देश का प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान माना जाता है दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी... उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश और दुनिया से बच्चे यहां पढ़ने आते हैं... मां-बाप हज़ारों उम्मीदों के साथ जेएनयू में अपने बच्चों का एडमिशन कराते हैं...लेकिन पिछले लंबे समय जेएनयू पढ़ाई नहीं सियासत और हंगामे को लेकर चर्चा में रहता है.. आज एक बार फिर देश का ये सबसे प्रतिष्ठित संस्थान सुर्खियों में है.. रविवार को छात्रों के गुटों के बीच जो हुआ उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी... किसी को भी ये अंदाजा नहीं था कि अपने आजाद ख्यालों... तथाकथित इंकलाबी सोच.. सियासी बहस और सामाजिक विमर्श का सबसे बड़ा ठिकाना अपने ही छात्रों के खून से लाल हो जाएगा...
हंगामा करने वाले कौन हैं...कोई नहीं जानता...हर छात्र संगठन किसी ना किसी राजनीतिक दल से जुड़ा है और एक-दूसरे पर इल्ज़ाम लगा रहा है... खून-खराबा करने वाले छात्रों के गुट ने दिव्यांग छात्रों को भी नहीं बख्शा... जेएनयू में छात्र संगठनों के बीच सियासी टकराव कोई नई बात नहीं है... लेकिन छात्रसंघ चुनाव और खालिस राजनीतिक मुद्दों से आगे बढ़कर अब ये लड़ाई सिर्फ और सिर्फ लेफ्ट और राइट में तब्दील हो चुकी है... इसीलिये जेएनयू के दोनों सियासी ध्रुव अब एक दूसरे पर रविवार की घटना की जिम्मेदारी डाल रहे हैं...
यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में बदलती छात्र राजनीति की वजह से ही आम लोगों के बीच अब कैंपस के नेताओं को लेकर सोच में भी काफी फर्क आ चुका है... लेकिन देश के तमाम कैंपसों से छात्र राजनीति से निकल कई चेहरों ने देश की राजनीति में अपनी चमक बिखेरी है... जेएनयू में हुई हिंसा की इस घटना के बाद अब सरकार और विपक्ष फिर से एक दूसरे के सामने आ चुके हैं... विपक्ष इस हिंसा को शैक्षणिक संस्थानों को बर्बाद करने की साजिश बता रहा है... और भाजपा इस मामले की जांच की बात कह रही है... लेकिन जेएनयू में हिंसा भड़की क्यों उसकी वजह तलाशने की बात कोई नहीं कर रहा है
तो अब सवाल उठता है कि शिक्षण संस्थानों को आखिर कौन बना रहा है सियासी अखाड़ा?... कैंपस में छात्रों की वैचारिक लड़ाई अब हिंसक झड़प में क्यों बदल रही है? और राजनीति का मोहरा बनकर क्या खुद अपना नुकसान करने लगे हैं छात्र?
शिक्षा के किसी सामान्य मंदिर में हंगामा और तोड़फोड़ कुछ नासमझ गुटों का झगड़ा हो तो समझा जा सकता है। लेकिन जब बात ऐसे संस्थान की हो, जिसने देश और दुनिया में नाम रौशन करने वाले कई नामचीन हस्तियों को तैयार किया है तो वो एक गंभीर मामला है। छात्रों और युवाओं में जोश स्वाभाविक है जिसने समय समय पर सत्ता से सीधे संघर्ष किया। लेकिन छात्रों को तथाकथित इंकलाबी सोच और अराजकता ही नहीं बल्कि राजनीतिक विचारधारा और सियासी सरपस्ती के अंतर को भी समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि छात्र राजनीति के नाम पर हिंसा और खूनी झड़प को समाज कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता है। क्योंकि ये सवाल सिर्फ जेएनयू का नहीं, पूरे देश का है। राजनीतिक दलों को ये समझना चाहिये और कम से कम शिक्षा के मंदिरों में तो सियासत से बाज आना चाहिए।