वह भी क्या दिन थे, जब दिलों से ये दुआएं निकलती थी कि रमज़ान जल्दी आए, बहुत जल्दी आए. इसकी आमद का बेसब्री से इंतजार होता था. शब-ए-बरात से ही तैयारियां शुरू हो जाती थीं. पूरे माहौल में खुशियां ऐसे डेरा जमाती थीं, जैसे इतर ने खुशबू बिखेर दी हो. हमारे खुश होने की कई वजहें थीं. पढ़ाई में छूट, गांव से बाहर रहे रिश्तेदारों, खानदान और महल्ले के लोग और खासकर हमउम्र बच्चों से एक मुद्दत के बाद मुलाकात का मौका, पूरे कुंबे के साथ होने का मज़ा यानि खुशियां की सैलाब का आना.
हम बच्चे एक दिन में ही कई कई 'रोज़े' रह जाया करते थे और सबसे ज्यादा जिस पल का इंतजार रहता था वो थी इफ्तारी. वजह साफ थी कि उस जमाने में जो पकवान खाने का मौका इफ्तारी में मिलता था आम दिनों में नदारद थे. मस्जिद में जाना, एक साथ सबका इफ्तार करना, वो भी पूरे तीस दिन. वो रुहानी महफिल जिसका अल्फाज में बयान मुमकिन नहीं.
हम बच्चों की जिम्मेदारी होती थी. मस्जिद के आंगन में चटाई के साथ दस्तरख्वान बिछाना, इफ्तारी को ढोकर मस्जिद लाना, रेकाब (बड़ी प्लेट) को बेहतरीन खानपोश से ढककर मस्जिद तक लाना और प्लेटों में इफ्तारी सजाना. इफ्तार के आखिरी वक्त में रुह अफज़ा की शरबतें गिलास में डालना.
हर रोज मस्जिद में कोई न कोई राहगीर होते थे, हम सब हमउम्र बच्चों की जिम्मेदारी होती थी कि उन्हें वक्त पर खाना और सेहरी खिलाएं. हम सब पूरे जोश-व-जुनून से ऐसा करते थे. सवाब की नीयत भी होती थी.
पूरा महीना बिल्कुल रुहानी त्यौहार जैसा होता था. आधी रात के बाद ही रोज़ेदारों को सेहरी के लिए जगाने का अलग से इहतिमाम (व्यवस्था) किया जाता था. रमजान के पहले 15 दिनों में सेहरी में जगाने वाले काफिला की पंक्तियां होती थीं- 'चला आ रहा रमजान प्यारा' और 15 दिन के बाद लाइन बदल जाती थी- 'चला जा रहा है रमज़ान प्यारा'.
सेहरी के तुरंत बाद घर की ख्वातीन (महिलाओं) की तेलावत-ए-कुरान (कुरान पढ़ने) की आवाज़ों से सुबह गुलजार होती थी और रात में हाफिज (कुरान को जबानी याद करने वाले) साहिब की बुलंद सुरीली आवाज़ में तरावीह की खास नमाज़ के साथ इख्तिताम (समापन)... पांचों नमाज में मस्जिदें पूरी तरह से भरी रहती थीं.
इफ्तार पार्टी और दावतों का भी लंबा सिलसिला चलता था. खानदान, रिश्तेदारों और करीबी दोस्तों को खुसूसी (विशेष) तौर पर दावत दी जाती थी और उन लोगों के यहां से दावत मिलती भी थी. आखिरी अशरे (दस दिन) में खरीदारी जोरदार होती थी और फिर ईद.
इन तीन दहाइयों में दुनिया भी बदली, हम भी बदले, रमजान भी बदला, लेकिन अब भी रमजान की रौनकें कायम थीं. सभी मस्जिदों में इफ्तार की रिवायत (परंपरा) ज़िंदा थी, तरावीह का एहतिमाम पूरे आन बान शान से जारी था. लेकिन कयास (अनुमान) व खयाल से ये बात ऊपर थी कि एक ऐसी वबा (महामारी) आएगी जो मुकद्दस (पवित्र) महीने की उन रुहानी महफिल को झटके में मिटा देगी जो हमारी तहजीबी शऊर (सांस्कृतिक चेतना) का असासा (दौलत) हैं. मस्जिदें वीरान हो जाएंगीं, नमाज़ी घरों में कैद हो जाएंगे. दावतों पर ऐसा कदगन (रोक) लगेगा कि लोग अपने पड़ोसी और जरूरमंदों को इफ्तार भेजने से भी गुरेज करेंगे.
सच कह दूं गर तू बुरा न माने - तेरी बेरुखी पे ऐ रमजान रोना आया!
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