राजनीतिक विश्षलेकों के अनुसार पीएम मोदी ने सन् 2011 से ही प्रधानमंत्री पद के लिए अभियान शुरू कर दिया था. हालाँकि यह बहुत स्पष्ट रूप से नहीं था, लेकिन परोक्ष रूप से पार्टी के भीतर भी यही हवा बनाई गई कि भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के सबसे उपयुक्त उम्मीदवार मोदी ही हो सकते हैं.
यह काम किस स्तर पर किया गया होगा, इसका अन्दाजा भाजपा संसदीय दल की बैठक (13 सितम्बर, 2013) से लगाया जा सकता है, जिसमें यह निर्णय लिया गया था. 20 दिसम्बर, 2012 को गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद नरेन्द्र मोदी चौथी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने. 13 सितम्बर, 2013 को भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक हुई. इसमें मोदी भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित कर दिए गए. इस सबसे पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी खुश नहीं थे, इसलिए वे इस बैठक में शरीक नहीं हुए. वे मोदी के नाम का विरोध इस आधार पर कर रहे थे कि इससे यूपीए सरकार के खिलाफ सतत उठाए जा रहे महँगाई व बेरोजगारी जैसे मुद्दे गौण हो जाएँगे.
मगर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने को लेकर तब तक कितना काम हो चुका था, यह इसी से समझा जा सकता है कि तब आडवाणी से मात्र मुरली मनोहर जोशी व सुषमा स्वराज ही सहमत थे. बाकी पूरी जमात मोदी के साथ थी. हालांकि पार्टी के भीतर अपने पक्ष में फैसला करा लेने मात्र से मोदी जंग जीत गए हों, ऐसा नहीं था. अब उन्हें गठबंधन के अपने साथियों को समझना व समझाना था. 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी. नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) भी इसका हिस्सा थी.
मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करते ही नीतीश अपनी पार्टी लेकर अलग हो गए. मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात में हुए नरसंहार के खिलाफ वे खुलेआम बोलते आए थे. इस बार भी उन्होंने खुलकर मोदी का विरोध कर दिया.
इससे मोदी हताश नहीं हुए, बल्कि उन्होंने एक रणनीति के तहत छोटी- छोटी पार्टियों को जोड़ने का काम शुरू किया; जैसे—बिहार में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, उत्तर प्रदेश में अपना दल. इस बीच रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने यूपीए छोड़कर एनडीए में शामिल होने का फैसला किया. इस तरह पूरे देश में कई छोटी पार्टियों को जोड़कर नया कुनबा बना लिया गया. मई, 2014 में आम चुनाव के परिणाम आने से कुछ पहले, 22 अप्रैल, 2014 को मोदी ने एक टीवी इंटरव्यू में दावा किया कि इस बार भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलेगा, उसे सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी के समर्थन की जरूरत नहीं पड़ेगी।
उन्होंने यह भी कहा कि 25 दलों के साथ चुनाव पूर्वगठबंधन भारत के चुनावी इतिहास में कभी नहीं हुआ. 2014 के आम चुनाव से पहले दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा चुनाव थे। मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का परीक्षण इन्हीं चुनाव में होना था. सो ये चुनाव एक तरह से सेमीफाइनल माने गए. मोदी ने इन चुनावों में धुआँधार प्रचार किया. जहाँ जरूरत लगी, वहाँ हिन्दू कार्ड खेला. जहाँ स्थिति स्पष्ट नहीं थी, वहाँ के लिए ‘विकास’ का नारा लगाया.
मोदी की जीत में बूथ मैनेजमेंट की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. खासतौर से उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहाँ के जातिगत गणित बहुत उलझे हुए हैं. अमित शाह ने वहाँ जबर्दस्त बूथ मैनेजमेंट किया. वे पार्टी कार्यकर्ताओं को यह समझाने में सफल रहे कि जहाँ सामने वाली पार्टियाँ आपस में ही लड़ रही हों, वहाँ जीतने लायक मत लाना बहुत आसान नहीं तो बहुत मुश्किल भी न होगा. इस बूथ मैनेजमेंट में जातिगत गणित का भी खास खयाल रखा गया, ताकि हर वर्ग के वोटर को लुभाया जा सके.
शाह ने वह कर दिखाया, जिसकी उम्मीद उनसे मोदी कर रहे थे. मोदी की राजनीति में प्रचार की बहुत अहमियत है. उनका हर चुनाव अभियान मानो मार्केटिंग की रणनीति की तरह तैयार किया गया और उसमें मोदी अनथक मेहनत करते दिखे. इसके अलावा पेशेवर युवा मोदी के लिए काम करना
चाहते थे. यह भाँपकर प्रशान्त किशोर ने सीएजी (सिटिजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नमेंट) नामक पब्लिक एक्शन कमेटी बनाई. इसमें मोदी से प्रभावित युवा पेशेवरों को शामिल किया गया.
प्रचार के लिए आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल में मोदी देश के दीगर नेताओं से आगे रहते हैं. संचार-माध्यमों की मदद से उन्होंने 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में ही प्रभावी प्रचार किया. जाहिर है, 2014 के लोकसभा चुनाव में इस प्रयोग और उनके अनुभव का भाजपा को भरपूर फायदा मिला और देश के कोने-कोने तक उनकी आवाज पहुँचाई गई. उस वक्त जनता के सामने सिर्फ मोदी का चेहरा व उनका व्यक्तित्व था.
प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की एक विशिष्ट उपलब्धि जनता के बीच राजनेताओं के प्रति विश्वसनीयता पैदा करना रहा. 2010 से 2013 के बीच अन्ना आन्दोलन, ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ और आम आदमी पार्टी के शुरुआती प्रहारों से जनता के बीच एक सन्देश गया कि राजनेता समाज और उसकी सेवा के प्रति गम्भीर और कटिबद्ध नहीं हैं. इस दौर में किए गए अनेक सर्वेक्षणों में राजनेताओं और राजनैतिक दलों की जनता से बढ़ती दूरियों को रेखांकित किया.
लेकिन मोदी की 2014 की जीत के बाद यह नजरिया बदला. यह दूसरी बात है कि मोदी के प्रति भक्ति भाव, अति विश्वास और उत्साह से समाज में अन्य समस्याएँ खड़ी हुईं. दरअसल एक बड़े तबके ने मोदी का यथार्थके धरातल पर सटीक मूल्यांकन करना और विवेक का इस्तेमाल करना बन्द कर दिया. जबकि यह जाग्रत विवेक ही था जिसके कारण इन्दिरा को 1977 में ताकतवर होने के बावजूद चुनावी हार का सामना करना पड़ा था.
[नोट- 'भारत के प्रधानमंत्री: देश, दशा और दिशा' शीर्षक के साथ वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने किताब लिखी है. यह लेख उसी किताब का हिस्सा है]