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सावरकर के माफीनामे को गांधी से जोड़कर गलती कर गए राजनाथ सिंह

राजनाथ सिंह देश के रक्षा मंत्री हैं. उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर और गांधी को लेकर एक ऐसा बयान दे दिया है कि पूरा विपक्ष एक सुर में उनकी कड़ी निंदा कर रहा है. उन्होंने कहा है कि सावरकर ने माफी तो मांगी थी, लेकिन खुद की मर्जी से नहीं, महात्मा गांधी के कहने से. और यहीं पर अपने रक्षा मंत्री के फैक्ट्स गलत हो जाते हैं जो इतिहास की तारीख से कतई मेल नहीं खाते हैं. साल 1893 में मोहनदास करमचंद गांधी 23 साल की उम्र में वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका जाते हैं. वहां वो करीब 21 साल तक रहते हैं और साल 1915 में भारत वापस आते हैं. कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले सीएफ एंड्र्यूज के जरिए मोहनदास करमचंद गांधी को भारत आने और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए कहते हैं और तब गांधी भारत आते हैं.

अब बात सावरकर की. सावरकर पर दो खंडों में विस्तृत किताब लिखने वाले विक्रम संपत अपनी किताब के पहले खंड इकोज फ्रॉम अ फॉरगाटेन पास्ट या किताब के हिंदी अनुवाद सावरकर, एक भूले-बिसरे अतीत की गूंज में लिखते हैं कि 17 जनवरी, 1910 को सावरकर के खिलाफ मॉन्टगोमरी की अदालत में केस दर्ज होता है और 18 जनवरी, 1910 को सावरकर के खिलाफ वॉरंट जारी होता है. इसमें सावरकर पर पांच आरोप तय किए जाते हैं.

1.सम्राट के खिलाफ युद्ध के लिए उकसाने का मामला
2.षड्यंत्र, जिसके जरिए सम्राट के एकाधिकार का हनन होता है
3.लंदन में 1908 में हथियार हासिल करना, जिससे 21 दिसंबर, 1909 को नासिक कलेक्टर जेक्सन की हत्या की गई
4.लंदन में 1908 में हथियार हासिल कर लंदन के सम्राट के खिलाफ युद्ध छेड़ना
5.भारत में जनवरी 1906 से मई 1906 के बीच राजद्रोही भाषण देना और लंदन में 1908-1990 के बीच राजद्रोही भाषण देना.

लेकिन तब भी सावरकर की गिरफ्तारी नहीं होती है. सावरकर गिरफ्तार होते हैं 13 मार्च 1910 को. और वो भी लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर. 12 मई, 1910 को बॉ स्ट्रीट के जस्टिस डि रूटजेन आदेश देते हैं कि सावरकर का मुकदमा भारत में चलेगा. 4 जून, 1910 को चीफ जस्टिस लॉर्ड एल्वरस्टोन सावरकर को भारत प्रत्यर्पण करने का आदेश देते हैं. 29 जून, 1910 को तब के गृह राज्य सचिव विस्टन चर्चिल आदेश देते हैं कि विनायक दामोदर सावरकर को भारत भेजा जाए. 1 जुलाई, 1910 को सावरकर लंदन से भारत के लिए रवाना होते हैं. और आखिरकार 22 जुलाई, 1910 को सावरकर बंबई की जेल पहुंचते हैं.

लंबी सुनवाई के बाद 23 दिसंबर, 1910 को कोर्ट का फैसला आता है. और उन्हें उम्रकैद की सजा होती है. लेकिन भारत में उम्रकैद की सजा का मतलब सिर्फ 25 साल की सजा थी. तो उन्हें मार्च 1911 में जैक्सन की हत्या के उकसाने के मामले में और 25 साल की सजा हो गई. और इस तरह से सावरकर की कुल सजा 50 साल की हो गई.  इसके बाद सावरकर को अंडमान जेल भेज दिया गया, जिसे काला पानी कहा जाता था. 30 जून, 1911 को अंडमान में कैदी के रूप में सावरकर का नाम दर्ज हुआ.

अंडमान पहुंचने के 18 महीने बाद 15 दिसंबर, 1912 को सावरकर ने अपना पहला पत्र लिखा था, जो उनके भाई नारायण राव के नाम था. कालापानी की सजा के दौरान अमानवीय यातनाओं को देखते हुए सावरकर ने 30 दिसंबर 1912 से 2 जनवरी, 1913 तक हड़ताल की थी. और फिर तय किया था कि जेल में हो रहे अत्याचार के खिलाफ जेल प्रशासन को याचिका दी जाएगी. उन्होंने याचिका देकर कहा कि उन्हें राजनीतिक कैदी की तरह देखा जाना चाहिए और इस लिहाज से उन्हें कुछ छूट और सुविधाएं हासिल होनी चाहिए.

