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राजस्थान चुनाव: वसुंधरा राजे की अनदेखी से बीजेपी का मंसूबा हो सकता है चकनाचूर, कांग्रेस को है लाभ

राजस्थान विधान सभा चुनाव अब बिल्कुल सामने है.इसी साल राजस्थान के आलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम में भी विधान सभा चुनाव होने हैं. इनमें फिलहाल मध्य प्रदेश ही एकमात्र राज्य है, जहां बीजेपी की सरकार है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है. वहीं तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति या'नी बीआरएस की सरकार है. पूर्वोत्तर राज्य मिज़ोरम में मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा की अगुवाई में मिज़ो नेशनल फ्रंट की सरकार है.

राजस्थान विधान सभा चुनाव पर सबकी नज़र

इन 5 राज्यों में से सबसे दिलचस्प और क़रीबी मुक़ाबला राजस्थान में देखने को मिल सकता है. राजस्थान विधानसभा का कार्यकाल 14 जनवरी 2018 को खत्म हो रहा है. ऐसे में यहां नवंबर-दिसंबर में चुनाव हो सकता है. कर्नाटक में इस साल मई में सत्ता हासिल करने के बाद बड़े राज्यों में यही एक और राज्य है जहां फिलहाल कांग्रेस की सरकार है. चुनावी नज़रिये बड़े राज्यों से यहां तात्पर्य ऐसे राज्य से है जहां 200 या उससे अधिक विधान सभा सीटें हैं. राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 101 सीटें चाहिए. यहां सीधा मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच है.

पिछला 5 साल राजस्थान की राजनीति के लिए बेहद नाटकीय भरा रहा है. इस दौरान चाहे सत्ताधारी कांग्रेस हो या फिर बीजेपी, दोनों ही दलों में उथल-पुथल देखने को मिला है. अब जब विधान सभा चुनाव दहलीज़ पर है, तो कांग्रेस और बीजेपी अपनी-अपनी रणनीतियों को अमली जामा  देने में जुटी हैं.

राजस्थान चुनाव बीजेपी के लिए है ख़ास

इस बार राजस्थान विधान सभा चुनाव बीजेपी के लिए दो ऩजरिये से ख़ास है. एक तो यहां से कांग्रेस को बे-दख़्ल कर बीजेपी खु़द सत्ता में आने का मंसूबा लेकर आगे बढ़ रही है. दूसरी तरफ बीजेपी जिस अंदाज़ में चुनावी रणनीति को आगे बढ़ा रही है, उससे लगता है कि वो वसुंधरा राजे युग से बाहर निकलना चाहती है. पिछले चुनाव के बाद से ही जो पार्टी का रुख़ रहा है, उससे कहा जा सकता है कि इस बार के विधान सभा चुनाव के माध्यम से बीजेपी प्रदेश में नेतृत्व की नई पौध उगाना चाह रही है.

राजस्थान से बीजेपी का है ख़ास जुड़ाव

राजस्थान राजनीतिक विरासत के दृष्टिकोण से भी बीजेपी के लिए ख़ास महत्व रखता है. अप्रैल 1980 में नई पार्टी के तौर पर बीजेपी देश की राजनीति में आई. इसके अगले ही महीने मई 1980 में राजस्थान विधान सभा चुनाव होता है और यहां पहली बार चुनावी समर में उतरते हुए बीजेपी 32 सीट जीतने में कामयाब हो जाती है.

इतना ही नहीं पार्टी के गठन के बाद राजस्थान उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहां बीजेपी सबसे पहले सरकार बनाने में कामयाब हुई.  मार्च 1990 में बीजेपी राजस्थान के साथ ही हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हुई. उसमें भी राजस्थान में इन दोनों राज्यों से एक दिन पहले बीजेपी की सरकार बनी. राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत की अगुवाई में बीजेपी ने पहली बार 4 मार्च 1990 को सरकार बनाई थी. हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में 5 मार्च 1990 को बीजेपी की सरकार बनी थी.

