रामविलास पासवान बिहार की राजनीतिक ज़मीन से उभर कर राष्ट्रीय राजनीति में दशकों तक अपनी विशिष्ट पहचान के साथ सक्रिय रहे. दलित परिवार में जन्म लेने और दलितों से जुड़े मुद्दे उठाते रहने के कारण भले ही वह ‘दलित नेता’ कहे जाते थे लेकिन, उन्हें चाहने और उनको समर्थन देने वालों में ग़ैरदलितों की तादाद भी कम नहीं थी.


अपनी पत्रकारिता के शुरूआती दौर, यानी अस्सी के दशक में, जब उनसे मेरा परिचय हुआ था, तब मुझे उनकी बातों में एक अलग ही क़िस्म का जुझारूपन दिखता था. यानी ऐसा जुझारूपन, जो वंचित वर्ग या दलित समुदाय के हक़ में आवाज़ उठाने वाली सख़्त कम्युनिस्ट शैली से भिन्न भी और सुविधानुसार अड़ियल भी हो.


जैसे किसी सामाजिक या राजनीतिक मुद्दे पर रामविलास पासवान की जो भी सोच बन जाती थी, उस पर टिके रहने के लिए आक्रामक तेवर अख़्तियार कर लेने से भी उन्हें कोई गुरेज़ नहीं होता था. अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए सरकारी ही नहीं, ग़ैरसरकारी नौकरियों और प्रोन्नतियों में भी आरक्षण से लेकर अन्य संवैधानिक प्रावधानों तक के तमाम संघर्ष रामविलास पासवान के सियासी औज़ार बने रहे.


मतलब वैचारिक रूप से लोहिया और जयप्रकाश से प्रभावित रामविलास जी अपनी समाजवादी सोच को समयानुसार कभी लचीला तो कभी नुकीला कर लेने में माहिर होते चले गए. यही कारण है कि सत्ता-राजनीति तक पहुँचने के कई कठिन रास्तों को भी आसानी से खोल लेने में उन्हें कामयाबी मिलती गयी.


किसी सियासी चाल में धोखा खा जाने जैसी विफलता कम और सत्ता हाथ लग जाने जैसी सफलता अधिक हासिल करने वाले नेताओं में रामविलास पासवान का नाम प्राय: ऊपर ही रहा है. अगर उनके जातीय आधार पर ग़ौर करें, तो बिहार में विभिन्न दलित जातियों के एक बड़े वर्ग में पासवान जाति की न सिर्फ़ अच्छी-खासी तादाद है, बल्कि अन्य दलितों के मुक़ाबले उसे मुखर, जुझारू और जागरूक माना जाता है.


इसी तबक़े को अपनी केंद्रीय ताक़त बना कर और उस से अन्य दलितों और कमजोर वर्गों को जोड़ कर रामविलास जी ने अपना जनाधार तैयार किया था. इसी जनाधार के बूते उन्होंने अपनी पार्टी के लिए मुस्लिम समेत कई अगड़ी-पिछड़ी जातियों से भी हर तरह के अच्छे-बुरे समर्थक जुटाए. इस तरह बिहार की चुनावी राजनीति में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की हैसियत कभी सम्हलती कभी फिसलती हुई लगातार बनी रही.


ग़ौरतलब ये भी है कि रामविलास पासवान ने अपने राज्य की सत्ता से जुड़ने के बजाय हमेशा केंद्रीय सत्ता से जुड़े रहना पसंद किया. इसकी वजह ये भी थी कि उनके मुख्यमंत्री बनने लायक़ परिस्थितियाँ कभी बन ही नहीं पायीं. कई मायनों में उनका व्यक्तित्व एक अलग सियासी नेतृत्व की झलक देता था. जैसे कि उनके भाषणों में जो देसी रंग वाली कहावतें, लोकप्रिय कविताओं के अंश और बोलचाल के चुटीले जुमले होते थे, उनका लोगों पर ख़ासा असर पड़ता था.


हालांकि भाषाई शुद्धता के मामले में वो बहुत सतर्क नहीं रहते थे, फिर भी उनके अनुभव और राजनीतिक समझ के साथ ज़ाहिर होने वाली उनकी बातों में काफ़ी दम आ जाता था. जब कभी उन पर परिवारवाद, दागी व्यक्तियों से परहेज़ नहीं करने या ‘फ़ाइव स्टार दलित नेता’ जैसे आरोप लगते थे, तो उनकी आक्रामक प्रतिक्रिया भी देखते बनती थी.


उनका तर्क होता था कि इस तरह के आरोप लगाने वाले दरअसल दलितों को बिल्कुल दबी-कुचली हुई मरियल स्थिति में देखने की तमन्ना पालते हैं. विवादों के कई ऐसे झंझावात उन्होंने झेले, जिनमें भ्रष्टाचार की चुभन से लेकर अवसरवाद के दंश भी शामिल थे. फिर भी उनके सियासी मक़सद में कोई बड़ी बाधा नहीं आई और उनका परिवार भी आक्षेपों से बेपरवाह आगे बढ़ता रहा.


ख़ैर, अपने परिवार के जिन सदस्यों को रामविलास जी राजनीति में प्रशिक्षित कर के छोड़ गए हैं, उनमें से ही एक, यानी उनके पुत्र चिराग़ पासवान ने पार्टी की बागडोर उनके जीवनकाल में ही संभाल ली थी. अब जबकि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में लोजपा को बड़ी चुनौती का सामना है, ऐसे में रामविलास जी के नहीं रहने से चिराग़ पासवान के प्रति सहानुभूति की उम्मीद पार्टी को हो सकती है.


जो भी हो, केंद्र सरकार के कई महकमों के मंत्री रहे रामविलास पासवान अपने राज्य बिहार के लिए जो कुछ उल्लेखनीय कर पाए, उनके लिए कृतज्ञ भाव से उन्हें श्रद्धांजलि देने का यह मौक़ा है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)