को मुख्यमंत्री नहीं बनाने पर यात्रा के विरोध की धमकी दे रहे हैं, गहलोत साफ है कि चाहेंगे कि यात्रा में हल्की फुल्की गड़बड़ी हो ताकि एक, वो सचिन पायलट पर इसका ठीकरा फोड़ सके और दो, गड़बड़ी पर नियंत्रण कर अपनी सियासी कुशलता का परिचय दे सकें. इस सब में दिसंबर का महीना निकल जाएगा. 

उसके बाद गहलोत बजट बनाने में व्यस्त हो जाएंगे जिसे वह जनवरी महीने में विधानसभा में रखने की सोच रहे हैं. कुछ का कहना है कि इस तरह भारत जोड़ो यात्रा के समापन तक कुछ होने वाला नहीं बशर्ते आलाकमान कोई चौंकाने वाला फैसला नहीं करता है. वैसे आलाकमान कम ही चौंकाता है. इस बात को भी गहलोत खेमा सामने रखता रहा है.  एक हकीकत यह भी है कि सचिन पायलट के पास कोई ठौर नहीं बचा है. बीजेपी को अब उनकी जरुरत नहीं है. वहां सचिन के लिए कोई जगह भी नहीं बची है. गहलोत अपनी सियासी पारी करीब करीब खेल चुके हैं हालांकि वो चौथी बार भी मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश सामने रख चुके हैं. गहलोत अपने बेटे बैभव गहलोत को राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं लेकिन इसके बदले सचिन को कुर्सी सौंपने का सौदा भी नहीं करना चाहते.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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