शीर्ष नेतृत्व से वसुंधरा राजे की अनदेखी

बीजेपी को भली भाँति पता है कि पाँच साल सत्ता में रहने के बावजूद राजस्थान में कांग्रेस की स्थिति मज़बूत है. कांग्रेस के पास वरिष्ठ नेता और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ ही तेज़-तर्रार युवा नेता सचिन पायलट की ताक़त है. इसके बावजूद बीजेपी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और पार्टी की सबसे कद्दावर नेता वसुंधरा राजे की लगातार अनदेखी कर रही है. यह बात हैरान करने वाली है. हालांकि यह बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की सोची-समझी चुनावी रणनीति का भी हिस्सा हो सकता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है.

राजस्थान में सत्ता परिवर्तन का रिवाज

राजस्थान में पिछले 6 विधान सभा चुनाव से एक परंपरा देखने को मिल रही है. पिछले 6 चुनाव से बीजेपी और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आती है. 1993 विधान सभा चुनाव में  जीत हासिल भैरों सिंह शेखावत की अगुवाई में बीजेपी ने सरकार बनाई थी. उसके बाद राजस्थान में कोई भी पार्टी लगातार दो बार चुनाव नहीं जीत सकी है. इस परंपरा के लिहाज़ से इस बार बीजेपी की बारी है. यह बीजेपी के लिए प्लस पॉइंट हो सकता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट की साझा ताक़त के सामने पिछले 6 बार से चली आ रही परंपरा को क़ायम रखना बीजेपी के लिए आसान नहीं रहने वाला. उसमें भी जब पार्टी अपनी सबसे वरिष्ठ नेता वसुंधरा राजे की अनदेखी कर रही हो.

गहलोत-पायलट कांग्रेस की बड़ी ताक़त

राजस्थान में पिछला विधान सभा चुनाव दिसंबर 2018 में हुआ था. उस वक्त कांग्रेस की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष सचिन पायलट थे. उनकी जो-तोड़ मेहनत की बदौलत कांग्रेस ने यहां की सत्ता से बीजेपी को बाहर कर दिया था. हालांकि उसके बाद अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बनते हैं और यहीं से कांग्रेस में अंदरूनी लड़ाई की नीव पड़ जाती है. इस दरमियान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच हर तरह की तकरार देखने को मिली. दोनों नेताओं ने ख़ुद भी और उनके समर्थकों ने भी ज़बानी जंग में हर उस सीमा को पार किया, जिसकी एक ही पार्टी में रहकर कल्पना भी नहीं की जा सकती है. चंद महीने पहले तक ऐसा लग रहा था कि गहलोत-पायलट के बीच की खींचतान से आगामी विधान सभा चुनाव में सत्ता से जुड़े गलियारे से गुज़रना बीजेपी के लिए बेहद आसान रहने वाला है.

हालांकि चुनाव के कुछ महीने पहले ही कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के दख़्ल से सचिन पायलट की नाराज़गी दूर हो गई. अब तो सचिन पायलट फिर से 2018 की तरह ही कांग्रेस को सत्ता में बरक़रार रखने के लिए जी जान से जुटे नज़र आ रहे हैं. पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से जो भी भरोसा मिला हो, अब सचिन पायलट जोश में दिख रहे हैं. उन्होंने अब सार्वजनिक मंचों से यह कहना शुरू कर दिया है कि राजस्थान में 30 साल से चली आ रही परंपरा इस बार बदल जायेगी.

बीजेपी में अंदरूनी कलह उफान पर

राजस्थान में कांग्रेस के विपरीत चुनाव के नज़दीक आते-आते बीजेपी में अंदरूनी कलह उफान पर है. यह भी कहा जा सकता है कि अपने सबसे वरिष्ठ नेता वसुंधरा राजे को ही दर-किनार करने में शीर्ष नेतृत्व के साथ ही पार्टी की प्रदेश इकाई अपनी ऊर्जा खपा रही है. अगर ऐसा ही होता रहा तो विधान सभा चुनाव में यह बीजेपी के लिए आत्मघाती गोल साबित हो सकता है. इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.

