कौन है बिगाड़ रहा है उत्तर प्रदेश का माहौल ?
उत्तर प्रदेश के लिए तंज में कहा जाता है कि यहां का आदमी कुछ करे न करे सियासत जरूर करता है और जो सियासत करते हैं वो कुछ नहीं करते। उपचुनावों के लिहाज से सियासी दल हर उस मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं जो जातीय या सियासी समीकरण के लिहाज से उनको सूट करते हो।
बात जब देश की राजनीति की हो तो उत्तर प्रदेश स्वाभाविक रूप से पहले पायदान पर अपने आप शुमार हो जाता है। यहां के मुद्दे देश की सियासत पर अपना असर छोड़ते हैं। उपचुनावों के दौर में उत्तर प्रदेश की फिजा को खराब करने की कोशिश की जा रही है। ये हम नहीं कह रहे बल्कि बीते दो दिनों में हुई घटनाओं का इशारा है। जिस तरह बस्ती, बलरामपुर और श्रावस्ती में दो समुदायों के बीच विवाद हुआ.. हंगामा और तोड़फोड़ हुई। उसने न केवल प्रदेश की कानून व्यवस्था के लिहाज से चुनौती खड़ी की बल्कि उपचुनावों को लेकर ध्रुवीकरण की सियासत को फिर से गरम करने का काम किया है। वैसे भी योगी सरकार अपने ढाई साल के कार्यकाल की उपलब्धियों में इस बात को कई बार गिनाती रही है कि प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद कोई दंगा नहीं हुआ, लेकिन अब जब चुनाव सामने है तो ऐसे में साम्प्रदायिक टकराव की बढ़ती वारादतें ध्रुवीकरण की आशंका को बढ़ावा देती हैं। विपक्ष भी लगातार सरकार को इन मसलों पर घेरता रहा है। यानी उपचुनाव के लिहाज से मुद्दों को किनारे कर अब मजहबी सियासत के आधार पर वोटों की दरकार नेताओं को पड़ रही है और सवाल पुलिस को लेकर है। जो बार-बार कानून व्यवस्था को काबू में करने का दावा करने के बावजूद नाकाम नजर आ रही है।
उत्तर प्रदेश के लिए तंज में कहा जाता है कि यहां का आदमी कुछ करे न करे सियासत जरूर करता है और जो सियासत करते हैं वो कुछ नहीं करते। उपचुनावों के लिहाज से सियासी दल हर उस मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं जो जातीय या सियासी समीकरण के लिहाज से उनको सूट करते हो। झांसी में पीड़ित परिवार से मिलने पहुंचे सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सरकार को घेरा। यूपी की कानून व्यवस्था पर स्वामी प्रसाद मौर्य ने प्रदेश की कानून व्यवस्था को बेहतर बताया है। उन्होंने कहा कि जो लोग अपराधियों को संरक्षण देने का काम करते थे। वही लोग आज कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में जिन 11 सीटों पर चुनाव होना है उसमें से कोई भी सीट इन तीन जिलों में शुमार नहीं है, लेकिन इन तीनों जिलों को अगर उपचुनावों के लिहाज से देखा जाए तो इनकी नजदीकी और समीकरण खासे मायने रखते हैं। सबसे पहले आपको बताते हैं कि किन जिलों की सीटों पर उपचुनाव होना है। जलालपुर (अंबेडकरनगर) , प्रतापगढ़, रामपुर, लखनऊ कैंट, गंगोह (सहारनपुर), मानिकपुर (चित्रकूट), बलहा (बहराइच), इगलास (अलीगढ़), जैदपुर (बाराबंकी), गोविंदनगर (कानपुर) और घोसी (मऊ) में
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को आपने सुना और ये भी समझा कि जिन 11 सीटों पर चुनाव होने जा रहे हैं वो सियासी लिहाज कितना अहम है...अब एक बार फिर बात करते हैं उन जिलों की जहां ध्रुवीकरण के लिए माहौल बनाया जा रहा है और इन चुनाव वाली सीटों से उसका कनेक्शन क्या है।
बस्ती से 55 किमी दूर है अंबेडकरनगर, इन दोनों जिलों को घाघरा नदी अलग करती है। दोनों जिलों में भाषाई समानता है और जातीय समीकरण के लिहाज से सपा और बसपा के लिए मुफीद इलाके रहे हैं। इसी तरह बलरामपुर की बात करें तो अवध इलाके में आने वाला ये जिला गोंडा से अलग हुआ है और बहराइच से 60 किमी दूर है। सियासी लिहाज से इलाके के मुद्दे एक हैं और जातीय समीकरण के लिहाज से सपा और बसपा का बोलबाला रहा है। जहां तक बात श्रावस्ती की है तो बहराइच और बलरामपुर के बीच में है और श्रावस्ती के सियासी मिजाज पर बहराइच का असर साफतौर पर नजर आता है।
उपचुनाव के वक्त में सियासी लिहाज से ये मुद्दा इसलिए भी अहम हो जाता है क्योंकि कानून व्यवस्था के मुद्दे पर विपक्ष सरकार को लगातार घेर रहा है साथ ही ये मसले सरकार की साख पर सीधे-सीधे सवाल खड़े कर रहे हैं। बीते कई दिनों से कानून व्यवस्था को लेकर सरकार सवालों के घेरे में है। झांसी में खनन कारोबारी पुष्पेंद्र यादव के मामले में सरकार पहले से घिरी हुई है। प्रदेश में युवा नेताओं की ताबड़तोड़ हत्याओं ने पुलिस की लापरवाही और कानून व्यवस्था के लिहाज से बड़ी चुनौती खड़ी की है। सहारनपुर और बस्ती जैसे शहर में जहां भाजपा नेताओं की हत्या कर दी गई तो वहीं कानपुर में कांग्रेस नेता की हत्या कर दी गई। ये तीनों मामले बताते हैं कि पुलिस अपराधी बेखौफ है और उनके निशाने पर सियासतदान ही है।
इस चर्चा से एक बात तो साफ है कि चुनाव में जातीय समीकरण को साधने के लिए पार्टियां हर तिकड़म करती है। ऐसी परंपरा को निश्चित ही लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है, लेकिन मजहब के नाम पर समाज को बांटने और खून खराबे के हालात पैदा कर, एक दूसरे के खिलाफ भावनाए भड़का कर चुनाव लड़ने और जीतने की कवायद मानवता पर बड़ा खतरा है। इसे लोकतंत्र में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन सच ये भी है इसे रोकने की जिम्मेदारी पूरी तरह से नेताओं पर नहीं छोड़ी जा सकती । ऐसे जनता को भी चुनावों से पहले होने वाली इन घटनाओं के मतलब और उसके पीछे की सियासत को समझना होगा फिर अपनी भूमिका भी।