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रंगीले राजस्थान में अब तक नहीं घुला है चुनावी रंग, ध्रुवीकरण और सत्ता से नाराजगी का न होना गहलोत के लिए राहत

राजस्थान का विधानसभा चुनाव इस बार जितना बेरंग दिख रहा है, उतना कभी नहीं रहा. यह भी कह सकते हैं कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुकाबले मतदान हफ्ते भर देरी से होने के कारण अभी चुनावी रंग चढ़ा ही नहीं है. मतदाताओं पर इसलिए नहीं चढ़ा क्योंकि वे अब भी शायद नामांकन खत्म होने के इंतजार में हैं. इसके उलट, कई विधानसभाओं में प्रत्याशियों का सियासी करियर खुद धुंधलके में घिरा है. वे अपने नाम के चक्कर में दिल्ली और जयपुर के चक्कर काट रहे हैं. जिनके टिकट कन्फर्म हो चुके हैं, वे नामांकन और चुनावी कार्यालय बनाने में व्यस्त हैं. 

अभी नहीं चढ़ा है चुनाव का रंग

दृश्य समझना हो तो दिल्ली से सटे तिजारा सीट का रुख करना चाहिए जहां 31 अक्टूबर की रात कांग्रेस से अपना टिकट कन्फर्म होने से पहले तक इमरान खान बसपा का प्रचार कर रहे थे. अंतिम समय में बसपा ने किसी और को टिकट दे दिया. उधर, इमरान कांग्रेस से प्रकट हो गए. वे फख्र से कहते हैं कि रातोंरात ऐसे ही थोड़ी खेल होता है. इमरान का चुनाव कार्यालय फिलहाल एक मॉल से चल रहा है. टिकट पक्का होने की अगली सुबह भारी संख्या में मेवों की बड़ी सभा वहां हुई. सभा का संचालन कर रहे मेवात के लोकप्रिय समाजसेवी मौलाना हनीफ के मुताबिक इस बार मेव समुदाय चाहता था कि उनका आदमी कांग्रेस से लड़े. ये पूछने पर कि आदमी अपना है तो पार्टी से क्या फर्क पड़ता है, उनका कहना था कि आखिरकार बसपा का विधायक जब कांग्रेस में चले ही जाना है तो बसपा से क्यों लड़ा जाए! उनकी दलील में दम है. पिछली बार बसपा के तीन विधायक कांग्रेस में चले गए थे.

मौलाना की इस दलील से एक और बात समझ आती है कि चुनाव अंततः कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सिमट कर रह जाना है, चाहे कोई कितना भी दम लगा ले. चूंकि कांग्रेस और भाजपा में आना जाना इतना सरल है और दोनों दलों के बीच व्यवहार के स्तर पर कोई वैचारिक मतभेद जैसा राजस्थान जैसी सामंती पृष्ठभूमि में संभव नहीं है, इसलिए मतदाता भी पार्टी के साथ नहीं, बल्कि अपनी बिरादरी के उम्मीदवार के साथ आस्था रखता है और आम तौर पर मुंह बंद रखता है. 

राजस्थानी चुनाव की भविष्यवाणी मुश्किल 

राजस्थान का चुनाव इसीलिए प्रेडिक्ट करना मुश्किल होता है. यहां का मतदाता यूपी या बिहार जैसा राजनीतिक मिजाज का नहीं है. जातिगत संबद्धताएं और निजी व्यवहार काम करता है. इसीलिए जब किसी प्रत्याशी को उसकी पार्टी से टिकट नहीं मिलता, तो उसके समर्थक ही दूसरी पार्टी से टिकट मिलने की उम्मीद पालने और इसे प्रचारित करने लग जाते हैं. इसका ताजा उदाहरण मारवाड़ के महत्वपूर्ण जिले नागौर से यूनुस खान का मामला है, तो पूर्व कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं. राजनीति कैसे रंगों से इतर व्यवहार से चलती है, युनुस इसका प्रतिनिधि केस हैं. इस बार भाजपा ने व्यवहार में रंग घोलकर अपनी किस्मत कमजोर कर ली है.  यूनुस वसुंधरा राजे के करीबी बताए जाते हैं. भाजपा में ढाई दशक से हैं. डीडवाना उनकी सीट है. डीडवाना के लोग उन्हें अपना विकास पुरुष मानते हैं. पिछली बार भाजपा ने डीडवाना से उन्हें टोंक भेज दिया था और वे हार गए थे. 

इस बार भी वे डीडवाना टिकट मांग रहे थे. भाजपा की सूची आई तो नाम गायब था. संघ के एक कार्यकर्ता बताते हैं कि भाजपा की अब की पॉलिसी है कि अब किसी मुसलमान को टिकट नहीं देना है. अंदरखाने अफवाह है कि कांग्रेस से यूनुस की बातचीत ज्योति मिर्धा के खिलाफ नागौर से लड़ने के लिए समानांतर चल रही थी. जयपुर तक ऐसी अफवाह है, लेकिन डीडवाना के लोग मानने को तैयार ही नहीं हैं कि यूनुस भाजपा को छोड़ेंगे. ऐसा मानने वाले जितने हिंदू हैं, उतने ही मुसलमान. अब संघ और भाजपा का नया डर है कि यूनुस ने कांग्रेस में जाने के बजाय अगर डीडवाना से ही निर्दलीय पर्चा भर दिया, तब क्या होगा. संघ के कार्यकर्ता पूछते हैं- आखिर क्या इज्जत रह जायेगी संघ की? नागौर के कांग्रेसी और डीडवाना के यूनुस समर्थक सब बेसब्री से कांग्रेस की अगली सूची का इंतजार कर रहे हैं, जबकि आज ज्योति मिर्धा का नामांकन भी हो चुका है. इस देरी के चलते कांग्रेस और आरएलपी को छोड़कर दस प्रमुख नेताओं ने अपने समर्थकों के साथ बीजेपी का दामन थाम लिया है. दलबदली जबरदस्त ढंग से जारी है लेकिन मतदाता की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अंततः बिरादरी मायने रखती है.