वसुंधरा राजे को तवज्जोह नहीं देना ख़तरनाक

बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से अब तक के रवैये से यह क़रीब क़रीब स्पष्ट हो गया है कि पार्टी मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरे के ऐलान के बिना ही आगामी विधान सभा चुनाव में ज़ोर आज़माइश करने वाली है. दरअसल राजस्थान में वसुंधरा राजे की अनदेखी का सिलसिला 2019 के लोक सभा चुनाव से ही शुरू हो गया था. 2018 के विधान सभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पार्टी को सत्ता में बरक़रार नहीं रख पाई थीं. उसी का ख़म्याज़ा था कि विधान सभा चुनाव के 4 महीने बाद ही हुए लोक सभा चुनाव में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से वसुंधरा राजे को कोई ख़ास तवज्जोह नहीं मिली थी. उस वक़्त से शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार जारी रहा.

उसी का नतीजा था कि सितंबर 2019 में अंबर से बीजेपी विधायक सतीश पूनिया, वसुंधरा राजे के नहीं चाहने के बावजूद पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनते हैं. सतीश पूनिया इस साल मार्च तक इस पद पर रहते हैं. हालांकि चुनावी साल में मार्च के आख़िर में बीजेपी चित्तौड़गढ़ से लोक सभा सांसद चंद्र प्रकाश जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बना देती है.

सतीश पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए वसुंधरा राजे पार्टी की राज्य इकाई से लगातार दूरी बनाकर रखती हैं या कहें राज्य इकाई भी इसी रवैये पर आगे बढ़ती रही है. प्रदेश में बीजेपी की परिवर्तन संकल्प यात्रा से भी वसुंधरा राजे की बे-रुख़ी किसी से छिपी नहीं है. हालांकि पिछले 4-5 साल में वसुंधरा राजे को जब भी मौका मिलता था, वसुंधरा राजे अपना शक्ति प्रदर्शन करने से पीछे नहीं हटती थीं. इन मौकों पर उनका आक्रामक तेवर भी दिखने को मिलता रहा है.

प्रदेश में अमूमन तीन धड़ों में बँटी बीजेपी

दरअसल राजस्थान में बीजेपी के स्थानीय नेताओं में सब कुछ ठीक नहीं है. वहां बीजेपी मौटे तौर पर  तीन ख़ेमों में बँटी नज़र आ रही है. वसुंधरा राजे के अलावा सतीश पूनिया के साथ ही केन्द्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर से अपने आप को प्रदेश के लिए पार्टी का चेहरा बताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे हैं. सतीश पूनिया को वसुंधरा राजे का धुर विरोधी माना जाता रहा है.

पिछले कुछ सालों में जोधपुर से लोक सभा सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत का कद राजस्थान में तेज़ी से बढ़ा है. या यूँ  कहें, गजेंद्र सिंह शेखावत प्रदेश में अपने कद को लगातार बड़ा दिखाने की कोशिश करते रहे हैं. दिल्ली में बैठे बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से नज़दीकी की वज्ह से भी प्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं और आम लोगों में ऐसा संदेश जाते रहा है कि भविष्य के लिहाज़ से 55 साल के गजेंद्र सिंह रावत ही वसुंधरा राजे का विकल्प हैं.

क्या नया नेतृत्व तैयार कर रही है बीजेपी?

राजस्थान में आम लोगों के बीच इसकी भी चर्चा ज़ोरों पर है कि भले ही बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद के चेहरे को लेकर कोई औपचारिक ऐलान नहीं करे, लेकिन भीतरखाने गजेंद्र सिंह शेखावत को ही बीजेपी प्रदेश में नई पौध मान रही है. राजस्थान में सब जानते हैं कि नेता विपक्ष राजेंद्र सिंह राठौड़ और गजेंद्र सिंह शेखावत के बीच कितनी अच्छी  जुगल-बंदी है. गाहे-ब-गाहे राजेंद्र सिंह राठौड़ अपने तरीक़े से मुख्यमंत्री पद के चेहरे के तौर पर गजेंद्र सिंह शेखावत के नाम को सूबे की जनता के बीच  को आगे करते रहे हैं. यही वजह है कि पिछले कुछ महीनों से राजस्थान में वसुंधरा कैंप हाशिये पर नज़र आ रहा है और गजेंद्र सिंह शेखावत गुट ऊपरी तौर पर हावी दिख रहा है.