लेकिन ब्रिटिश नहीं माने. और फिर सावरकर ने अपने लिए याचिका लिखी. सावरकर ने पहली याचिका लिखी थी 14 नवंबर, 1913 को. कैदी नंबर 32778 की ओर से लिखी गई ये याचिका अदालत के लिए थी. इसमें सावरकर ने कहा था कि अगर सरकार अपनी उदारता और दया के आधार पर मुझे रिहा करती है, तो मैं संवैधानिक सुधारों तथा अंग्रेज सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा. लेकिन याचिका पर कोई सुनवाई नहीं हुई. फिर अक्टूबर, 1914 में सावरकर ने अंडमान द्वीप समूह के चीफ कमिश्नर को फिर से याचिका भेजी. उस याचिका का मज़मून भी कमोबेश पहले जैसा ही था और कहा गया था कि अगर उन्हें रिहा किया जाता है तो वो यूरोप में शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल हो सकते हैं.

5 अक्टूबर, 1917 को सावरकर ने फिर से याचिका लिखी जो भारत सरकार के गृह विभाग के सचिव के नाम पर थी. 20 मार्च, 1920 को एक और याचिका सावरकर ने लिखी, जिसमें उन्होंने खुद को और अपने भाई को शाही माफी का हकदार बताया था. हालांकि माफी तो नहीं मिली, लेकिन सावरकर को अंडमान से निकालकर रत्नागिरी जेल भेज दिया गया. और इसकी वजह ये थी कि अंग्रेज अंडमान-निकोबार वाली जेल को बंद करना चाहते थे. रत्नागिरी पहुंचने के बाद 19 अगस्त, 1921 को भारत के गवर्नर जनरल के नाम सावरकर ने याचिका लिखी. 1921-22 में सावरकर की पत्नी जमुना बाई ने बंबई के गवर्नर सर जॉर्ज लॉइड के नाम याचिका लिखी थी. फिर 1923 में सावरकर को रत्नागिरी से पूना के यरवदा जेल में भेज दिया गया.

और यहां होती है गांधी की एंट्री. यरवदा जेल में जिस कोठरी में सावरकर बंद थे, उसकी बगल वाली कोठरी में गांधी बंद थे, जो असहयोग आंदोलन के मुकदमों की वजह से जेल में थे. और दोनों के बीच गंभीर मतभेद थे. गांधी खिलाफत आंदोलन को अपना समर्थन दे चुके थे तो सावरकर उसको आफत आंदोलन कहते थे. सावरकर गांधी के असहयोग और अहिंसा वाले रास्ते के खिलाफ थे और उसका मजाक उड़ाते थे. आखिरकार करीब एक साल की बातचीत के बाद 5 जुलाई, 1924 को सावरकर कई शर्तों के साथ जेल से रिहा हो गए.

अब इतिहास को एक बार फिर से तथ्यों की कसौटी पर परखिए. सावरकर ने जब पहली याचिका या अपना पहला माफीनामा लिखा था तो वो तारीख थी 14 नवंबर, 1913. और उस वक्त मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा गांधी नहीं हुए थे और न ही वो भारत में थे. वो दक्षिण अफ्रीका में थे, तो उन्होंने सावरकर को कब, कहां और कैसे सलाह दी कि वो माफीनामा लिखें. दूसरी बात कि गांधी का जो भी रास्ता था, वो सावरकर की विचारधारा के उलट था. गांधी खिलाफत को सही ठहराते थे तो सावरकर उसे आफत कहते थे. गांधी ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम कहते थे तो सावरकर जेल में भी नमाज की तेज आवाज के खिलाफ आवाज उठाते थे और हिंदुओं को तेज आवाज में गीता-रामायण और महाभारत पढ़ने के लिए कहते थे. एक दक्षिणी ध्रुव था तो एक उत्तर ध्रुव. फिर दोनों एक बात पर सहमत कब और कैसे हो गए, इसका जवाब शायद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह बेहतर दे सकें. बाकी तो तथ्य यही है कि अंडमान जेल में सजा इतनी सख्त थी, सावरकर को कोल्हू में बैल की जगह पेरा जाता था और हर तरह की ज्यादती की जाती थी, जिसकी वजह से सावरकर ने अपने माफीनामे लिखे और आखिरकार 5 जुलाई, 1924 को वो रिहा हो पाए. 

(नोट : इस किताब के कुछ तथ्य विक्रम संपत की किताब 'सावरकर, एक भूले-बिसरे अतीत की गूंज' से लिए गए हैं.)

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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