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बिखरती कांग्रेस का बेड़ा कैसे होगा पार ?

मिशन 2022 के लिए कांग्रेस ने जहां यूपी की जिम्मेदारी प्रियंका गांधी को सौंपी है तो वहीं प्रदेश अजय कुमार लल्लू को बनाया है। इसके अलावा संगठन में भी बड़ा फेरबदल किया है। ये बदलाव जमीन पर उतर सकें इसके लिए कांग्रेस ने कई और भी कवायद की है।

2014 से 2019 आ गया लेकिन, कांग्रेस के बुरे दिन खत्म नहीं हुए बल्कि 2019 में हालात 2014 से भी बदतर हो गए। अब तो कांग्रेस में नेतृत्व का संकट इस कदर गहरा गया है कि राहुल, सोनिया और प्रियंका के खिलाफ भी खुलेआम बगावत हो रही है। कई मसलों पर नेताओं की बंटी राय पहले ही सामने आ चुकी है फिर चाहे वो जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का मसला हो या फिर उत्तर प्रदेश में 36 घंटों के विशेष सत्र का। कांग्रेस की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ही नहीं बल्कि अब पहली पीढ़ी के नेता ही पार्टी के भीतर नेतृत्व संकट को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। कांग्रेस की मुश्किलों का ये दौर ऐतिहासिक नहीं है इससे पहले पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के सलाहकार रहे डॉ. हरीश खरे ने कहा था कि कांग्रेस चुनाव लड़ने वाली मशीनरी है। कोई वैचारिक या राजनीतिक दल नहीं खरे का दावा जिस आधार पर भी हो पर कांग्रेस के साथ अक्सर होता आया है कि पार्टी जब भी सत्ता से बाहर हुई है उसे मुश्किलों से दो चार होना पड़ा है। फिर चाहे वो नारायण दत्त तिवारी का पार्टी बनाना हो, शरद पवार, पीएम संगमा का अलग राहों पर चलना। ये सियासी घटनाएं उसी दौर की हैं जब कांग्रेस पॉवरलेस हुई। कुछ ऐसे ही हालात उत्तर प्रदेश में भी बन रहे हैं। विधायक अजय कुमार लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद बागी सुर तेज हो गए हैं और बगावत के ये बोल प्रियंका गांधी तक पहुंच जा रहे हैं।

इन तमाम मुश्किलों के बीच में जब कांग्रेस मिशन 2022 की तैयारी में जुटी है तो उसके नेतृत्व को लेकर यूपी में सवाल उठ रहे हैं। हालांकि नए प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू सब ठीक होने का दावा कर रहे हैं। कांग्रेस में इन दिनों टॉप लीडरशिप को नसीहत देने का दौर चल रहा है। पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने नसीहत दी, फिर पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने नसीहत दी, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो नसीहत देना भी नहीं चाहते। उत्तर प्रदेश में ऐसे ही एक नेता राजेश मिश्रा पूर्व सांसद ने प्रियंका गांधी की सलाहकार समीति में शामिल होने से इनकार कर दिया और सफाई भी बड़ी दिलचस्प दी।

2019 के नतीजों में भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत और कांग्रेस को मिली हार का गम पार्टी महीनों बाद भी भुला नहीं सकी। नतीजों से निराश कांग्रेस में इस्तीफों का दौर चला और पार्टी के सामने नेतृत्व का बड़ा संकट तब खड़ा हुआ जब राहुल गांधी ने अपनी जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ दिया जिसके नुकसान भी पार्टी को उठाने पड़े। मुश्किलों के दौर में ये भी जानना जरूरी है कि कांग्रेस कब-कब टुकड़ों में बंट गई। आजादी के बाद कांग्रेस कई बार विभाजित हुई। करीब 50 नई पार्टियां इस संगठन से निकल कर बनीं इनमें से कई निष्क्रिय हो गए तो कईयों का INC और जनता पार्टी में विलय हो गया।