वसुंधरा राजे की अनदेखी से चुनाव पर असर

विभिन्न धड़ों में बँटी बीजेपी के लिए चुनाव से पूर्व वसुंधरा राजे की अनदेखी से चुनाव नतीजे के लिहाज़ से पार्टी को झटका लग सकता है. इसके कई कारण हैं. सबसे पहली बात तो यही है कि अभी भी बीजेपी के पास राजस्थान में वसुंधरा राजे की तरह कद और प्रभाव रखने वाला कोई और दूसरा नेता नहीं है. वसुंधरा राजे का प्रभाव अमूनन प्रदेश के हर हिस्से में है. वहीं न तो जाट समुदाय से आने वाले सतीश पूनिया का और न ही गजेंद्र सिंह शेखावत का वैसा प्रभाव पूरे राजस्थान में है. ये दोनों ही नेता कुछ ख़ास इलाकों में ज़रूर प्रभाव रखते हैं.

बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व और प्रदेश इकाई की बे-रुख़ी के बावजूद वसुंधरा राजे अपने ही तरीक़े से अपनी दावेदारी ज़ाहिर कर रही हैं. ऐसे अटकलें लगाई जा रही हैं कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व 70 साल की वसुंधरा राजे का भविष्य केंद्रीय राजनीति में सुनिश्चित करना चाहता है, ताकि राजस्थान में बिना किसी अंदरूनी कलह और बगावत के नए नेतृत्व को मौक़ा देने में कोई रुकावट न आए.

वसुंधरा राजे अपने इरादे पर अडिग

हालांकि वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री पद को लेकर अपनी दावेदारी इतनी आसानी से छोड़ने के मूड में नज़र नहीं आ रही हैं. वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति में ही बनी रहना चाहती हैं, एक बार फिर से उन्होंने अपने ताज़ा बयान के माध्यम से शीर्ष नेतृत्व को संदेश दे दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जयपुर में 25 सितंबर को होने वाली चुनावी जन सभा से दो दिन पहले 23 सितंबर को वसुंधरा राजे ने दो टूक कह दिया कि वो राजस्थान को छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली हैं. उनके इस बयान से स्पष्ट है कि वे दिल्ली की राजनीति में जाने का कोई इरादा नहीं रखती हैं.

कहीं ग़लती तो नहीं कर रही है बीजेपी!

शीर्ष नेतृत्व और राज्य इकाई से अनदेखी के बीच मई में ऐसा लगने लगा था कि आगामी विधान सभा चुनाव में वसुंधरा राजे के नाम पर ही बीजेपी चुनाव लड़ेगी. ऐसा माना जा रहा था कि कर्नाटक चुनाव में हार से सबक लेते हुए बीजेपी राजस्थान में वो ग़लती नहीं दोहराएगी. मई में कर्नाटक में हुए विधान सभा चुनाव में बीजेपी की बुरी तरह से हार हुई थी. इस हार के पीछे के कारणों में से एक कारण यह भी था कि बीजेपी ने प्रदेश में पार्टी के वरिष्ठ नेता बीएस येदियुरप्पा की अनदेखी की थी. जबकि बीएस येदियुरप्पा ही वो नेता हैं, जिनकी जी-तोड़ मेहनत के कारण दक्षिण भारत के किसी राज्य में बीजेपी सत्ता हासिल कर पाई थी.  कर्नाटक में बीजेपी स्थानीय नेताओं के ब-जाए शीर्ष नेतृत्व ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को ही आगे रखकर चुनाव लड़ी थी. इसका ख़म्याज़ा पार्टी को सत्ता से बाहर होने के रूप में भुगतना पड़ा था.

