जिस आधी आबादी को हम अबला समझते हैं वो अबला नहीं, जननी है। बगैर उसके हमारा-आपका वजूद ही नहीं है। लेकिन कुछ दरिंदे अपनी ही जड़ों से साथ बेरहमी दिखाते हैं। आज राजनीति में बात उन दरिंदों की होगी, लेकिन उससे ज्यादा बात उस सिस्टम की होगी, जिसकी कुछ कमियों या सुस्ती को हथियार बनाकर दरिंदे वार करते हैं अपनी जननी पर...अपनी ही जड़ों पर।


हमारे समाज के माथे पर बलात्कार और महिलाओं के साथ हिंसा के जो दाग लगे हुए हैं उसे संभल की एक बेबस लड़की और  हैदराबाद की एक डॉक्टर के साथ हुए बलात्कार और फिर जिंदा जला देने की जघन्य घटनाओं ने और गहरा कर दिया है। ये शर्मनाक है कि ऐसी वारदातें सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं पूरे देश में अक्सर होती है और उससे भी ज्यादा शर्म की बात है कि दोषियों को सज़ा नहीं मिल पाती या सज़ा इतनी देर से मिलती है कि खुद कानून की किताब में लिखा शब्द याद आ जाता है--जस्टिस डिलेड मीन्स जस्टिस डिनायड..यानी देर सा मिला इंसाफ भी नाइंसाफी जैसा ही है।


आखिर क्यों निर्भया के दरिंदों को 7 साल बीत जाने के बाद भी सज़ा नहीं मिल पाई है। पूरे देश को झकझोर देने वाली उस वारदात के बाद निर्भया कानून...निर्भया फंड जैसे ना जाने क्या-क्या प्रावधान किए गए...लेकिन हुआ क्या...दरिंदगी बदस्तूर जारी है। यही वजह है कि इंसाफ की मांग लेकर लोग सड़क पर उतर आए हैं।


लोगों का दर्द और आक्रोश समझना मुश्किल नहीं है। निर्भया कांड के बाद महिला सुरक्षा के लिए सख्त किये गए कानून के बाद भी... मासूम बच्चियों से लेकर बुजुर्ग औरतों से बलात्कार और उनकी जघन्य हत्या के मामले सामने आते जा रहे हैं। लेकिन, किसी भी मामले में दोषी को सजा मिलने की एक ऐसी खबर सामने नहीं आती जो लाखों सहमी हुई बेटियों के जख्मों पर मरहम रख सके। अपने घरों से निकलकर स्कूल कॉलेज और दफ्तर जाने वाली करोड़ों युवतियां और महिलाएं सड़कों पर दिन-रात इंसान की शक्ल में बेखौफ घूम रहे जानवरों के लिये सबसे आसान शिकार बन चुकी हैं।


सिस्टम और समाज की इसी सोच पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद लाल किले की प्राचीर से अपने पहले ही भाषण में चोट की थी। पीएम ने महिलाओं पर ही पाबंदी के खिलाफ लाल किले की प्राचीर से सीधा सवाल किया था। हर बार यही होता है...सिस्टम अपनी नाकामी से ज्यादा महिलाओं को ही सुझावों के कठघरे में खड़ा कर देती है...जनता आक्रोश में सड़क पर उतरती है तो नुमाइंदें भी संसद में तकरीरें करते हैं...लेकिन ऐसा कबतक चलता रहेगा। आखिर कब तक हम बेटियों को दरिंदगी का शिकार होता देखते रहेंगे। क्या कानूनी पेचीदगियों की वजह से ही हैवानों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं और क्या हमे कानून को सख्त करने से ज्यादा महिलाओं के लिए अपनी सोच बदलने पर भी जोर नहीं देना चाहिये।


बेटियां ही समाज और सृष्टि की बुनियाद हैं। इस बुनियाद पर चोट पूरे समाज के लिए घातक है। इस बुनियाद पर चोट पूरे सिस्टम के लिए शर्मनाक है। अपनी बुनियाद और बेटियों की हिफाजत के लिए समाज को अपना नजरिया बदलना होगा। सिस्टम को अपनी नजर चौकन्नी करनी होगी। कानून तो सख्त होना ही है असल बात है सिस्टम का सख्त और फुर्तीला होना। जब ये सिस्टम सख्त होगा, तेज होगा तो सख्त कानून के तहत दोषियों को सख्त सजा भी मिलेगी। ऐसी एक सख्त सजा ही हर उस दरिंदे के लिए नजीर होगी जो बेटियों पर बुरी नजर रखता है।