सबसे पहला विभाजन 1951 में जे कृपलानी किसान मजदूर प्रज्ञा पार्टी बनाई और एनजी रंगा ने हैदराबाद में स्टेट प्रजा पार्टी बनाई। 1967 में चौधरी चरण सिंह ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का साथ छोड़ा और भारतीय क्रांति दल बनाया। कांग्रेस का सबसे बड़ा विभाजन 1977 में हुआ जब इंदिरा गांधी ने अपनी अलग पार्टी बनाई जिसका नाम INC (I) रखा। 1986 में प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस का दामन छोड़ कर राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी का गठन किया। 1994 में नारायण दत्त तिवारी की अगुवाई में कांग्रेस से अलग ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस का गठन किया गया। 1997 में कांग्रेस से अलग होकर ममता बनर्जी ने ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की। इसके अलावा और भी कई विभाजन कांग्रेस में हुए, लेकिन बाद में कांग्रेस में उनका विलय हो गया।

मिशन 2022 के लिए कांग्रेस ने जहां यूपी की जिम्मेदारी प्रियंका गांधी को सौंपी है तो वहीं प्रदेश अजय कुमार लल्लू को बनाया है। इसके अलावा संगठन में भी बड़ा फेरबदल किया है। ये बदलाव जमीन पर उतर सकें इसके लिए कांग्रेस ने कई और भी कवायद की है। कांग्रेस ने प्रदेश में चार उपाध्यक्ष बनाए हैं। इनमें से दो को संगठन और दो को आनुषंगिक संगठनों की जिम्मेदारी दी है। उपाध्यक्ष बनाए गए वीरेंद्र चौधरी को पूर्वी यूपी संगठन और पंकज मलिक को पश्चिमी यूपी संगठन की जिम्मेदारी दी गई है। वहीं ललितेश पति त्रिपाठी को प्रदेश यूथ कांग्रेस, एनएसयूआई, ओबीसी विभाग किसान कांग्रेस, महिला कांग्रेस और दीपक कुमार को सेवा दल, एससी-एसटी विभाग, अल्पसंख्यक विभाग की जिम्मेदारी मिली है। इनके अलावा 12 महासचिव और 24 सचिव बनाए गए हैं। अहम बात ये है कि पहले यूपी प्रदेश कांग्रेस कमिटी में करीब 500 लोग होते थे लेकिन नई कमिटी में 50 से भी कम लोग हैं।

इन हालात में सवाल ये है कि आखिर यूपी में बिखरती कांग्रेस का बेड़ा कैसे पार होगा ? क्या पद-हैसियत की जंग से गर्त में जा रही कांग्रेस ? सवाल ये भी उठता है कि कांग्रेस की इस हालत के पीछे सोनिया-राहुल-प्रियंका के नेतृत्व की नाकामी है ?

इस चर्चा जो निकल कर आता है...वो ये कि सियासत ही नहीं सामान्य जिंदगी में हार सीखने का एक मौका होती है । हां ये सच है कि हार की समीक्षा पूरी ईमानदारी से होनी चाहिए। कांग्रेस की खस्ता हालत की चिंता पार्टी के नेताओं को जरूर है, लेकिन कारणों को लेकर अभी भी उन्हें कोई परवाह है ऐसा दिखाई नहीं देता। मोदी जैसे कद्दावर नेता या भाजपा सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ जैसा कि कांग्रेस दावा करती है। पार्टी एकजुट होने की बजाय बिखरी नजर आती है। कांग्रेस का ये बिखराव इसलिए भी बड़ा नजर आता है कि विपक्ष के नाम पर उसके अलावा दूर-दूर तक भाजपा के सामने कोई और नहीं है। संख्याबल में औरों से थोड़ा बेहतर होते हुए भी अपने अंदरूनी संकट को लेकर वो औरों से बदतर हालत में पहुंच चुकी है। जिसकी वजह से न तो संगठन का पता चल रहा है, न सियासत की दिशा का।

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