कर्नाटक से नहीं लिया कोई सबक

उस व़क्त ऐसा लग रहा था कि कर्नाटक नतीजों के बाद बीजेपी अपनी रणनीति बदलने को मजबूर होगी. अजमेर में 31 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हुई विशाल रैली से भी इसका अंदाज़ा लगाया जा रहा था. उस रैली में मंच पर मौजूद वसुंधरा राजे का अभिवादन भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाथ जोड़कर स्वीकार किया था. दोनों नेताओं के बीच कुछ देर बातचीत भी हुई थी. अजमेर रैली के दौरान वसुंधरा राजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ठीक बगल में बैठी दिखाई दी थीं. रैली के लिए लगाए गए होर्डिंग और पोस्टरों में भी वसुंधरा राजे हर जगह नज़र आ रही थी.

अजमेर रैली के दौरान बदले-बदले माहौल से ऐसा संकेत मिल रहा था कि आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी वसुंधरा राजे को ही आगे कर सत्ता वापसी के मंसूबे को पूरा करने में जुटेगी. इसे एक तरह से कर्नाटक से सबक लेते हुए क्षेत्रीय नेताओं की अहमियत को समझने की बीजेपी की मजबूरी के तौर पर भी देखा जा रहा था. उस रैली के 4 महीने होने जा रहे हैं. अब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का जो रवैया, उससे एक बात तय है कि पार्टी चुनाव से पहले कोई चेहरा घोषित नहीं करने जा रही है.

स्थानीय चेहरे को महत्व नहीं देने से हानि

राजस्थान में घोषित चेहरा नहीं होने की वज्ह से बीजेपी को नुक़्सान उठाना पड़ सकता है. कांग्रेस के लिए यह एक तरह से लाभ की स्थिति है.  राजस्थान में सरकार बदलने के रिवाज और सत्ता विरोधी लहर की चुनौतियों से पार पाने में कांग्रेस के लिए बीजेपी का चेहरा नहीं घोषित करने का रवैया संजीवनी की तरह काम कर सकता है. राजस्थान के लोगों के सामने कांग्रेस की ओर से चेहरा सामने है. या तो अशोक गहलोत या फिर सचिन पायलट..फिर से जीत मिलने पर इन्हीं दोनों में किसी एक के हाथ में सत्ता की बागडोर जायेगी, प्रदेश के लोग इससे भली भाँति अवगत हैं.

वसुंधरा राजे राजस्थान में बड़े कद की नेता

जिस तरह का राजस्थान में राजनीतिक और चुनावी माहौल है, अशोक गहलोत और सचिन पायलट की जोड़ी को टक्कर देने का माद्दा अगर बीजेपी में किसी के पास है, तो वो नेता हैं वसुंधरा राजे. पिछले ढाई दशक के अनुभवों से ऐसा कहा जा सकता है. वसुंधरा राजे का कद राजस्थान में इतना बड़ा है कि किसी पार्टी के लिए उस शख़्सियत की उपेक्षा करना किसी भी पार्टी के लिए हानि का सबब बन सकता है.

वसुंधरा राजे का विकल्प खोजना आसान नहीं

अशोक गहलोत कितने मंझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी हैं, ये किसी से छिपी हुई बात नहीं है. उसके साथ ही राजस्थान में सचिन पायलट का प्रभाव लगातार बढ़ते ही गया है, यह भी तथ्य है. राजस्थान की सत्ता ढाई दशक से वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द ही घूमते रही है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक के बाद एक लोक-लुभावन वादे और घोषणाओं की एलान कर रहे हैं, वो स्पष्ट दिखाता है कि कांग्रेस इस बार राजस्थान में हर पाँच साल पर सत्ता परिवर्तन की परंपरा बदलने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है.