नेता की विश्वसनयीता है दांव पर

अगर दोनों प्रतिद्वंदी प्रत्याशी एक ही बिरादरी से हों, तब नेता की विश्वसनीयता काम करती है. यह स्थिति अलवर के राजगढ़ सीट पर है, जहां कांग्रेस के खिलाफ बहुत असंतोष है. यहां जौहरीलाल मीणा जैसे कद्दावर और जमीनी नेता का टिकट काट के मीणा बिरादरी के एक रिटायर्ड अधिकारी को कांग्रेस का टिकट दे दिया गया है. ठीक बगल के रामगढ़ में उतने ही जमीनी नेता जुबैर खान कांग्रेस से लड़ रहे हैं, जबकि निवर्तमान विधायक उनकी पत्नी शफिया जुबैर हैं. जुबैर के समर्थक हंसते हुए कहते हैं कि मैडम थोड़ा सख्त हैं, साहब मुलायम हैं इसलिए इस बार लोगों ने साहब से लड़ने के लिए कह दिया था. जौहरी लाल या जुबैर खान के मामले देखने पर लगता है कि चुनावी राजनीति कितनी कठिन या कितनी सरल हो सकती है.

दिल्ली में बैठ कर न्यूज रूम में जितने समीकरण ताने जाते हैं, उनके मुकाबले कभी कभी बहुत सरल सी बातें राजनीति, टिकट और उम्मीदवार को तय करती हैं. राजस्थान के मौजूदा चुनाव में ऐसे ढेरों मामले हैं जहां स्थापित राजनीतिक समझदारी मात खा जाती है. मध्य प्रदेश में जब केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को भाजपा ने विधायकी का टिकट दिया तो बहुत चर्चा हुई, लेकिन राजस्थान के नाथद्वारा सीट की कोई चर्चा नहीं कर रहा जहां से पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉक्टर सीपी जोशी विधायकी लड़ रहे हैं. दिलचस्प है कि भाजपा ने महाराणा प्रताप के किसी वंशज को उनके खिलाफ उतार दिया है. जोशी सांसद रहने के बावजूद एक बार एक वोट से विधायकी का चुनाव हार चुके हैं. उनके दुस्वप्न की क्या कोई बराबरी कर सकता है?

चुनाव तो गहलोत और वसुंधरा के ही बीच

अशोक गहलोत, वसुंधरा राजे जैसे बड़े चेहरों को छोड़ दें, तो इस बार आरएलपी के हनुमान बेनीवाल तक के बारे में कुछ भी शर्तिया नहीं कहा जा सकता. चंद्रशेखर आजाद की तो कहीं चर्चा ही नहीं है. वह केवल दिल्ली के कुछ तबकों के उत्साह का स्रोत हो सकते हैं. ऐसे ही, कुछ और नामालूम खिलाड़ियों में दुष्यंत चौटाला की जजपा और सीपीएम आदि हैं. दुष्यंत ने राष्ट्रीय पार्टी बनने की आकांक्षा में कुछ उम्मीदवार हरियाणा से सटी सीटों पर खड़े कर दिए हैं. सीपीएम ने भी तेरह प्रत्याशी दिए हैं. सीपीएम जैसों का संकट ये है कि प्रत्याशियों के आपराधिक रिकॉर्ड का विज्ञापन छपवाने के नए नियमों पर खर्च होने वाले लाखों रुपए कहां से ले आएं. फिलहाल, चुनाव आकार ले रहा है. छह तारीख के बाद जब प्रत्याशियों की अंतिम स्थिति स्पष्ट हो जाएगी तब शायद मरूभूमि पर कुछ रंग चढ़े, हालांकि चारों तरफ एक बात पर व्यापक सहमति है कि अबकी गहलोत सरकार के खिलाफ कोई असंतोष नहीं है. दूसरे, अबकी कहीं भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी काम नहीं कर रहा. इसलिए ज्यादा गुंजाइश यही है कि अंत तक राजस्थान का चुनाव बदरंग ही बना रहे. 

जाहिर है, जब रंगीले राजस्थान में चुनावी रंग नहीं होगा, तो चुनाव के नतीजे भी धुंधले ही होंगे. यही धुंधलका तय करेगा कि हर पांच साल पर सरकार पलटने का कथित रिवाज कायम रहेगा या टूटेगा. वैसे, रिवाज जरूरी नहीं कि चुनाव नतीजों के तुरंत बाद ही टूटे. ऐसा एकाध साल या कुछ महीनों के बाद भी हो सकता है. मध्य प्रदेश की पिछली नजीर हमारे सामने है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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