कांग्रेस फिलहाल राजस्थान में अच्छी स्थिति में दिख रही है. अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लोकप्रियता को देखते हुए बीजेपी के लिए वसुंधरा राजे से बड़ा कोई नेता यहां नहीं है. राज्य में पार्टी की सबसे वरिष्ठ और कद्दावर नेता वसुंधरा राजे को आगे करके ही बीजेपी गहलोत-पायलट की जोड़ी का तोड़ निकाल सकती है. 2018 के विधानसभा चुनाव में ये स्पष्ट दिखा था कि बिना वसुंधरा राजे को आगे किए सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर राज्य की सत्ता को हासिल करने के लिए लोगों का समर्थन पाना उतना आसान नहीं है.

राजनीति की माहिर खिलाड़ी हैं वसुंधरा राजे

वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति की माहिर खिलाड़ी मानी जाती हैं. भैरो सिंह शेखावत को छोड़ दें, तो वसुंधरा राजे ही एकमात्र नेता हैं, जिनके पास बीजेपी की ओर से राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का अनुभव है. वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रही हैं. वे राजस्थान की पहली और एकमात्र महिला मुख्यमंत्री भी थी. वे दिसंबर 2003 से दिसंबर 2008 और दिसंबर 2013 से दिसंबर 2018 तक मुख्यमंत्री रही हैं. राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने से पहले वसुंधरा राजे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रह चुकी हैं. वसुंधरा राजे फिलहाल बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और झालरापाटन से विधायक हैं.

वसुंधरा ने 2013 में दिलाई थी ऐतिहासिक जीत

2013 में वसुंधरा राजे की अगुवाई में बीजेपी ने राज्य की 200 में से 163 सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस सिर्फ 21 सीट पर सिमट गई थी. राजस्थान में इतनी बुरी स्थिति कांग्रेस की कभी नहीं हुई थी. वसुंधरा राजे का ही करिश्मा था कि 2013 में बीजेपी ने राजस्थान में अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया था. राजस्थान में ये बीजेपी की सबसे बड़ी जीत थी. राजस्थान के राजनीतिक इतिहास में अब तक कोई भी पार्टी इतनी सीटें नहीं जीत पाई है. 2018 में बीजेपी का एक तबक़ा वसुंधरा राजे से नाराज़ था. पिछले चुनाव में उस तबक़े से जुड़े लोगों ने 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं' का नारा फैलाया. हालांकि इस स्लोगन की वज्ह से  बीजेपी को नुक़्सान हुआ. पार्टी के हाथ से सत्ता फिसल गई.  2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 100 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 90 सीटों के नुक़्सान के साथ बीजेपी को महज़ 73 सीट पर ही जीत मिली थी.

फिलहाल वसुंधरा राजे ही सबसे बेहतर विकल्प

70 साल की वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. ढाई दशक से बीजेपी की सिर्फ़ वहीं एक नेता हैं जिन्हें राजस्थान के हर वर्ग और हर इलाक़े में समर्थन मिलते रहा है. राजस्थान में वसुंधरा राजे से बड़े कद का बीजेपी के पास फिलहाल कोई नेता नहीं दिखता. तमाम विरोधाभासों के बावजूद अभी भी वसुंधरा राजे राजस्थान में जननेता के तौर पर बेहद लोकप्रिय हैं. 2024 के लोक सभा चुनाव को देखते हुए भी राजस्थान विधान सभा का आगामी चुनाव बीजेपी के लिए और भी ज़्यादा ख़ास हो जाता है. राजस्थान वो राज्य है, जहां बीजेपी 2014 और 2019 दोनों ही लोक सभा चुनाव में शत-प्रतिशत सीटें जीत चुकी है. अगर बीजेपी राजस्थान में वसुंधरा राजे को दर-किनार कर चुनाव लड़ती है, तो मुमकिन है कि पार्टी को इससे हानि हो. स्थानीय चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ने के लिहाज़ से भी वसुंधरा राजे से बेहतर विकल्प फिलहाल बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के सामने कोई और नहीं है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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